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७८ / योग- प्रयोग - अयोग
संस्कार के रूप में जमा होते हैं। कषाय जितने तीव्र होंगे स्पन्दन उतने ही तरल होंगे। स्पन्दन जितने मंद होंगे भावों की विशुद्धि उतनी ही विशुद्ध होगी। कषायों की मंदता से भावात्मक रूप तेजों, पद्म और शुक्ल शुभ लेश्याओं की शक्ति तीव्र होती है और कषायों की तीव्रता से कृष्ण, नील और कापोत अशुभ लेश्याओं की शक्ति तीव्र होती है।
शुभाशुभ भावनाएँ
शुभ और अशुभ भावनाओं के दो प्रकार हैं, एक प्रवाह है इच्छा का, दूसरा प्रवाह तृप्तिका । इच्छाओं का कभी अभाव नहीं होता, इच्छाओं की समाप्ति का हेतु है शुभभाव रूप तृप्ति ।
कषाय रूप तीव्र और मंद इच्छाओं से, शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श में परिवर्तन होता है ।
शब्द
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शब्द यह श्रोतेन्द्रिय का विषय है। इस विषय से लेश्या का गहरा सम्बन्ध है भीतर से जैसे भाव उभरते हैं हमारी लेश्या युक्त शब्द उसी रूप में स्फूरायमान होता है और उन शब्दों से दूसरों के भाव - तन्त्र संस्कारित हो जाते हैं तब वही . संस्कार
श्या के रूप में प्रकट होते हैं। शब्दों की श्रृंखला एक सी नहीं होती, वह तो बदलती रहती है। भिन्न-भिन्न शब्दों के संयोग से भिन्न-भिन्न वातावरण उपस्थित होता रहता है। जैसे हम किसी को प्यार करते हैं तो किसी को ठुकराते भी हैं। प्यार के शब्दों में रागात्मक भाव उजागर होते हैं और तिरस्कार के शब्दों में द्वेषात्मक भाव जागृत होते हैं। दोनों प्रकार के शब्दों के प्रयोग में, चुनाव में, स्पन्दनों में, तरंगों में परिवर्तन की प्रक्रियाएँ प्रारम्भ हो जाती है। शब्द भीतर भाव रूप में होता है तब अतिसूक्ष्म ध्वन्यात्मक रूप में होता है। ध्वनि श्रव्य और अश्रव्य दो प्रकार की है। अश्रव्य ध्वनि (Ultra Sound-Supersonic) भाव - लेश्या के रूप में भीतर स्फूरायमान होती है जो सुनाई नहीं देती है। हमारे कान केवल अधिक से अधिक प्रति सेकण्ड ६० सहस्र कंपनों को पकड़ सकते हैं । यही कम्पन स्थूल रूप को धारण कर अच्छे और बुरे विचार के रूप में व्यक्त-अव्यक्त होते हैं ।
यदि विवेक शुद्धि है तो शब्दों का चयन उपयोग रूप में बदल जायेगा, यदि विवेक का अभाव है तो शब्दों का चयन उपभोग रूप में बदल जायेगा । हमारी घटना के अनुरूप शब्दों का उपयोग होता है। हमारी वृत्तिओं के अनुसार शब्दों के चयन होते हैं। हमारे भाव के रूप में हमारी लेश्याओं का परिवर्तन होता है ।