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६८ / योग- प्रयोग- अयोग
हमारा दृश्य शरीर औदारिक शरीर है। इस शरीर में योगासव के आवेग अनेक रूपों में परिलक्षित होते हैं। चिकित्सकों ने भी इन आवेगों के उपायों की खोज की है। उन्होंने सात धातुओं में सप्तम धातु वीर्य को माना है। इस प्रकार आत्मा और शरीर दोनों द्वारा वीर्य का विकास परिलक्षित होता है ।
हमारे मस्तिष्क में अनेक प्रकार की तरंगें पैदा होती हैं। अल्फा, बेटा, थेटा इत्यादि- विभिन्न आवेगों का, विभिन्न उत्तेजनाओं का, यौगिक पद्धति से निरीक्षण और परीक्षण किया जा सकता है ।
शरीर शास्त्र में सप्त धातुओं में से अंतिम धातु वीर्य को ही सर्वस्व मान्य किया है क्योंकि वीरता, पराक्रम, शौर्य, लावण्य इत्यादि रूप में परिणमित हुए दिखते जाते हैं । किन्तु अध्यात्म शास्त्र में आत्मिक वीर्य को ही महत्व दिया है। वीर्यशक्ति, बलस्थान, पराक्रम, शौर्य, उत्साह इत्यादि का आधार आत्मवीर्य माना है । मन, वचन और कायरूप योग से जो कुछ भी सूक्ष्म या स्थूल, स्पंदन या प्रवृत्ति होती है उन सबमें आत्मवीर्य की ही प्रधानता होती है। वीर्य के अभाव में मन, वचन और काया का कोई प्रभाव नहीं होता। इस प्रकार योग और वीर्य का परस्पर सम्बन्ध अनिवार्य है ।
हमें जो परिस्पन्दन का संवेदन होता है, यह वीर्य का ही प्रभाव है। जब तक योग स्थिर नहीं होता, तब तक वीर्य में परिस्पंदन का ही प्रभाव माना जाता है। जैसे ही योग शुभ होता जायेगा वीर्य में स्थिरता क्रमशः बढ़ती जायेगी । आत्मा की विशुद्धि, निष्कंपता एवं कर्मक्षय का सातत्य भी वर्धमान होता जायेगा ।
जब आत्मा में वीर्य की उत्कृष्टता होती है, तब योगों की प्रवृत्ति मंद हो जाती है और परिणाम शक्ति तीव्र हों जाती है। वीर्थ द्वारा पुद्गल और आत्मा पृथक परिलक्षित होते हैं । अतः यहाँ वीर्य को हम दो विभागों में विभक्त कर सकते हैं ।
१. लब्धि वीर्य और २. उपयोग वीर्य ।
लब्धि वीर्य
लब्धि वीर्य में बहिर्मुख से अंतर्मुख की ओर ले जाने की प्रक्रिया है । मन, वचन और कायिक वीर्य को अधोन्मुख भूमिका से ऊर्ध्वकरण कर विकासोन्मुख की ओर ले जाना, बन्धन को तोड़कर मुक्ति की ओर अग्रसर करना, आवरण से अनावरण की ओर बढ़ाना, परतन्त्रता की परिधि से स्वतन्त्र विहरण करवाना इत्यादि प्रवृत्ति वीर्यान्तराय कर्मों के क्षयोपशम से होती है । १०
१०. आनंदघन कृत चौबीशी, महावीर जिन स्तवन गा. ३