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योग-प्रयोग- अयोग / ६९
वीर्य परिणाम या आत्म-प्रदेश परिस्पंदन से जो परिणमन रूप शुभ योग है, उसे लब्धि वीर्य कहते हैं । लब्धि वीर्य छद्मस्थ और मुक्त साधक के रूप से उभयात्मक है। उपयोग वीर्य
वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से वीर्य उत्तेजित होता है और योग विशुद्ध होता है। ऐस योग वीर्य के दो पहलू हैं । १. छद्मस्थ वीर्य २. मुक्तवीर्य । छद्मस्थ वीर्य कर्मों से आवृत्त होता है। क्योंकि सलेशी आत्मा क्षयोपशमिक वीर्य लब्धि प्राप्त करता है और अलेशी आत्मा क्षायिक वीर्य लब्धि को प्राप्त करता है। जब शुभलेश्या आती है तब ज्ञानपूर्वक आत्मभावोल्लास उत्पन्न होता है। इस अवस्था को अभिसंधिज योग कहते हैं और आत्मा में होने वाले सहज स्फुरण से शरीर में जो प्रवृत्ति सहज रूप से चलती है, जैसे-कंपन, स्फुरण या रूपान्तर से आत्मा में होने वाला स्फुरण अनभिसंधिज योग कहलाता है । इसे उपयोग वीर्य कहते हैं ।
कोष्ठक नं. ४.
वीर्य
क्षायोपशमिक (छद्मस्थको )
अभिसंधिज
सलेश्य
अभिसंधिज
क्षायिक (सयोगी केवली)
अनभिसंधिज
अलेश्य
क्षायिक ( अयोगी केवली को-सिद्ध को)
अनभिसंधिज