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योग-प्रयोग-अयोग/४५
करने चाहिये। यदि किसी भी उपाय द्वारा अधिक विभाग किये जायें तो फिर पाँच ही क्यों.? क्षपोयशम भाव की अपेक्षा से असंख्यात विभाग भी किये जा सकते हैं। ___ इन वृत्तियों के विषय में यदि विचार किया जाये तो प्रमाण मन की वृत्तिरूप में नहीं है, क्योंकि प्रमाण तो ज्ञान स्वरूप है और ज्ञान आत्मा का वस्तु स्वरूप जानने का व्यापार है तथा प्रमाण में स्मृति प्रत्यभिज्ञा ज्ञान का भी समावेश होता है। यदि वह सत्य है तो प्रमाण में और असत्य है तो विपर्यय में समावेश होता है। उसी प्रकार संकल्प विकल्प भी सानुकूल-प्रतिकूल वस्तुवाला प्रतीत होता है। स्मृति में भी शान्ति और अशान्ति के निमित्त प्राप्त होते रहते हैं। उसमें भी अनेक प्रकार होते हैं । सत्य शान्ति होने पर प्रमाण और असत्य शान्ति होने पर विपर्यय होता है । अतः आहेत सिद्धान्तानुसार दो ही वृत्तियों में पाँचों वृत्तियों का समाधान हो जाता है ।५१
विषयेक न होते हुए भी जो बोध सिर्फ शब्दज्ञान के बल से होता है वह विकल्प है। यहाँ शब्द मात्र से अथवा अन्य वस्तु के देखने मात्र से अथवा मानसिक विचारों के योग से जो भाव उत्पन्न होते हैं उसे विकल्प कहा जाता है। पूर्ण वस्तुका प्रकाश न होने पर असत् ख्याति रूप में प्रसिद्ध होने से भी यह विकल्प कहा जाता है। असतो नत्थि निसेहो विशेष आवश्यक के कथनानुसार असद् वस्तु का सर्वथा निषेध नहीं हो सकता क्यों कि सद् वस्तु का विकल्प भी संभवित होता है। अतः सर्वथा वह असत् नहीं हो सकता।
जैसे आकाशकुसुम ऐसा कहने से एक प्रकार का भास हो ही जाता है । चैतन्य यह आत्मा का स्वरूप है। ऐसा सुनने से भी भास होता है। प्रथम प्रकार का विकल्प विपर्यय कोटी में सम्मिलित करना चाहिए, क्योंकि, आकाशकुसुम यह व्यवहार प्रमाण सम्मत नहीं है। दूसरे प्रकार का विकल्प जिसमें भेदबोधक षष्ठीविभक्ति के बल से आत्मा और चैतन्य का भेद भासित होता है वह नय अर्थात् प्रमाणांशरूप है। क्योंकि ऐसे विकल्प का व्यवहार शास्त्रीय और प्रमाणिक सम्मत है । प्रमाणांश करने का मतलब यह है कि, व्यवहार्ता की दृष्टि कभी भेद प्रधान और कभी अभेद प्रधान होती है। दोनों दृष्टियों को मिलाने से ही प्रमाण होता है । दृष्टि को अपेक्षा या नय कहते हैं। वस्तुतः आत्मा चैतन्य स्वरूप है, पर उसके अनेक स्वरूप में से जब चैतन्य स्वरूप का कथन करना हो तब भेद दृष्टि को प्रधान रखकर प्रामाणिक लोक भी ऐसा.बोलते हैं कि चैतन्य यह आत्मा का स्वरूप हैं। इस कथन से यह सिद्ध है कि जो "आकाश पुष्प'
५०. उपाध्याय यशोविजयाजी कृत व्याख्योपेत पातञ्जल योगदर्शन पृष्ठ २ ५१. विशेषावश्यक भाष्य पा. १५७९