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६० / योग-प्रयोग-अयोग
__मोहनजोदड़ो की खुदाई से प्राप्त अनेक मूर्तियों और अवशेषों को पुरातत्ववेत्ता जैन संस्कृति के अवशेष मानते हैं, क्योंकि वहाँ यज्ञ-प्रधान ब्राह्मण-संस्कृति का कोई अवशेष प्राप्त नहीं हुआ । योगप्रधान संस्कृति के जो अवशेष प्राप्त हुए हैं वे जैन संस्कृति के ही हो सकते हैं, अतः जैन संस्कृति की प्राचीनता इतिहाससिद्ध है।
जेनागमों में जो चौदह पूर्वो का ज्ञान था, उन चौदह पूर्वो में बारहवाँ पूर्व "प्राणायु' नाम का था। उसके एक करोड़ छप्पन लाख पद थे१६उसमें प्राणायाम आदि योग का स्वरूप बताया गया था। चौदह पूर्वो का विच्छेद होने से जैनों का यह योगज्ञान विच्छेद हुआ प्रमाणित होता है। जैनाचार्यों में पूर्वाचार्य श्री भद्रबाहुस्वामी ने भी भाव प्राणायाम और महाप्राण ध्यान की प्रक्रिया सिद्ध की थी ऐसा इतिहासप्रसिद्ध है ।१७)
"जैन-साहित्य का बृहद् इतिहास" में भी उक्त कथन को सिद्ध किया गया है, जैसे-इस अवसर्पिणी काल में जैनों के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव हुए हैं। उन्हें वैष्णव एवं शैव मार्गी अपने-अपने ढंग से महापुरुष या अवतारी पुरुष मानते हैं। कोई उन्हें "अवधूत १ कहते हैं । वे एक दृष्टि से देखें तो आद्ययोगी ही नहीं, योगीराज हैं । ऐसा माना जाता है कि उन्हीं से योग-मार्ग का प्रवर्तन हुआ है।
__ श्रीमद्भागवत् के अनुसार ऋषभदेव बड़े भारी योगी थे। जैन पुराण तो उन्हें ही योग-मार्ग का आद्य प्रवर्तक बतलाते हैं। उन्होंने ही सर्वप्रथम राज्य का परित्याग कर वन का मार्ग अपनाया था । मोहनजोदड़ो से प्राप्त मूर्ति योग मुद्रा से ऋषभदेव की है ऐसा प्रमाणित किया गया है।
नामिपुत्र ऋषभ और ऋषभपुत्र भरत की चर्चा प्रायः सभी हिन्दू-पुराणों में आती है। मार्कण्डेय पु.अ. ५०, कूर्म.पु. अ. ४१, अग्नि पु. अ. १०, वायुपुराण अ.३३, गरुण पु. अ. १, ब्रह्माण्ड पु. अ. १४, वाराह पु. अ. ७४, लिंगपुराण अ. ४७, विष्णुपुराण २, अ-१, और स्कन्दपुराण कुमारखण्ड अ. ३७, में ऋषभदेव का वर्णन आया है। इन सभी में ऋषभ को नामि और मरुदेवी का पुत्र बतलाया है। ऋषभ से सौ पुत्र उत्पन्न हुए । उनमें से बड़े पुत्र भरत को राज्य देकर ऋषभ ने प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। इस भरत से ही इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा।
१६. जैन आगम साहित्यः मनन और मीमासा पृ. १९५ १७. तप अने योग-पृ. ३४१ १८. इसका धूत्तरूप आचारांग (श्रुत-१) के छठे अध्ययन के नाम "धुय” (स. धूत) का स्मरण कराता है।