________________
योग-प्रयोग-अयोग/६१
यथा
नाभिस्त्वजनयत पुत्रं मरूदेव्यां महाधुतिः । ऋषभं पार्थिव श्रेष्ठं सर्वक्षत्रस्य पूर्वजम् ॥ ऋषभाद् भरतो जज्ञे वीरः पुत्रशताग्रजः । सोऽभिषिच्यर्षभः पुत्र महाप्रावाज्यमास्थितः ॥ हिमांग दक्षिणं वर्ष तस्य नाम्ना विदुषुधा ।१९ उक्त श्लोक थोड़े से शब्दभेद के साथ प्रायः उल्लेखित सभी पुराणों में पाए जाते हैं। प्रायः सभी वैदिक पुराण इस विषय में एकमत हैं कि ऋषभ-पुत्र भरत के नाम से यह देश 'भारतवर्ष' कहलाया । वैदिक पुराणों का यह एकमत निस्सन्देह उल्लेखनीय है।
श्रीमद्भागवत में तो ऋषभावतार का विस्तृत वर्णन है और उन्हीं के उपदेश से जैनधर्म की उत्पत्ति भी बतलाई है। डॉ. आर. जी. भण्डारकर के मतानुसार "२५० ई. के लगभग पुराणों का पुननिर्माण होना आरम्भ हुआ और गुप्तकाल तक यह क्रम जारी रहा। इस काल में समय-समय पर नए पुराण भी रचे गये।" ऋषभदेव को प्रथम जैन तीर्थंकर होने की मान्यता ईस्वी सन् से भी पूर्व में प्रवर्तित थी। इतना ही नहीं, ऋषभदेव की मूर्ति की पूजा जैन लोग करते थे, यह बात खारवेल के शिलालेख तथा मथुरा से प्राप्त पुरातत्व से प्रमाणित हो चुकी है तथा हिन्दू-पुराणों से भी पूर्व के जैन ग्रन्थों में ऋषभदेव का चरित वर्णित है।
इसके सिवाय श्रीभागवत में ऋषभदेव का वर्णन करते हुए स्पष्ट लिखा है कि वातरशन (नग्न) श्रमणों के धर्म का उपदेश करने के लिए उनका जन्म हुआ। यथा
"वर्हिषि तस्मिन्नेव व विष्णुदत्त भगवान् परमर्षिभिः प्रसादितो नाभः प्रियचिकीर्षया तदवरोधायने मरुदेव्यां धर्मान् दर्शयितुकामो वातरशनानां श्रमणानामृषीणामूर्ध्वमन्थिणां शुक्लया तनुवावततार" ॥२०॥ स्क. ५, अ.३।
उक्त नग्न श्रमणों के धर्म से स्पष्ट ही जैन धर्म का अभिप्राय है क्योंकि आगे भागवतकार ने ऋषभदेव के उपदेश से ही आर्हत धर्म (जैन धर्म का पुराना नाम) की उत्पत्ति बतलाई है। भागवतकार का अभिप्राय भगवान् के लिए ऐसा भी है कि "जन्महीन ऋषभदेवजी का अनुकरण करना तो दूर रहा, अनुकरण करने का मनोरथः भी कोई अन्य योगी नहीं कर सकता, क्योंकि जिस योगबल (सिद्धियों) को ऋषभजी
१९. जैन-साहित्य का इतिहास पूर्व पीठिका पृ. १२० २०. भण्डार लेख संग्रह जिल्द १, पृ. ५६