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५८/योग-प्रयोग-अयोग
जरा, मृत्यु के चक्रव्यूह में साधक यंत्रवत् घूम रहा है। इस जीवन काल में सांधक हजारों परिस्थितियों में टकराता है और अवस्थाओं को बदलता है। जो बदला जाता है, वह अनित्य है। अतः जगत की समस्त परिस्थिति अनित्य हैं, असत् है। जो असत् है वह असत्य है, जो असत्य है वह मिथ्या है, इन अनित्य में ही नित्य की खोज, असत् में सत् की खोज और असत्य में ही सत्य की खोज यह योग का आविर्भाव है।
सत्य-असत्य का विवेक, ज्ञान या जड़ और चैतन्य का भेद ज्ञान उत्पाद-व्यय और ध्रुव इन त्रिपदि से होता है। यही साधना का मूल मन्त्र है। जो असत्य का त्याग करता है वह असत्य से पर होता है फलतः सत्य को स्वतः प्राप्त करता है, जिस प्रकार सूर्य का उदय और अन्धकार का नाश युगपत् होता है, उसी प्रकार असत्य का त्याग और सत्य की प्राप्ति-युगपत् होती है। सत्य की प्राप्ति अर्थात् धुवत्व की प्राप्ति, जो धुव होता है, वह नित्य होता है। त्याग अनित्य का होता है, नित्य का नहीं। असत्य अनित्य है, सत्य नित्य है, अतः असत्य का त्याग ही योग प्राप्ति का विकास क्रम है।
__ आज के युग में लोग समझते हैं कि योग कोई एक नया विधान है और ध्यान रूप में शिबीरों द्वारा उसे अपनाया जाता है। वह भूल गया अपना चिर पुरातन काल, वह भूल गया व्रत, तप नियम भारतीय साधना में इन व्रत, नियम, तप, स्वाध्याय में योग सहयोगी रहा था। हर साधना विकल्प मुक्त और अन्तर्मुखी रहने की ही होती थी। एकाग्रता ही साधना का मुख्य लक्ष्य था किन्तु मध्ययुग में इस साधना ने अन्तर्मुखी का स्थान बहिर्मुखी के रूप में और एकाग्रता का स्थान बाहरी प्रदर्शन के रूप में स्थूल क्रियाकांडों में बदल दिया । चिन्तन की सूक्ष्मता का तीव्र गति से हास होने लगा। विशुद्धि के अभाव में योग सम्बन्धी साधना की सूक्ष्मता तिरोहित होती गई।
आज के युग में योग का कोई नया प्रयोग नहीं किन्तु हमें ही खोये हुए योग की खोज करनी है। हमारे बीच में से विस्मृत हुए योग का पुनर्जागरण करना है। दुर्व्यसन और दुराचार के इस भयंकर दौर में सदाचार की पुनः प्रतिष्ठा स्थापित करनी है, हमारी भौतिक वासनाएँ और आकांक्षाओं में शांति का स्वरूप पाने के लिए योग सर्वात्मना द्वन्दमुक्त एक सात्विक साधन हैं । इस साधन से सोयी हुई वृत्तियाँ जागृत होंगी, बाहर भटकता हुआ मन अंतर्मुखी होगा और राग-द्वेषादि विकल्पों के कुहरों से आवृत चेतना निरावरण होगी।
"जे ममाइय मतिं जहाति से जहाति ममाइय" १२
- ममत्व बुद्धि का त्याग पदार्थों के ममत्व का त्याग है। ममत्व का त्याग और समत्व की साधना ही योग का विकास है।
१२. आचारांग सूत्र अ. २, उ. ६ सु. ९७