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योग-प्रयोग- अयोग / ५७
करने के लिए ध्यान की नितान्त आवश्यकता है। ध्यान समाधि की पूर्व अवस्था है, और समाधि ध्यान का अंतिम चरण है। अतः समाधि और ध्यान दोनों ही अर्थ योग रूप में सार्थक ही है।
परमानन्दी' पंचविंशतिका ग्रन्थ में योग, साम्य, स्वाथ्य, समाधि चित्तनिरोध और शुद्धोपयोग इत्यादि अर्थ में पर्याय के रूप में मिलता है ।
यहाँ साम्य अर्थ समानता के रूप में प्रयुक्त हुआ है। जैसे मेरे जैसा ही अन्य आत्मा है मैं सुखी और दुःखी रहना चाहता हूँ वैसा ही दूसरा अनुभव करना चाहता है चित्त निरोध यह शब्द का प्रयोग क्षिप्त और विक्षिप्त मन को स्थिर करना है ।
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द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका ग्रन्थ में "योगस्थ संभव:" योग का अर्थ संभव किया है । ९
बृहत्कल्प आतुरप्रत्याख्यानपयन्ना-टोका? स्थानांगसूत्र सटीक, प्रश्न व्याकरण सूत्र, विशेष आवश्यक भाष्य इत्यादि ग्रंथों में "योग" शब्द सम्बन्ध अर्थ में प्राप्त होता है ।
जिस प्रवृत्ति का सम्बन्ध क्रमशः निवृत्तियों की ओर साधक को बढ़ाता है वही प्रवृत्ति साधक के लिए "योग" अर्थ में प्रयुक्त हुई है।
भगवती आराधना में योग को वीर्य गुण का पर्याय माना गया है, उसका आशय यह है कि वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से होने वाला आत्म परिणामविशेष योग हैं। इस प्रकार "योग" शब्द विभिन्न ग्रन्थों में विभिन्न पर्यायों में परिलक्षित होता है । विकास और आविर्भाव की दृष्टि से योग
साधक का जिज्ञासु मन आत्मानुभूति को प्राप्त करने की चेष्टा करता है । वह आदिकाल से चरमसत्य को पाने का अभिलाषी है। वह चाहता है स्वानुभूति की सिद्धि, वह चाहता है परमानन्द की प्राप्ति, वह चाहता है आत्मशक्ति की उपलब्धि पर वह खोज नहीं करता कि इस योग का आविर्भाव हुआ कहाँ से ।
सर्व सामान्य ऐसा नियम है कि जिसकी उत्पत्ति होती है, उसका नाश अवश्य होता है, जिसका नाश होता है, उसका उस रूप में अस्तित्व या सत्ता विद्यमान नहीं रहती, जिसका अस्तित्व या सत्ता नहीं रहती वह असत् माना जाता है। जैसे जन्म,
८. "साम्यं स्वास्थ्यं समाधिश्च योगश्चेतोनिरोधनम् शुद्धोपयोग इत्येते भवन्त्येकार्थवाचकाः ।" - पद्मनंन्दिपंचविंशतिका ४.६४
९. योगलक्षण द्वात्रिंशिका पृ. ५९.
१०. अभिधान राजेन्द्र कोश भा. ४ पृ. १६१३ ।
११. भगवती आराधना ११७८/११८७, ४.