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योग-प्रयोग-अयोग/४९
२. क्षायोपशमिक भाव
क्षायोपशमिक भाव वह है जो क्षायोपशम से पैदा हो। क्षायोपशम एक प्रकार की आत्मिक शुद्धि है, जो कर्म के एक अंश का उदय सर्वथा रुक जाने पर और दूसरे अंश का प्रदेशोदय द्वारा क्षय होते रहने पर प्रकट होती है। यह विशुद्धि वैसी ही मिश्रित है जैसे धोने से मादक शक्ति के कुछ क्षीण हो जाने और कुछ रह जाने पर कोदों की शुद्धि होती है।
प्रश्न उपस्थित होता है कि जीव प्रदेशों के संकोच और विकोच रूप परिस्पन्दं को योग कहते हैं । यह परिस्पन्द कर्मों के उदय से उत्पन्न होता है, क्योंकि कर्मोदय से रहित सिद्धों में वह नहीं पाया जाता । अयोगिकेवली में योग के अभाव से यह कहना उचित नहीं है कि योग औयिक नहीं होता है, कयोंकि अयोगिकेवली के यदि.योग नहीं होता तो शरीर नामकर्म का उदय भी तो नहीं होता। शरीर नामकर्म के उदय से उत्पन्न होने वाला योग उस कर्मोदय के बिना नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा मानने से अतिप्रसंग दोष उत्पन्न होगा। इस प्रकार जब योग औदयिक होता है तो उसे क्षायोपशमिक क्यों कहते हैं ?
इसके उत्तर में यही कहा जाता है कि ऐसा नहीं, क्योंकि जब शरीर-नामकर्म के उदय से शरीर बनने के योग्य बहुत से पुद्गलों का संचय होता है और वीर्यान्तरायकर्म के सर्वघाती स्पर्धकों के उद्याभाव से और उन्हीं स्पर्धकों के सत्वापशम से तथा देश घाती स्पर्धयों के उदय से उत्पन्न होने के कारण क्षायोपशमिक कहलाने वाला वीर्य (बल) बढ़ता है, तब उस वीर्य को पाकर चूँकि जीव प्रदेशों का संकोच-विकोच बढ़ता है, इसलिये योग क्षायोपशमिक कहा गया है।
__यदि वीर्यान्तराय के क्षयोपशम स उत्पन्न हुए बल की वृद्धि और हानि से जीवप्रदेशों के परिस्पन्द की वृद्धि और हानि होती है, तब तो जिंसके अन्तरायकर्म क्षीण हो गया है ऐसे सिद्ध जीवों में योग की बहुलता का प्रसंग आता है। ऐसा भी नहीं होता, क्योंकि क्षायोपशमिक बल से क्षायिक बल भिन्न देखा जाता है। क्षायोपशमिक बल की वृद्धिहानि से वृद्धि-हानि को प्राप्त होने वाला जीव प्रदेशों का परिस्पन्द क्षायिक बल से वृद्धिहानि को प्राप्त नहीं होता, क्योंकि ऐसा मानने से तो अति प्रसंग दोष आता है।
५५. धवला- ७/२, १, ३३/७५/३