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५०/योग-प्रयोग-अयोग
३. पारिणामिक भाव
पारिणामिक भाव द्रव्य का वह परिणाम है, जो सिर्फ द्रव्य के अस्तित्व से आप ही आप हुआ करता है अर्थात् किसी भी द्रव्य का स्वाभाविक स्वरूप परिणमन ही पारिणामिक भाव कहलाता है।
"योग" यह अनादि पारिणामिक भाव है। इसका कारण यह है, कि योग न तो औपशमिक भाव है, क्योंकि मोहनीयकर्म का उपशम नहीं होने पर भी योग पाया जाता है। न वह क्षायिक भाव है, क्योंकि आत्मस्वरूप से रहित योग की कर्मों के क्षय से उत्पत्ति मानने में विरोध आता है। योग घातिकर्मोदयजनित भी नहीं है क्योंकि घातिकर्मोदय के नष्ट होने पर भी सयोगी केवली में योग का सद्भाव पाया जाता है। न योग अघातिकर्मोदयजनित भाव है, क्योंकि, अघातिकर्मोदय के रहने पर भी अयोगकेवली में योग का सद्भाव पाया जाता है। न योग अघातिकर्मोदयजनित भाव है, क्योंकि, अघातिकर्मोदय के रहने पर भी अयोग केवली में योग नहीं पाया जाता । योग शरीर नामकर्मोदयजनितं भी नहीं है । क्योंकि पुद्गलविपाकी प्रकृतियों के जीव-परिस्पन्दन का कारण होने में विरोध है।