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५४/ योग-प्रयोग-अयोग
परिस्थिति सदा परिवर्तनशील है अतः कोई भी परिस्थिति जीवन कैसे बन सकती है। वही व्यक्ति परिस्थितियों का दास है जो अपने को साधक स्वीकार नहीं करता। जब व्यक्ति साधक बनता है, परिस्थितियों का सदुपयोग करने में समर्थ होता है तब परिस्थिति में जैसे ही परिवर्तन आता है रागात्मक और द्वेषात्मक भाव में प्रियता और अप्रियता के संवेदन में परिवर्तन हो जाता है। क्योंकि प्रत्येक मानव साधक है और साधक की प्रत्येक प्रवृत्ति साधन रूप सामग्री है। अतः समस्त साधन दो विभागों में विभाजित होते हैं- १. निषेधात्मक, २. विधेयात्मक ।
१. निषेधात्मक-पदार्थों के प्रति ममत्व का त्याग निषेधात्मक साधन है। २. विधेयात्मक-अनासक्त होकर पदार्थों का उपयोग विधेयात्मक साधन है।
साधकों की योग्यता, रुचि तथा परिस्थिति के अनुरूप ही ‘साधन’ फलित होता है। जो साधन साधक को साध्य बनने में सहायक नहीं होता वह साधन उपयुक्त साधन नहीं, भोग साधन हैं । जिससे सिद्धि नहीं हो सकती है। अंतः विधेयात्मक साधन को सजीव बनाने के लिए निषेधात्मक साधन को अपनाना अनिवार्य है। ममत्व का त्याग यह अपने आप में एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। पदार्थों का न मिलना त्याग नहीं है, पदार्थों का अभाव इतना महत्व नहीं रखता है, किन्तु पदार्थ है और उसका त्याग महत्व रखता है, ऐसा त्याग साधना के बिना असंभव है।
व्यक्ति एक को प्रिय मानता है और दूसरे को अप्रिय इसलिए राग द्वेष होता है। जब तक मन में प्रिय और. अप्रिय का भाव बना रहेगा तब तक कषाय समाप्त नहीं होगा। राग द्वेष को समाप्त करने के लिए यहाँ जो योग के अर्थ में संयोग शब्द का प्रयोग किया है वह उचित है। संयोग पदार्थ के प्रति राग का भाव नहीं लाता किन्तु पदार्थ के प्रति पदार्थ का.भाव लाता है, पदार्थ के प्रति यथार्थता का अनुभव कराता है, पदार्थ में सत्य के दर्शन कराता है। पदार्थ अपने आप में न तो प्रिय है और न अप्रिय ; 'जो भी है वह संयोग है।
हम जानते हैं कि भोग प्रवृत्ति में सुख और परिणाम में दुख है। यह जाने हुए का प्रभाव जीवन पर क्यों नहीं होता? सुख का अनुभव करने पर दुखद परिणाम अनुभूति का ध्यान क्यों नहीं होता? अगर इसका जवाब चाहिए तो मिलेगा संयोग, संयोग को हमने जाना नहीं, माना है। जानना अलग है और मानना अलग है। जो संयोग को जानता है वह योग के द्वितीय अर्थ समाधि को सहज रूप से छू लेता है जो मानता है वह संयोग से हाथ धो बैठता है।
इस प्रकार दो अर्थों में प्रयुक्त इस योग शब्द के मंतव्य एवं विधान में एक ही होने पर भी विभिन्न दो स्वरूप हो जाते हैं। साधक का अंतिम लक्ष्य समाधि है और समाधि का प्रारम्भिक प्रयास संयोग है। अतः योग संयोग अर्थ में साधन रूप सिद्ध होकर