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योग-प्रयोग-अयोग/४३
अनुमोदित३२ प्रकाशावरण.३३ सोपक्रम, निरूपक्रम३४ वजसंहनन३५ केवली३६ कुशल ज्ञानावरणीयकर्म३८, सम्यग्ज्ञान३९, सम्यग्दर्शन ४०. सर्वज्ञ ४१ क्षीणकलेश ४२ चरमदेह४३. आदि।
२. प्रसुप्त, तनु आदिक्लेशावस्था ४४, पाँच यम४५ योगजन्य४६ विभूति सोपक्रम निरूपमक्रम कर्म का स्वरूप, तथा उसके दृष्टान्त, अनेक कार्यों ४८ का निर्माण आदि।
३. परिणामि-नित्यता अर्थात् उत्पाद्, व्यय, धौव्य रूप से त्रिरूप वस्तु मानकर तदनुसार धर्म का विवेचन-योगसूत्र सांख्यसिद्धान्तानुसारी होने से 'ऋते चितिशक्तेः परिणामिनो भावाः" यह सिद्धान्त मानकर परिणामवाद का । उपयोग सिर्फ जड़भाग में अर्थात् प्रकृति में करता है, चेतन में नहीं और जैनदर्शन तो "सर्व भावाः परिणामिनः" ऐसा सिद्धान्त मानकर परिणामवाद अर्थात् उत्पादव्ययरूप पर्याय का उपयोग जड़-चेतन दोनों में करता है। ___योग दर्शन में महर्षि पतंजली ने पाद १ सूत्र १ में चित्तवृत्ति का निरोध योग कहा है। इसी सूत्र की समीक्षा विषय पर उपाध्यायजी ने इस प्रकार की अपनी कलम चलाई है। पतंजलि के कथनानुसार चित्तवृत्तिनिरोध इस लक्षण में जो "सर्व" शब्द का ग्रहण उन्होंने इसलिए नहीं किया है कि यह लक्षण उभययोग साधारण है। सम्प्रज्ञात योग में कुछ वृत्तियाँ होती भी हैं। पर असम्प्रज्ञात में सब रुक जाती है । अगर "संर्वचित्तवृत्तिनिरोध' ऐसा लक्षण किया जाता तो असम्प्रज्ञात ही योग कहलाता
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तत्वार्य आदि अन्य ग्रन्थ ३२. ६-९ ३३. ६-११ ३४. २-५२ ३५. (अ. ८-१२) भाष्य ३६. ६-१४ ३७. दश. नियुक्ति : १८६ ३८. आवश्यक-८९३ ३९. अ-१-१ ४०. १-२ ४१. ३-४९ ४२. ९-३८ ४३. २-५२ ४४. दश. अ. ४. ४५. आवश्यकनिर्यक्ति (गा. ६९, ७०) . ४६. आवश्यक निर्यक्ति (गाथा ९५६) ४७. विशेषावश्यक भाष्य (३०६१) ४८. २५२ भाष्य
योग सूत्र २-३१ २-५२ तथा ३-४३ ३-२२ (३-४६) २-२७ भाष्य २-२७ भाष्य
१८६ २-५१ भाष्य ८९३ २-२८ भाष्य ४-१५ भाष्य ३-४९ भाष्य १-४ भाष्य २-४ भाष्य २-३१ -२-३१ ३-२२ ३-२२ भाष्य ४-४