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४२/ योग-प्रयोग-अयोग
दूसरा वर्गीकरण इच्छायोग, शास्त्रयोग और सामर्थ्ययोग इस प्रकार तीन भाग में है। तीसरे वर्गीकरण में योगियों को चार भाग में बाँटा गया है-१. गौत्रयोगी, २ कुलयोगी, ३. प्रवृत्तचक्रयोगी तथा ४. सिद्धयोगी। इनमें से बीच के दो को योग का अधिकारी माना है। पहले में योग्यता का अभाव होने से वह अनधिकारी है और सिद्धयोगी को तो योग की आवश्यकता ही न होने से वह अनधिकारी है।
[श्लोक २०८-१२ ] योगशतक
__योगशतक योगबिन्दु के साथ सबसे अधिक साम्य रखता है। योगबिन्द की बहुत-सी योगवस्तु योगशतक में संक्षेप में आ जाती है।
इसमें प्रारम्भ में निश्चय एवं व्यवहार का स्वरूप दिखलाया है। सम्यगज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यकचारित्र इन तीनों का आत्मा के साथ का सम्बन्ध निश्चययोग है (गाथा २), जबकि इन तीनों के कारणों को व्यवहार योग कहते हैं । (गाथा ४) योगविंशिका
इस ग्रन्थ में योग वस्तु का बहुत ही संक्षेप में निरूपण किया गया है। इसमें आध्यात्मिक विकास की प्रारम्भिक अवस्था का वर्णन नहीं है, पर बाद की विकसित अवस्थाओं का ही निरूपण है। योग के मुख्य अधिकारी रूप से चारित्री का निर्देश करके उसके आवश्यक धर्मव्यापार को योग कहा है और योग से भी प्रस्तुत में स्थान, ऊर्ण, अर्थ, आलंबन और अनालंबन जैसे पाँच योग भेद अथवा भूमिकाएँ अभिप्रेत है। (गाथा २) इनमें से आलंबन एवं अनालंबन इन दो का ही अर्थ मूल (गाथा १९) में है।
योगशास्त्र और जैनदर्शन का साम्य योगशास्त्र और जैन-दर्शन का सादृश्य मुख्यतया तीन प्रकार का है। १ शब्द का २ विषय का और ३ प्रक्रिया का।
१. मूल योगसूत्र में ही नहीं किन्तु उसके भाष्य तक में ऐसे अनेक शब्द हैं जो जैनेतर दर्शनों में प्रसिद्ध नहीं हैं, या बहुत कम प्रसिद्ध हैं, किन्तु जैन शास्त्र में खास प्रसिद्ध हैं। जैसे-भवप्रत्यय२९सवितर्क सविचार, निर्विचार ३० महाव्रतकृत कारित,
योग सूत्र
तत्वार्थ आदि अन्य ग्रन्थ
२९. १-२२ ३०. ९-४३.४४ ३१. ७-२ भाष्य
१-१९ १-४२,४४ २-३१