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४६ / योग- प्रयोग- अयोग
आदि विकल्प अशास्त्रीय है वह सब विपर्ययरूप है और "चैतन्य यह पुरुष का स्वरूप है । "इत्यादि जो विकल्प शास्त्र सिद्ध है वह सब नयरूप होने से प्रमाण के एक देश रूप है।
निद्रावृत्ति एकान्त अभाव विषयक नहीं होती। उसमें हाथी, घोड़े आदि अनेक भावों का भी कभी-कभी भास होता है, अर्थात् स्वप्न अवस्था भी एक तरह की निद्रा ही है। इसी तरह वह सच भी होती है। यह देखा गया है कि अनेक बार जागृत अवस्था में जैसा अनुभव हुआ हो निद्रा में भी वैसा ही भास होता है, और कभी-कभी निद्रा में जो अनुभव हुआ हो वही जागने के बाद अक्षरशः सत्य सिद्ध होता है । ५२
'स्मृतिज्ञान, श्रुतज्ञान अनुमान और प्रत्यभिज्ञा द्वारा अनुभूत पदार्थों के ज्ञान द्वारा जिस आत्मा को सहकारि, चित्तवृत्ति होती है वह स्मृतिज्ञान कहलाता है । यह स्मृतिज्ञान भी यथार्थ और अयथार्थ उभय प्रकार का होता है। अतः विकल्प निद्रा और स्मृति का प्रमाण में तथा विपर्यय में अन्तर्भाव होता है। ये वृत्तियाँ सम्प्रग्ज्ञानियों को अक्लिष्ट रूप में होती है।
सोलहवें सूत्र में सूत्रकार ने योग के उपायभूत वैराग्य के ऊपर और पर ऐसे भेद किये हैं, उस पर उपाध्यायजी ने अपनी कलम चलाई है। पहला वैराग्य "आपात धर्म संन्यास" नामक है, जो विषयगत दोषों की भावना से परिलक्षित होता है ।
दूसरा वैराग्य “तात्त्विक धर्म संन्यास" नामक है, जो स्वरूप चिन्ता से होने वाली विषयों की उदासीनता से उत्पन्न होता है। जिसका संभव प्रभत्त गुणस्थान से संवर्धन होता हुआ अप्रमत्त गुणस्थान, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्म संपराय आदि गुणस्थानों में प्राप्त होता है। सम्यक् चारित्र रूप धर्म क्षायोपशमिक अवस्था- - अपूर्णता को छोड़कर क्षायिक भाव पूर्णता को प्राप्त करते हैं । यहाँ पर जीवात्मा को वैराग्य की प्राप्ति होती है I
वैराग्य की प्राप्ति होने पर आत्मज्ञानी योगी अपूर्व वीर्य द्वारा सप्रज्ञात समाधि को प्राप्त करता है ।
संप्रज्ञात और असप्रज्ञात समाधि का स्वरूप
शास्त्रवार्ता समुच्चय की स्वावादकल्पलता के टीकाकार का कहना है कि जैन दर्शन के शुक्लध्यान को ही महर्षि पतजली ने संप्रज्ञात समाधि नाम से अभिहित किया है तथा सम्प्रज्ञात समाधि के चार भेद बताये हैं-सवितर्क निर्वितर्क सविचार और निर्विचार |
५२. उपाध्याय यशोविजय जी कृत व्याख्योपेत पातञ्जल योग दर्शन पृ.४