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४०/योग़-प्रयोग-अयोग
२. सम्यग्दृष्टि चरित्रबल के प्रति अनुराग, दर्शन मोह के उपशम या क्षय से मोक्षाभि
मुख, भावयोग और अनुष्ठान में अन्तर्विवेक। ३. देशविरति : संक्लेश का हास, श्रद्धा, पुरुषार्थ, यथायोग्य प्रयत्न, अध्यात्म
भावना, ध्यान समत्व, वृतिसंक्षयं का परमार्थ देश विरति में प्रारम्भ
होता है। जिसे योगबीज भी कहते हैं। ४. सर्वविरति : देश विरति का व्यापक रूप जैसे-मैत्री आदि का चिन्तन करना
अध्यात्मयोग है। इससे पापक्षय, वीर्योत्कर्ष और चित्त समाधि अध्यात्मका पुनः अभ्यास भावना योग है । भावना द्वारा चित्तगल उपयोग से एक विषय पर एकाग्र होना ध्यान योग है। इष्ट-अनिष्ट पदार्थों के प्रति तटस्थता समत्व योग है, और वृत्तियों का जड़ मूल से नाश तथा मोक्ष की प्राप्ति-वृत्ति संक्षय योग है।
योगाधिकारी के भेदं
कोष्टक नं. २ योग के अधिकारी
भूषण
अपुर्नबन्धक सम्यक्त्वि देशत : चारित्री सर्वत : चारित्री आसन्नभवि
लक्षण अहिंसा,सत्य,अचौर्य, पाँच महाव्रत चरमपुद्गलपरावर्ति
ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, पाँच समिति, भवामिनन्दि दोष शम,संवेग,निर्वेद आदि पाँच अणुव्रत तीनगुप्ति, रहित उत्कृष्ट सात अनुकम्पा आस्तिक्य . चार शिक्षाव्रत १० धर्म, कर्मों की स्थितिके
तीन गुणवत, बावन अनाचीर्ण,
सप्तदुर्व्यसन बारह भावना अपुर्नबन्धक।
जैन शासन में स्थिरता, त्याग मार्गानुसारी इत्यादि । प्रभावना,भक्ति,कौशल आदि गुण ।
और सेवा । दोष-निवारण शंका,कांक्षा विचिकित्सा मिथ्यादृष्टि-प्रशंसा. मिथ्यादृष्टि-संस्तव।