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योग-प्रयोग-अयोग/३९
नियुक्ति में भी उपर्युक्त अंगों का विश्लेषण स्थान-स्थान पर पाया जाता है ।२१ .
तत्वार्थ सूत्र और ध्यान शतकर में भी ध्यान सम्बन्धी वर्णन प्राप्त होता है किन्तु आगम और नियुक्ति की अपेक्षा विशेष जानकारी नहीं मिलती है।
आत्मिक विकास क्रम के रूप में चौदह गुणस्थान, चार ध्यान, बहिरात्म आदि तीन अवस्थाएँ इत्यादि साहित्य में भी शुभ योग प्रवृत्ति का विशेष उल्लेख प्राप्त होता
शुभयोग का क्रमिक विकास योग साहित्य में कायाकल्प के रूप में हरिभद्रसूरिकृत योगबिन्दु, योगदृष्टि समुच्चय, योगशतक, योगविंशिका, षोडशक आदि ग्रन्थों में प्राप्त होता है। इन ग्रन्थों में योग सूत्र में वर्णित योग प्रक्रियाओं के पारिभाषिक शब्दों का मिलान भी किया गया है। इन ग्रन्थों में दो ग्रंथ संस्कृत में और दो ग्रन्थ प्राकृत में हैं। योगबिन्दु
योग-बिन्दु में आचार्यश्री ने योग की उत्पत्ति का विशेष विवेचन किया है। इस विवेचन में पुद्गलावर्त शब्द का जो प्रयोग है वह अपने आप में महत्वपूर्ण है। पुद्गल अर्थात् रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि मूर्तद्रव्य और आवर्त मनोज्ञ अमनोज्ञ संयोग । जीव अनादि-अनन्त काल से शरीर, वचन और मन द्वारा ऐसे पुद्गलों का ग्रहण और विसर्जन करता रहता है। संसार प्रवाह की आदि कर ज्ञान हो या न हो किन्तु अन्त तो पुरुषार्थ द्वारा अवश्य किया जाता है किन्तु साध्य की सिद्धि का उपाय असाध्य तो नहीं पर दुष्कर अवश्य है। साध्य की सिद्धि का उपाय आचार्य श्री ने योग बिन्दु में शुभ योग द्वारा साध्य किया है। जैसे-गुरु, देव आदि की १- भक्ति, २. सदाचार, ३. तप, ४. मुक्ति के प्रति अद्वेष । इन चारों मार्ग से प्रवेश पाने के पश्चात् साधक योगमार्ग का अधिकारी होता है जैसे
१. अपुनर्बन्धक, २. सम्यग्दृष्टि, ३. देश विरति और ४. सर्वविरति । १. अपुनर्बन्धक दर्शन मोह का अंश होने पर भी क्रमशः योगवृद्धि साधकर ग्रंथि भेद
तक की साधना
२१. आवश्यक नियुक्ति गा. १४६२-८६ २२. तत्त्वार्थ-अ. ९/२७ २३. हारिभदिय आवश्यक वृत्ति पृ. ५८१ २४. योगबिन्दु-श्लो. ४१८-२०