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योग-प्रयोग-अयोग/३७
सम्यकज्ञान, दर्शन और चारित्र के साधन रूप को, जैसे गुरुविनय, शास्त्रश्रवण, यथाशक्य व्रत-नियम इत्यादि धर्म अनुष्ठान को, व्यवहारयोग कहते हैं ।१०
___ ध्यानशतक आवश्यक हरिभद्रीयटीका में ज्ञानादि भावना के प्रयोग को भी योग कहा है। ज्ञान भावना से अज्ञान दूर होता है क्योंकि ज्ञान स्वयं प्रकाश है, तप शोधक है और संयम गुप्ति रूप है ; इन तीनों के समन्वय को भी आचार्य श्री भद्रबाहु ने नियुक्ति में योग कहा है ।१२
वार्तिककारों ने वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से प्राप्त वीर्य लब्धि को भी योग कहा है। ऐसे सामर्थ्य वाले आत्मा का मन, वचन, काया के निमित्त से आत्मप्रदेशों के परिस्पन्दन को भी योग कहते हैं ।१३इन मनोवर्गणादि के निमित्त से आत्मप्रदेशों में कभी हलन-चलन होता है तो कभी संकोच विकोच एवं परिभ्रमण रूप परिस्पन्दन होता है, इत्यादि समस्त प्रक्रिया योग कही जाती है ।१५०
जैनागम चैतन्य की अभिव्यक्ति का अनुभव उसका आनन्द और विज्ञान की प्रवृत्ति के सिवाय दूसरे कार्यों में प्रवृत्ति करने की संमति ही नहीं देता, यदि अनिवार्य रूप से प्रवृत्ति करनी आवश्यक हो तो वह है निवृत्तिमय प्रवृत्ति और वही उसे मान्य है।
विज्ञान भोगजन्य शक्तियों का मापदंड निकाल सकता है, मानव को सुख-सुविधाओं का साधन दे सकता है, किन्तु उन साधनों से उपार्जित मानसिक तनाव, वासनात्मक शारीरिक अभिशाप या विनाश नहीं रोक सकता। लाखों वैज्ञानिक मिलकर भी एक रक्त की बूंद नहीं बना सकते हैं; और न कार्बोनिक रसायनों का रहस्य पाकर उनके जैसे रसायन उत्पन्न कर सकते हैं।
एडिंग्टन जैसे अग्रणी वैज्ञानिक कहते हैं कि इस भौतिक जगत् का चेतना के साथ यदि अनुसंधान नहीं है तब तो. जीव और पुद्गल कल्पना मात्र ही रहेगा।
अनिन्द्रिय विषय का संवेदन हमारे अनुभव में आवे या न आवे पर समग्र सत्य विज्ञान का उद्भव उसी में से होता है ।१६ऐसा अवश्य मान्य है। स्वयं विज्ञान ही तत्वज्ञानियों द्वारा निरूपित सत्यों को उद्घोषित करते हैं । अध्यात्मयोगियों के प्रति
१०. योगशतक श्लो. २२ की टीका प्र. १२ ११. ध्यानशतक गा. ३६, आवश्यक हारिभद्रीय टीका प्र. ५९२ १२. आवश्यक नियुक्ति (भद्रबाहुकृत) गा. १०३, पृ. ४३४ १३. राजवार्तिक ९/१७/११/६०३/३३ १४. सर्वार्थसिद्धि-२/२६/१८३/१ १५. धवला १०/४, २, ४, १७५/४३७/७ 9&. Dr. Albert Einstein ibid, p. 117