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३. साहित्यिक योग में अनुशीलन के प्रयोग
जैनागमों में योग की प्रक्रिया का विस्तृत वर्णन करने के पश्चात् उसी आधार से इतर जैन साहित्य में भी जैन योग की प्रक्रिया का प्रयोग प्रस्तुत किया जा रहा है
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आचार्यों ने योग विषयक सभी ग्रंथों में उन सब प्रयोगात्मक पद्धति को योग कहा हैं, जिनसे आत्मा की विशुद्धि होती है, कर्म-मलका नाश होता है और आत्मा का मोक्ष के साथ संयोग होता है।' मोक्ष का समायोजन दर्शन, ज्ञान और चारित्र की त्रिपुटी पर समाधृत है । साधना के विकास यान पर आरूढ़ आत्मा के लिए इन तीनों सात्विक प्रयोगों को अनिवार्यतः अंगीकार्य माना गया है। अतः सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र के एक आत्मा में संमिलन संयोग या सम्बन्ध को निश्चय-नय से योग कहा जाता है । २
सम्यग्दर्शन
निश्चय योग में मुख्यतः धारणा, ध्यान और समाधि का समावेश होता है। यहाँ सम्यग्दर्शन धारणा को सिद्ध करता है । उमास्वाति के शब्दों में "तत्वरूप" पदार्थों की श्रद्धा अर्थात् दृढ़ प्रतीति सम्यग्दर्शन है । ३
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श्री हेमचन्द्राचार्य के शब्दों में- श्री जिनेश्वर - कथित जीवादि तत्वों में रुचि होना सम्यक्-श्रद्धा (दर्शन) है ।
सम्यग्दर्शन का सामान्यतः अर्थ सत्य का साक्षात्कार करना है। सत्य का पूर्ण साक्षात्कार चक्षु इन्द्रिय के द्वारा सम्भव न होने से सत्यभूत जो नव तत्व बतलाए गए हैं उनके सद्भाव में विश्वास करना सम्यग्दर्शन है । इन तथ्यों में श्रद्धा करने पर चेतन-अचेतन का भेदज्ञान, संसार के विषयों से विरक्ति, मोक्ष के प्रति झुकाव, परलोकादि के सद्भाव में विश्वास और चेतनमात्र के प्रति द्रयादिभाव उत्पन्न होते हैं ।
१. योगविंशिका गा. १
२. योगशतक श्लो. २ की टीका
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तत्त्वार्थ सूत्र १/२ उत्तराध्ययन२८/१५