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योग-प्रयोग- अयोग / ७
उसका ह्रास करती है। अहिंसा व्यक्तित्व को विकसित करती है, ऊर्जा को ऊर्ध्वगामी बनाने के लिए मार्ग प्रशस्त करती है तथा परित संसारी होने का प्रयास करती है । फलतः स्व और पर के सुखात्मक जीवन का हेतु बनती है। इसी अहिंसा से सिकुड़ी हुई चेतना पुनः व्यापक बनती है और विशुद्धतम होती जाती है। इस प्रकार मन, वचन और काय रूप क्रियायोग का प्रभाव मानव पर पड़ता है और मानव का प्रभाव क्रियायोग पर पड़ता है ।
हिंसात्मक क्रिया निषेधात्मक होने पर भी अपने आप में सबल होने से व्यापक रूप में फैली हुई है। अहिंसात्मक क्रिया विध्यात्मक होने पर भी ममत्व के कारण विनष्ट होती जा रही है। इस प्रकार क्रिया से कर्म, कर्म से संसार और संसार को भोगने वाली आत्मा । आत्मा अक्रिय है तो कर्मबन्ध नहीं है, कर्मबन्ध नहीं है तो संसार नहीं है, इस प्रकार योग प्रयोग से अयोग तक की सम्पूर्ण प्रक्रिया केवल आचारांग के प्रथम अध्याय में निहित है। इस प्रकार साधक के लिए जड़ और चैतन्य का अभेद योग भेदविज्ञान के प्रयोग से अयोग तक की सम्पूर्ण प्रक्रिया का शोधन करने में समर्थ है। शाब्दिक अर्थ में योग का प्रयोग
योग का प्रयोग शाब्दिक अर्थ में देखा जाय तो संयम, समाधि, ध्यान आदि विशेष रूप में प्रयुक्त हुआ है जैसे -
सूत्रकृतांग सूत्र में "जोगवं" " शब्द संयम अर्थ में
कृतांग टीका में "जोगवं" शब्द समाधि अर्थ में
सूत्रकृतांग सूत्र में "झाण जोंग ९ समाहट्टु" ध्यान अर्थ में
स्थानांग सूत्र में ’जोगवाही" शब्द समाधिस्थ अनासक्त योगी के अर्थ में तथा उत्तराध्ययन सूत्र में "समाहि" पडिसंधए" शब्द समाधिस्थ अर्थ में
उत्तराध्ययन सूत्र में "जोए वह माणस्स" शब्द संयम अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। भगवती सूत्र में ध्यान शब्द का अर्थ - अपने योगों (मन, वचन, काय) को किसी एक शुभ आलंबन में केन्द्रित करना कहा है। एक आलम्बन में केन्द्रित होने का अभिप्राय यह है कि साधक ध्यान में कम से कम एक समय और अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त तक स्थिर रह सकता है
८. सूत्रकृतांग- १/२, उ. १/११
९. सूत्रकृतांग- १/८/२६
१०. उत्तराध्ययन सूत्र - २७/२
११. जहन्नेणं एकं समय उक्कोसेण अन्तोमुहुत्तं । भ. सू. श. २५, उ ७, पृ. २५४