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१२/ योग-प्रयोग-अयोग
सत्त्वादि गुणों से चित्त की तरतमता में परिवर्तन होता रहता है। जैन दर्शन के अनुसार चित्त की अवस्थाएँ अनेक है। किन्तु भाष्यकार ने उसे पाँच विभागों में विभक्त किया
मूढ :
चित्त की अवस्थाएँ
१. क्षिप्त २. मूढ़ ३. विक्षिप्त ४. एकाग्र और ५. निरुद्ध१९ क्षिप्त : १. इस अवस्था में रजोगुण की प्रधानता
२. चित्त की चंचलता और ३. विषय भोग की तीव्रता विशेष होती है। १. इस अवस्था में तमोगुण की प्रधानता २. विवेक बुद्धि की अल्पता और
३. हेय, ज्ञेय, उपादेय आदि ज्ञान का अभाव । विक्षिप्त : १. इस अवस्था में सत्त्वगुण की प्रधानता और रजोगुण की गौणता
२. मन की स्थिरता, मन की चंचलता और मन की मिश्र अवस्था और
३. बहिर्मुखता, अंतर्मुखता की न्यूनाधिकता। . चित्त की ये तीनों अवस्थाएं जैन दर्शन में अशुभ योग के रूप में परिलक्षित होती हैं । जैसे आश्रव योग से संवर रूप समाधि उपादेय नहीं है वैसे ही ये तीनों अवस्थाएँ योग के लिए अनुपयोगी होने से उपादेय नहीं हैं।
चित्त की और भी दो अवस्थाएँ हैं१. एकाग्र और २. निरुद्ध ।
भाष्यकार ने इन दो अवस्थाओं को ही समाधि रूप में स्वीकार किया है। जिस समय चित्त बाह्य वृत्तिओं से परे होकर किसी एक विषय में स्थिर होता है उस अवस्था विशेष को एकाग्र कहा जाता है। इस अवस्था में भी अचेतन मन में कुछ सात्त्विक वृत्तियाँ स्फुरायमान होती रहती हैं । वे सभी आंतरिक वृत्तियाँ और तज्जन्य संस्कार जिस अवस्था में लय हो जाते हैं उस अवस्था विशेष को चित्त की निरुद्धावस्था मानी जाती है। अतः यहाँ स्पष्ट है कि एकाग्र अवस्था में बाह्य वृत्तियों का निरोध होता है और निरुद्धावस्था में आंतरिक वृत्तियों का निरोध होता है।
१८. अणेगचित्ते खलु अयं पुरिसे-आचा./अ. ३/उ-२/सू. ११८ १९, भोजवृत्ति ११२ योगभाष्य