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योग-प्रयोग-अयोग/१३
उपर्युक्त पाँचों अवस्थाओं में प्रथम दो अवस्था अशुभ योग होने से समाधि के लिए सर्वथा हेय है। तीसरी अवस्था को योग की प्रारम्भावस्था कहा जा सकता है और अन्त की दो अवस्था सर्वथा उपादेय हैं । इस प्रकार
कोष्ठक नं. १ योग दर्शन जैन दर्शन अवस्था प्राधान्य असमाधि १. क्षिप्त मन-वचन-काय-आश्रव बहिर्मुखता. भौतिक विषयों का योग
प्राधान्य असमाधि २. मूढ़ ३. विक्षिप्त मन-वचन-काय-शुभा- अंतर्मुखता का चित्तगत क्लेशों का शुभयोग
प्रारम्भ अभाव-समाधि का
प्रारम्भ ४. एकाग्र मन-वचन-कायगुप्ति- अंतर्मुखी निरोधाभिमुख-समाधि शुद्धयोग
की प्राप्ति ५. निरुद्ध मन-वचन-काय सर्वथा सर्वथा अंतर्मुखी सर्वथा निरोध-समाधि गुप्ति अयोग
का फल मोक्ष सत्य के उत्कर्ष से चित्त की एकाग्रता का जो परिणाम पाया जाता है उससे स्वात्मा की अनुभूति, परमार्थभूत ध्येय वस्तु का साक्षात्कार, क्लेशों का नाश, कर्मबन्धनों का अभाव और निरोध की. ओर अभिमुखता प्राप्त होती है। इसे ही योगदर्शन में संप्रज्ञात-योग कहते हैं । इस योग में मन की स्थिरता बनाये रखने के लिए आलंबन की आवश्यकता रहती है अतः संप्रज्ञात समाधि को सालंबन समाधि भी कहते हैं । जैन दर्शन में ये सालंबन समाधि "मणसमितियोगेण शब्द से स्पष्ट होती है। आगम में मनः समिति सं-सम्यक इति-प्रवृत्ति अर्थात् मन की सत्प्रवृत्ति से शुभयोग रूप एकाग्रता और अनुप्रेक्षा होती रहती है। अतः समिति योग से भावित साधक अन्तरात्मा की कोटि का होता है। संप्रज्ञात असंप्रज्ञात समिति-गुप्तियोग
चित्त की सम्पूर्ण वृत्तिओं का सर्वथा निरोध असंप्रज्ञात-योग है। इस योग में साधक, साधन और साध्य तीनों अभिन्न हो जाते हैं । यहाँ आलंबन की आवश्यकता नहीं होती। अतः असंप्रज्ञात समाधि को निरालंबन समाधि कहते हैं। जैन दर्शन में इस निरालंबन समाधि को मनोगुप्ति के रूप में ग्रहण किया गया है।
२२. प्रश्न व्याकरण । मंटरपुर :