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योग-प्रयोग-अयोग/१५
ध्यान और समाधि द्वारा सम्पूर्ण कर्मों का२४और सम्पूर्ण पाप का विनाश किया जाता है तथा योगावस्था से अयोगावस्था रूप सिद्धत्व की प्राप्ति हो जाती है। ___ यहाँ योगदर्शन के अनुसार एक और विशेष बात प्राप्त होती है-जैसे सत्प्रवृत्ति, एकाग्रता और निरोध । इन तीनों लक्षणों में प्रथम सत्प्रवृत्ति जो है उससे सर्वप्रथम यम नियमादि शुभ योग में प्रवृत्त होना नितान्त आवश्यक हो जाता है। किन्तु एकाग्रता का विषय विशेषता लेकर उठता है। संप्रज्ञात योग में कुछ वृत्तियों का निरोध हो जाता है परन्तु सर्वथा निरोध के लिए प्रश्न विराम उत्तर की अपेक्षा रखता है। सर्व वृत्ति निरोध रूप असंघ्रज्ञात योग ही सर्वथा मान्य माना जाता है। जो जैनागमों में मनः समिति और मनोगुप्ति के स्वरूप ग्रहण किया जाता है। सत्प्रवृत्ति अर्थात् मन से जो भी प्रवृत्ति होती है। यहाँ मात्र सत्प्रवृत्ति को ही समिति-योग कहते हैं। गुप्ति-गोपन करना मन से जो भी विकल्प पैदा होते हैं उसे गोपना अर्थात् मन के विचारों का त्याग और एकाग्रता में स्थिरता होने से विकल्पों का निरोध होना ही गुप्तियोग है। गुप्तियोग से वृत्तिओं का सर्वथा निरोध रूप असंप्रज्ञात योग घटित होता है। यहाँ समाधि का आरम्भ समाधि की प्राप्ति और समाधि के फलस्वरूप मोक्ष की उपलब्धि होती है । इस प्रकार पातञ्जलयोग का "चित्त वृति निरोध' रूप सूत्र समिति गुप्ति रूप आगम सम्मत संवर योग में ही समाहित हो जाता है जो स्थानांग सूत्र में चरित्तधम्मे रूप आचरणीय धार्मिक अनुष्ठान विशेष में चरितार्थ होता है। अतः जैनागमों के अनुसार मन, वचन और काय के व्यापार को योग कहा है जो आसव का एक अंश है यही कर्म बंधन का कारणभूत है। इन बन्धनों से मुक्त होने के लिए आस्रव निरोध रूप संवर में शुभ योग का प्रयोग सम्पूर्ण रूप से घटित हो जाता है।
२४. स्था. ३-४