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२८ / योग- प्रयोग- अयोग
शरीर तनावमुक्त होगा। मन खाली होते ही उसी आसन में मन को टिकाए रखें और दीर्घ श्वास लेते रहें, क्योंकि मन की गति आसन से सम्बन्धित होगी तो श्वास का प्रवाह भी तदनुरूप होता रहेगा ।
आसन करने से शारीरिक कष्ट जो होता है, उसे जैन दर्शन में काया-क्लेश कहते हैं । काया-क्लेश निर्जरा का हेतु है, इस हेतु द्वारा धैर्य और सहिष्णुता का विकास होता है, यही अध्यात्मिक लाभ है ।
आसन द्वारा रक्त संचार सुयोग्य होता है, शारीरिक वेदना शांत होती है और मानसिक तनाव दूर होता है। आहार, निद्रा और थकान अल्प मात्रा में होते हैं। शरीर हल्का, मन प्रसन्न और इन्द्रिय-जय पर्याप्त मात्रा में होता है।
इन्द्रिय-जय
शारीरिक व्यग्रता अनेक निमित्तों से होती है। उसमें इन्द्रिय भी निमित्त है। जब प्रवृत्ति बाह्य जगत से सम्बन्धित है तब इन्द्रिय जगत चंचल होता है। देखना, सुनना, गंध लेना, आस्वादन करना या स्पर्श करना ये सारी प्रवृत्ति जो शरीर सम्बन्धी है वह इन्द्रिय विषयों से सम्बन्धित हैं। ऐसा कभी नहीं हो सकता कि श्रवणेन्द्रिय शक्ति है. और शब्द सुनाई न दे, आँखों की रोशनी है और रूप दिखाई न दे। मिर्चों की गंध तीखी होती है, नीबू का स्वाद खट्टा होता है। ये दोनों इन्द्रियों का विषय है ।
गर्मी के मौसम में गर्मी की और सर्दी के मौसम में सर्दी की संवेदना होती ही है। गर्म हवा की स्पर्शना होते ही या ठंडी हवा की स्पर्शना होते ही मन ऊब जाता है I इन्द्रियजन्य ज्ञान शारीरिक ज्ञान है, इस ज्ञान का आवरण सघन है। जब तक अतीन्द्रिय स्तर का विकास नहीं होता तब तक आवरण पतला नहीं होता। शारीरिक व्यग्रता को रोकने की सफलता नहीं होती । व्यग्रता को रोकने का उपाय इन्द्रिय आसक्ति से पर अनासक्त हो जाना है। मन की स्थिरता का अभ्यास करने से इन्द्रिय-जय आसक्ति से पर हो सकता है। एकाग्रता का अभ्यास करने पर क्रमशः आसक्ति से औदासिन्यता आती रहेगी और अनासक्ति भाव परिपक्व होता जायेगा ।
आसक्ति से कषाय भाव उत्पन्न होता है। जैसे ही इन्द्रियाँ अन्तर्मुखी होती जायेंगी, कषाय भाव से निवृत्ति होती जायेगी ।
क्रोध निवृत्ति का उपाय क्षमा की प्रवृत्ति है । मान निवृत्ति का उपाय मृदुता का व्यवहार है । माया निवृत्ति का उपाय ऋजुता का अभ्यास है । लोभ निवृत्ति का उपाय संतोष का अनुभव पाना है ।