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मन, वचन और काया के योग से प्रत्येक शुभ प्रवृत्ति कर्म निर्जरा का हेतु रूप होती है । आगम में इस प्रकार के शुभ योग को समाधारणा कहते हैं । समाधारणा का मौलिक अर्थ समाधि होता है। इस प्रकार मन समाधारणा, वचन समाधारणा और काय समाधारणा का परिणाम विविध स्वरूप में मिलता है जैसे
मन समाधारणा की चार श्रुतियाँ हैं
१. चित्त की एकाग्रता,
२. तात्त्विक बोध,
३. सम्यक दर्शन की विशुद्धि, और
४. मिथ्यात्व का क्षय
सम्यक् मनन, चिन्तम और समाधि भाव में स्थिर रहना मनसमाधारणा है।२०
वाणी को सतत स्वाध्याय में संलग्न रखना वचन समाधारणा है । वचन समाधारणा की तीन श्रुतियाँ हैं
१. दर्शन पर्यवों की विशुद्धि, २. सुलभबोधि की प्राप्ति, और ३. दुर्लभबोधि की निर्जरा ।
योग-प्रयोग- अयोग / ११
काया को संयम की शुद्ध प्रवृत्तियों में प्रवृत्तमान रखना काय समाधारणा है। काय समाधारणा की भी चार श्रुतियाँ हैं जैसे
१.
चारित्र पर्यायों की क्रमशः विशुद्धता से यथाख्यान चारित्र की प्राप्ति
२. वेदनीयादि अघाती कर्मों का क्षय
३. सिद्ध, बुद्ध मुक्तावस्था और
५. ४. समस्त दुःखों का अंत २०
इस प्रकार उत्तराध्ययन सूत्र के मनोयोग, वचनयोग और काययोग रूप शुभयोग अर्थात् त्रिगुप्ति एवं समाधारणा चित्तवृत्ति निरोध लक्षण से कुछ विशेष विलक्षणता के रूप में प्रयुक्त हुआ है क्योंकि चित्त वृत्ति निरोध में महर्षि पतंजलि ने तीन बातों को स्पष्ट किया है
१. चित्त, २. वृत्तियों, और ३. निरोध ।
सांख्ययोग-मत के अनुसार सम्पूर्ण जगत् सत्वरजस्तमोरूप त्रिगुणात्मक है। इन
२०. बृहद्वृत्ति पत्र ५९२
२१. उत्तरा . २९/५६ से ५८