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८/ योग-प्रयोग-अयोग
यहाँ सूत्रकृतांग, स्थानांग, उत्तराध्ययन आदि आगम में जोग शब्द का प्रयोग संयम और समाधि अर्थ में हुआ है यही योग का प्रयोग है। जैसे
मन-संयम-समाधि अर्थात् मन से वृत्तियों का निरोध वाणी-संयम-समाधि अर्थात् व्यक्त-अव्यक्त विकल्पों का निरोध काय-संयम-समाधि अर्थात् कायिक चेष्टा का निरोध-कायोत्सर्ग ।
आकृति नं. १
योग
अयोग मन योग है
वृत्तियों का निरोध वचन योग है
विकल्पों का निरोध काय योग है
सर्वथा प्रवृत्तियों का निरोध प्रयोग समाधि-संयम में वृत्तियों को केन्द्रित करना प्रयोग है। जप, मन्त्र, तन्त्र द्वारा विकल्पों से मुक्त होने का उपाय प्रयोग है। कायिक चेष्टा में स्थिरी
करण का उपाय प्रयोग है। जैन परम्परा में योगों का निरोध करने के लिए हठयोग के स्थान पर समिति-गुप्ति का विधान किया गया है। इसे सहज योग भी कहते हैं। श्रमण साधना की प्रत्येक प्रवृत्ति-जैसे
आने-जाने की प्रवृत्ति-गतियोग (केवल चलना) बैठने-सोने की प्रवृत्ति-स्थिति योग (केवल स्थिरता बैठने-सोने में) खाने-पीने की प्रवृत्ति-आहार योग(केवल खाना)
१२. स्थानांग सूत्र अ. ४.. १.. समवायांग सूत्र-४. भगवती सू. श. २५, ३.७-उत्तराध्ययन सू ३०, ३५ १३. जयं चरे, जयं चिट्ठे जयमासे जयं सए। जयं भुजंतो भासन्तो पावकम्मं न बन्धई ।। (दशैकालिक अ. ४.
गा. ७)