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४/ योग-प्रयोग-अयोग
उववाइए णत्थि में आया उववाइए के अहं आसि, के वा इओ चुते इह पेच्चा भविस्सामि"।
"के अहं आसी" मैं कौन था, यह पद आत्म.सम्बन्धी जिज्ञासा की जागति का सूचक है। साथ-साथ में पूर्वजन्म और पुनर्जन्म भी इसी सूत्र में सिद्ध करके बताया गया है। पूर्वजन्म और पुनर्जन्म की फलश्रुति ही योग है। यह आत्मा योग से संसार में परिभ्रमण करता है और उपयोग द्वारा परिभ्रमण से मुक्त होता है। अतः यहाँ आत्मा की त्रैकालिक सत्ता सिद्ध हो जाती है। "जो आगओ------ अणुसंचरइ सोह" पद से जो संसार में परिभ्रमण करता है वही मैं हूँ। ऐसा प्रतिपादन हो जाता है। आत्मा है ऐसी अनुभूति प्रतीत होने पर प्रश्न होता है "मैं हूँ" किन्तु परिभ्रमण करने वाला क्यों ? भ्रमण का हेतु क्या ? इस शंका का समाधान तृतीय सूत्र में प्राप्त होता है। "से आयावादी लोयावादी कम्मावादी किरियावादी"?५
इसी सूत्र से शुभ और अशुभ योग का प्रारम्भ होता है। इसी सूत्र से योग की प्राप्ति, योग के उपाय और योग से अयोग की साधना का प्रयोग प्रारम्भ होता है। जैसे-आत्मा, लोक, कर्म और क्रिया
१. प्रवृत्ति करना क्रिया है, २. प्रवृत्ति से जुड़ना (बन्धना) कर्म है, ३. कर्म को बांधना लोक-संसार है : ४. क्रिया, कर्म, और लोक, तीनों को भोगने वाला आत्मा है।
इस प्रकार इस सूत्र से जड़ और चैतन्य का विवेक ज्ञान प्राप्त होता है। आत्मा चैतन्य है तथा लोक, कर्म और क्रिया जड़ है। कर्म और क्रिया करने का माध्यम लोक अर्थात शरीर है। अतः सिद्ध होता है कि आत्मा और शरीर का संयोग ही मन, वाणी और कर्म की क्रिया'रूप योग है। ___ जबसे यह आत्मा इस संसार में है तब से सशरीरी आत्मा यौगिक प्रक्रिया में प्रवर्तमान है। अतः आगम में जो कुछ भी सशरीरी आत्मा के विषय में चर्चा है सभी योग से सम्बंधित ही है।
योग का सामान्य अर्थ जोड़ना होता है। यहाँ मन, वचन, कर्म और क्रिया रूप योग से आत्मा और शरीर का संयोग होता है। आत्मा अकेली है कोई भी क्रियात्मक रूप
४. ५:
आचा. अ. १. उ. १. सू. ३ आचा. अ. १. उ. १. सू. ३