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१. आगमिक योग में अनुशीलन के प्रयोग
त्रिसंयोगात्मक योग-प्रयोग
तिविहे जोए पण्णते तं जहा-मणजोए वइजोए कायजोए' । जैनागमों में योग शब्द का प्रयोग पायः मन, वचन और काया की प्रवृत्ति के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। दरअसल देखा जाए तो हमारी हर प्रवृत्ति मानसिक, वाचिक और कायिक क्रिया रूप में ही विद्यमान होती है। संसार में साधारणतया ऐसा कोई भी मानव नहीं जिसको आंशिक रूप में जानने की जिज्ञासा, मानने की वृत्ति और करने की प्रवृत्ति में रुचि न हो। इन रुचियों का सम्बन्ध मन से जुड़ा हुआ है, अतः मन एक योग है जो शरीर में रासायनिक रूप में पैदा होता है और व्यक्त-अव्यक्त वाणी के रूप में अभिव्यक्त होता है। मन और वाणी का माध्यम शरीर है जो क्रियमान रूप में प्रवृत्त होता है। इस प्रकार मन, वचन, काया का त्रिसंयोगात्मक स्वरूप ही योग कहा जाता है। जब तक योग प्रायोगात्मक कसौटी पर कसा नहीं जाता तब तक कर्म बन्धन में हेतुभूत होने से आस्रव कहलाता है।
जैनागमों में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग२ ये आश्रव के पाँच द्वार बताये हैं और इन्हीं पाँचों द्वारों से जीव कर्मबन्ध का व्यापक रूप से व्यापार करता रहता है। प्रायः ऐसा देखा जाता है कि इन्द्रियजन्य विषयों का आकर्षण मन, वचन और कायजन्य योग से होता है तथा क्रोध, मान, माया और लोभजन्य उद्वेग कषाय से होता है। अतः इससे फलित होता है कि कर्मबन्ध का कारण योग और कषाय ही प्रमुख रूप से है। इस प्रकार योग और कषाय दोनों आश्रव कर्मबन्ध के हेतु हैं । यह आश्रव शुभ होता है तो शुभयोग और अशुभ होता है तो अशुभयोग। इस प्रकार योग शुभ और अशुभ दो स्वरूपों में संसार.में परिलक्षित होता है।
_ जड़, चेतन, अभेद-योग एवं भेदविज्ञान प्रयोग जैनागमों का प्रथम आगम आचारांग सूत्र है। इसके प्रथम सूत्र में ही योग से अयोग तक पहुँचने की सम्पूर्ण प्रक्रिया हमें प्राप्त होती है । जैसे-"अत्थि में आया,
१. स्थानांग सूत्र स्था. ३
समवायांग सम. ५ ३. समवायांग सम. ५