Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिंतामणिः
नाद्वा निश्चितप्रामाण्यात्, न चैवमनवस्था, परस्पराश्रयदोषो बा, अभ्यस्तविषये प्रमाणस्य स्वतः प्रामाण्यनिश्चयादनवस्थाया निवृत्तेः, पूर्वस्यानभ्यस्तविषयस्य परस्मादभ्यस्तविषयाप्रमाणस्वप्रतिपः ।
दोनों मूल कारणीने प्रथा जागम को आदिवाक्य का मूलकारणपना तर्कसे सिद्ध करते हैं। प्रारम्भ करके शास्त्र की प्रवृत्ति करने वाला सबसे पहिला यह "श्री बर्द्धमानं " इत्यादि वाक्य है, उसके मूल कारण पूर्वाचार्यों के आगम ही हैं। क्यों कि पर और अपर गुरुओंका ध्यान कर तत्वार्थश्लोकवार्तिकको कहूँगा, ऐसे वचन आगमगम्य पदार्थों का आगम प्रमाण से निर्णय करने पर ही कहे जाते हैं। गुरुओं के प्रसादसे जाने हुए पदार्थों के मनन करनेमें ही गुरुओं के ध्यान की आवश्यकता होती है। अपने प्रत्यक्ष और अनुमानसे जाने हुए पदार्थोके कहने में भक्त मनुष्य भी गुरुओंके स्मरण को कारण नहीं मानता है।
जिन गुरुओंके आगम को अक्लम्ब लेकर यह ग्रन्थ बनाया है, उन आगमों का प्रमाणपना अभ्यासदशामें तो स्वतः है अर्थात् जैसे प्रत्यक्ष के कारण इन्द्रियों में निर्मलत्यादि गुणोंका और मन में निश्चलता रूपगुणके जाननेका जिनको अभ्यास है, वे पुरुष प्रत्यक्षमें स्वतः ही अर्थात् उन ज्ञानके कारणोंसे ही प्रामाण्य जान लेते हैं। तथा हेतु में साध्य के अविनाभाव जानने का जिनको अभ्यास है, वे अनुमान में स्वतः ही प्रामाण्य जान लेते हैं। इसी प्रकार सच्चे वक्ता संबन्धी गुणोंको जाननेका जिन प्रोताओं को अभ्यास हो चुका है, ऐसे श्रोताओंके प्रति उस वक्तासे कहे हुए आगम में प्रमाणपना अपने आप सिद्ध हो जाता है। तभी तो व्यवहार में हुंडी लिखने का, लेने, देने, का कार्य चल रहा है। और जिनको वक्तांके गुण जानने का स्वयं अभ्यास नहीं है, उन शिष्यों के लिये तो इस अनुमान से सत् आगम में प्रामाण्य सिद्ध करा दिया जाता है, कि यह ग्रन्थ प्रमाण है [प्रतिज्ञा ] क्योंकि इसमें बाधक प्रमाण के नहीं उप्तन्न होने का अच्छा निश्चय है। अथवा प्रकृतआगम में स्वयं निश्चित कर लिया है प्रामाण्य जिसमें ऐसे दूसरे आप्तोंके वचन से मी प्रमाणता आजाती है। कोक में भी एक आदमी का दूसरे आदमी से कहने और दूसरे का तीसरेके कथन करनेसे विश्वास कर लिया करते हैं। उसी प्रकार शास्त्रों के प्रमाणपने का दूसरे दूसरे प्रामाणिक शास्त्रों से निर्णय कर लेते हैं। यहां कोई कहे कि -
ऐसा करने से अनवस्था दोष आवेगा क्यों कि प्रकृत शास्त्र को दूसरे से, दूसरे को तीसरे से और तीसरेको चौथे शास्त्र से प्रमाणपना मानने से मूलको क्षय करनेवाली अनवस्था होगी, तथा यदि विवक्षित आगमको दूसरे शास्त्र से प्रमाणीकपना माना जाय और दूसरे आगम को विवक्षित आगम से, यानी श्लोकवार्तिकका प्रमाणीकपना गोम्मटसारसे और गोम्मटसार का