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थी — यद्यपि उसे अच्छी जाँच-पड़ताल - पूर्वक देनेके लिये मैंने बारबार विद्वानों से निवेदन भी किया था । इसोसे तत्कालीन 'जैन हितैषी' पत्र के सम्पादक प्रसिद्ध विद्वान पं० नाथूरामजी प्रेमीने, कोई चार वर्ष बाद सितम्बर १९१७ में मेरे कुछ परीक्षालेखको पुस्तकाकार छपाते हुए, लिखा था कि
" इन लेखोंने जैन समाजको एक नवीन युगका सन्देशा सुनाया है, और अन्धश्रद्धा के अन्धेरे में पड़े हुए लोगों को चक्रचौंधा देने वाले प्रकाशसे जागृत कर दिया है । यद्यपि वाह्य दृष्टि से अभी तक इन लेखों का कोई स्थूल प्रभाव व्यक्त नहीं हुआ है तो भी विद्वानोंके अन्तरंग में एक शब्दहीन हलचल बराबर हो रही है जो समय पर कोई अच्छा परिणाम लाये बिना नहीं रहेगी।" प्रेमीजीकी उक्त भविष्यबाणी क्रमशः सत्य होती जाती है । इस विषय में विद्वानोंका वह संकोच बराबर दूर हो रहा है और वे परीक्षाप्रधानता तथा स्पष्टवादिताको अपनाते जाते हैं । और इसीलिये आज संख्याबद्ध विद्वान तथा दूसरे प्रतिष्ठित सज्जन 'चर्चासागर' को लेकर ऐसे दूषित ग्रंथोंका विरोध करने के लिये मैदान में आगये हैं । यह सब उन परीक्षालेखोंसे होने वाली उस शब्दहीन हलचलका हो परिणाम है जिसे प्रेमीजीने उस वक्त अनुभव किया था । और इसोसे आज 'जैनजगत्' के सहसम्पादक महाशय अपने २३ नवम्बर के पत्र में लिख रहे हैं कि" ' चर्चासागर ' के सम्बन्धमें जैन समाजमें जो चर्चा चल रही है, उसमें प्रत्यक्षरूपसे यद्यपि आप भाग नहीं ले रहे हैं, किन्तु वास्तवमें इसका सारा श्रेय आपको है । यह सब आपके उस परिश्रमका फल हैं जो आजसे करोब १० -१२ वर्ष पहले से आप करते आ रहे है। जिस बात के कहनेके लिये उस समय आपको गालियां मिली थीं, वही आज स्थितिपालक दलके स्तम्भों द्वारा कही जा रही है !"