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इस प्रथमें उन सब जीवोंको 'भव्य' बतला दिया गया है जो सम्मेदशिखर पर स्थित हों अथवा जिन्हें उसका दर्शन हो सके, चाहे वे भोल- चाण्डाल- म्लेच्छादि मनुष्य, सिंहसर्पादि पशु, कीड़े मकोड़े आदि क्षुद्र जन्तु और वनस्पति आदि किसी भी पर्याय में क्यों न हो और साथ ही यह भी लिख दिया है कि वहां अभव्य जीवों को उत्पत्ति हो नहीं होती और न अभव्योंको उक्त गिरिराजका दर्शन ही प्राप्त होता हे ! यथा:
"यत्रत्या सकला जीवाः सिंहसर्पादिका नराः । भव्याः स्युः इतरेषां च उत्पत्तिर्नैव तत्र वै ||२८||" " कलौ तद्दर्शनेनैव तरिष्यन्ति घना जनाः । भव्यराशिसमुत्पन्ना नोऽभव्याः तस्य दर्शकाः ||३३|| "
पाठकजन ! देखा, भव्यत्वकी यह कैसी अपूर्व कसोटी बतलाई गई है। बड़े बड़े सिद्धान्तशास्त्रों का मथन करने पर भी आपको ऐसे गूढ रहस्य का पता न चला होगा !! यह सब भट्टारकीय शासनकी महिमा है, जिसके प्रतापसे ऐसे गुप्त तत्व प्रकाशमें आए हैं !!! इन यात्राओंके द्वारा भट्टारकों तथा उनके आश्रित पंडेपुजारियोंका बड़ा ही स्वार्थ सघता थातार्थस्थान महतोको गद्दियां बन गये थे-इसीसे लोगोको यात्राकी प्रेरणा करने के लिये उन्होंने गंगा यमुनादि हिन्दूतार्थोके माहात्म्यको तरह कितने ही माहात्म्य बना डाले है । इनमें वास्तविकता बहुत कम पाई जाती है- अतिशयोकिया भरी हुई है । सम्मेदशिखर के माहात्म्यादि विषयमें जो कुछ विस्तारके साथ इस प्रथमें कहा गया है उसकी पूरी जाँच और आलोचना को प्रकट करने के लिए एक अच्छा ख़ासा ग्रंथ लिखा जा सकता है। मालूम होता है, आचार्य शान्तिसागरजीका जो विशाल