________________
[१५] और मनमानी करनेवालोंको योग्य व्यवस्था कर सन्मार्ग पर लाते थे। संघमें बिना दण्डके कभी व्यवस्था नहीं होती है । राजदण्डसे जैसे अन्याय रुक जाता है इसी प्रकार पंचायती दण्ड धर्मविरुद्ध चलनेवालोंको अनोति मिट जाती है।"
(१९) पृष्ठ १७५ पर श्लोक नं० १२४ के अर्थ में निम्न पाक्य मूल के शब्दोंसे कोई सम्बन्ध नहीं रखते-ऊपरसे मिलाये गये हैं:
___"परन्तु मूर्तिपूजा परमागममें सर्वत्र बतलाई है। बिना मूर्तिपूजाके आत्मस्वरूपकी प्राप्ति नहीं होती है । इसलिये केवल आत्माके श्रद्धानको मानकर देव, शास्त्र, गुरुका श्रद्धान नहीं करना सो मिथ्यात्व है।"
(२०) पृष्ठ १७७ पर श्लोक नं० १३० के अर्थ में "गुरु बिना ज्ञान नहीं होता है, यह कहावत भी सर्वत्र प्रसिद्ध है" ये शब्द बढ़ाये गये हैं-मूलमें ऐसा कोई उल्लेख नहीं।
(२१) पृष्ठ १८४, १८५ पर 'भो ढूंन्याः नामस्थापनाद्रव्यभावतश्चतुर्धा जिनेन्द्रस्य स्मरणं च पूजनं स्यात्' इस वाक्य के अर्थ निम्न बाते बढ़ाई गई हैं:
"प्रत्येक वस्तुमें चारों निक्षेप नियमसे होते हैं परन्तु आप लोगोंने तीन निक्षेप (नाम द्रव्य भाव) तो स्वीकार किये हैं और बीचमें स्थापना निक्षेपको छोड़ दिया, सो क्यों?" ( इत्यादि पूरी छः पंक्तियों की बातें 'अशान है' तक)।
(२२) पृष्ठ २०४ पर श्लोक नं० ९५ के अर्थ में यह बात बढ़ाई गई है
"अन्यथा एक मुख पर पाटी बांधकर विशेष म्लेच्छा. चार क्यों फैलाते हो और जैनधर्मको घृणापूर्ण बनाकर निन्दा के पात्र होते हो।