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[१५२j इस आशय परसे ऐसा मालूम होता है कि प्रन्थकारने इन पद्यों को संभवतः त्रिषष्ठि शलाका पुरुषोंके चरित्र वाले किसी महापुराण परसे उद्धृत किया है, जहां ये उपसंहार वाक्यके रूपमें दिये गये होंगे और अपनी मूर्खतावश इन्हें यहाँ रक्खा है। क्योंकि एकतो इनका विषय प्रकृत प्रथके साथमें यथेष्ट रूपसे संगत नहीं बैठता, दूसरे यहां भगवान महावीरको मोक्षमें भेजकर कुछ कथनके बाद फिर पृष्ठ ३८२ पर 'अथ श्रीमजिनाधीशो महावीरः सुरार्चितः । विहारं कृतवान्' इत्यादि वाक्योंके द्वारा उनके विहारादिका जो कथन किया गया है वह नहीं बन सकता। और इसलिये इन वाक्योंका यहां दिया जाना प्रन्थकारको स्पष्ट मुर्खताका घोतक है। परन्तु इसे छोड़िये और अनुवादकजीकी मूर्खताको लीजिये। उन्होंने इन पद्योंको 'युग्म' रूप हो नहीं समझा, न इनका ठोक आशय ही वे समझ सके है और इसलिये इनका जो अलग अलग विलक्षण अर्थ दिया गया है वह उनकी बड़ी ही स्वेच्छाचारता, निरंकुशता एवं संस्कृतानभिशताको लिये हुए है। और वह क्रमशः इस प्रकार है:___ अर्थ-हे मगधेश्वर जो कुछ संसार में जितना वृत्तान्त होगया है, आगे होगा और वर्तमान कालमें होरहा है वह सब वीरप्रभु अपने दिव्य ज्ञानसे परिपूर्ण यथार्थरूपसे जानते हैं । इसीलिये वीरप्रभु सर्वश वीतराग और त्रिलोकवंदित हैं। मुनिगणोंसे पूज्य है । जो मनुष्य वीरप्रभुके वचनोंका अज्ञान कर उनको ही अपना ध्येय समझता है, अपना कर्तव्य मानता है वही आयुः काय भोगसंपदा आदि उत्तमोत्तम सामग्रीको प्राप्तकर महान् पुण्यका संपादन करता है। वह पुण्य त्रिषष्टिपुरुषोंके चरित्रादिको श्रवणकरनेसे संपादित होता है ।"
"अर्थ-श्रीवीरप्रभुने त्रिषष्ठीशलाका पुरुषोंका पुण्यो.