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उपसंहार इस प्रकार कुछ नमूनोंके साथ यह अनुवादका संक्षिप्त
परिचय है। और इस पर से अनुवादको असत्यता, निस्सारता, अर्थको अनर्थता और अनुवादकको निरंकुशता, चालाको, मायावारो, कपटकला, धृष्टता, धोखादेही और वह दूषित मनोवृत्ति आदि सब कुछ स्पष्ट हैं । वास्तव में यह अनु. वाद मूलसे भी अधिक दूषित है और एक सत्यव्रतादिके धारी तथा सप्तमप्रतिमाके आवारके साथ बद्धपतिज्ञ हुए ब्रह्मचारोके नाम पर भारो कलंक है । इतना अधिक झूठा, बनावटी और स्वेच्छाचारमय अनुवाद मैंने आज तक कोई दूसरा नहीं देखा । शायद हो किसी दूसरेने इतना झूठा और छल-कपटपूर्ण अनुवाद किया हो। इस अनुवाद पर से अनुवादकको जिस कपटप्रवन्धमय असत् प्रवृत्तिका पता चलता है उसके
आधार पर ऐसा अनुमान होता है कि अनुवादक ब्रह्मचारी शानचन्द्र उर्फ पं० नन्दनलालजोने सत्यव्रतादिककी जो चप. रास अपने गले में डाल रक्खो है उसमें प्रायः कुछ भी तत्व नहीं है वह अधिकाँश में दूसरों पर अपना प्रभाव जमाने अथवा अपनो स्वार्थसाधनाके लिये नुमाइशो जान पड़ती है। उसे इस अनुवादको रोशनीमे सत्यघोषकी उस कैचीसे कुछ भी अधिक महत्व नहीं दिया जा सकता-न उससे अधिक उसका कोई मूल्य आँका जा सकता है-जिसे सत्यघोषने इस विज्ञापनाके साथ अपने गलेमें लटकाया था कि 'यदि भूलकर भी मेरे मुखसे झूठ निकल जायगा तो मैं इस फैचोसे उसी क्षण अपनी जीभ काट डालूंगा' परन्तु बादको एक घटना पर से जाहिर हुआ कि वह प्रायः झूठ और मायाचारका पुतला था। उसी तरह इस अनुवाद पर से अनुवादक जो भो प्रायःझूठ