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त्पादक जीवनचरित्र, तत्त्वातत्त्वका विवेचन, मोक्षका स्वरूप आदि समस्तपदार्थोंका व्याख्यान समोशरण में दिया । वे दयालु भगवान् सदैव जयवन्त रहो ।"
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जिन पाठकको संस्कृतका कुछ भी बोध है वे मूलके साथ तथा ऊपर दिये हुए उसके आशय के साथ तुलना करके सहज ही में मालूम कर सकते हैं कि यह अनुवाद कितना बेसिर पैरका, कितना विपरीत और मूलके साथ कितना असम्बद्ध है तथा अनुवादकके कितने असत्य प्रलापको सूचित करता है। इसमें “हे मगधेश्वर" यह सम्बोधनपद तो मूलसे बाह्य होने के अतिरिक्त अनुवादकको महामूर्खता प्रकट करता है; क्योंकि ये दोनों पद्य प्रन्धकारके उपसंहार वाक्योंके रूपमें हैं- महावीरकी तरफ़ श्रेणिक के प्रति कहे हुए नहीं हैंऔर प्रन्थकारके सामने मगधेश्वर ( राजा श्रेणिक ) उसके सम्बोधन के लिये नहीं था। मालूम नहीं "सदैव जयवन्त रहो" यह आशीर्वाद और "जो मनुष्य वीर प्रभुके वचनोंका श्रद्धान कर" इत्यादि वाक्य कौनसे शब्दों के अर्थ हैं ! और 'मोक्षं ह्याप' जैसे पदों के अर्थको अनुवादकजी बिलकुल ही क्यों उड़ा गये हैं !! ये शब्द ऐसे नहीं थे जिनका अर्थ उनकी समझके बाहर हो - उन्होंने खुद पृष्ठ ३८३ पर 'मोक्षमाप' का अर्थ "निर्वाण पदको प्राप्त हुए" दिया है । फिर यहाँ वह अर्थ न देना क्या अर्थ रखता है ? जान पड़ता है ग्रन्थ में आगे भगवान्के बिहार आदिका कथन देखकर हो यहाँ उनके निर्वाणका कथन करना उन्हें संगत मालूम नहीं दिया और इसीलिये उन्होंने उक्त पदोंका अर्थ छोड़ दिया है ! यह उनकी स्पष्ट मायाचारी तथा चालाकी है !! और अनुवादकके कर्तव्यसे उनका भारी पतन है !!!