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गया है और इस बातको सिद्ध करनेके लिये पर्याप्त है कि यह ग्रंथ वास्तव में कोई जैन ग्रंथ नहीं किन्तु जैनमन्थोंका कलंक है, पवित्र जैनधर्म तथा भगवान महावीरको निर्मलकीर्तिको मलिन करने वाला है, सिर से पैर तक जाली है और विषमिश्रित भोजन के समान त्याज्य है । इसलिये इसके विषय में समाजका जो कर्तव्य है वह स्पष्ट है-उसे अपने पवित्र साहित्य, अपने पूज्य प्राचीन आचायौकी कीर्ति और अपने समीचीन आचारविचारों की रक्षाके लिये ऐसे विकृत पर्व दूषित ग्रंथोंका शीघ्र से शीघ्र बहिष्कार करना चाहिये । ऐसे ग्रंथोंको जैन शास्त्र अथवा जिनवाणी मानना महामोहका विलास है । यह प्रन्थ 'चर्चासागर' से भी अधिक भयंकर है; क्योंकि इसकी गोमुखन्याघ्रता बढ़ी हुई है, और इसलिये ऐसे प्रन्थोंके सम्बन्धमें और भी ज़्यादा सतर्क एवं सावधान होनेकी ज़रूरत है।
हाँ, अब प्रश्न यह होता है कि ऐसे उभयभ्रष्ट, अतीव दूषित और महा आपत्तिके योग्य ग्रन्थको आचार्य कहे जानेवाले शान्तिसागरजीने कैसे पसंद किया, क्योंकर अपनाया और किस तरह वे उसकी प्रशंसा तथा सिफ़ारिश करने बैठ गये ! इसका कारण एक तो यह हो सकता है कि शांतिसागरजीने इस ग्रंथको पढ़ा नहीं - वैसे ही अपने शिष्य एवं मुख्य गणधर पं० नन्दनलालजी के कथन पर विश्वास करके और उन्हींसे दो चार बातें इधर उधरकी सुनकर वे इसके प्रशंसक बन गये हैं । दूसरा यह हो सकता है कि उन्होंने इस ग्रंथको पढ़ा तो ज़रूर है परन्तु उनमें खुद मंथसाहित्यको जाँचने, परीक्षा करने और उस परसे यथार्थ वस्तुस्थितिको मालूम करने अथवा सत्यासत्यका निर्णय करने आदि की कोई योग्यता न होनेसे ( योग्यता की यह त्रुटि उनके आचार्य पदके लिये एक प्रकारका दूषण होगा ) वे उक्त पंडितजी के प्रभाव में पड़कर यो हो एक साधारण जनकी तरह