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[ १५८] इसे अपनाने लगे हैं। और यदि इन दोनों से कोई कारण नहीं है तो फिर तीसरा कारण यह कहना होगा कि शान्तिसागरजी भी ग्रंथकार तथा अनुवादककेरंगमें रंगे हुए हैं, उन्हींके आचारविचार एवं प्रवृत्तिको पसन्द करते हैं और भट्टारकी चलाना चाहते हैं। अन्यथा, प्रथको अनुवाद-सहित पूरा पढ़ने और उसके गुण-दोषोंके जांचने की यथेष्ट योग्यता रखनेपर वे कदापि इस ग्रंथको न अपनाते और न अपने संघर्म इसका प्रचार होने देते। प्रत्युत इसके, इतना झूठा, कपटी, बनावटी तथा स्वेच्छाचारमय अनुवाद प्रस्तुत करने के उपलक्षमें अपने शिष्य पं० नंदनलालजोको कभीका संघबाह्य किये जानेका दण्ड देते । जहाँ तक मैं समझता हूँ पहले दो कारणोंको हो अधिक संभावना है और इसलिये समाजका यह खास कर्तव्य है कि वह आचार्य महाराजजीको इन परीक्षा लेखौका पूरा परिचय कराए,ग्रंथकी असलियतको समझाए और उनसे अनुरोध करे कि वे इस विषयमें अपनी भूलको सुधारें, अपनी पोजीशनको साफ़ करें और अपने उक्त शिष्य (वर्तमान् क्षुल्लक ज्ञानसागरजी ) को इस महा अनर्थ के कारण खुला प्रायश्चित्त लेनेके लिये बाध्य करें। यदि वे यह सब कुछ करने करानेके लिये तैयार नहीं होते हैं तो समझना होगा कि तीसरा कारण ही उनकी इस सब प्रवृत्ति का मूल है-चे पं० नन्दनलालजी जैसोंके हाथ किसी तरह विके हुए है। और तब समाजको उनके प्रति अपना जो कर्तव्य उचित जचे उसे निश्चित कर लेना होगा। इस विषयमें मैं इस समय और कुछ भी अधिक कहने की जरूरत नहीं समझता। ____ अन्तमें सत्यके उपासक सभी जैन विद्वानों तथा अन्य सज्जनोंसे मेरा सादर निवेदन और अनुरोध है कि वे इच्छा