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[१५६] कारण विद्वानों के सामने लज्जित होना पड़े। और इसलिये वे अपनी बातको बहुत कुछ जांच तोल कर कहते हैं।
मूल प्रन्थकार पं० नेमिचन्द्र के ऊपर भी यह उक्ति खूब फबती है । उसकोधूत लीलाओं तथा योग्यताओंका पाठक भले प्रकार अनुभव कर चुके हैं और यह जान चुके हैं कि यह प्रन्थ कितना अधिक जालो, झूठा, निःसार, प्रपंची, असम्बदमलापो तथा विरुद्ध कथनोंसे परिपूर्ण है और इसमें भ० महावीरकी कैसी मिट्टी ख़राब की गई है। इतने पर भी स्वयं प्रन्थकार इसकी बड़ी प्रशंसा करता है-इसे जिनवरमुखजात, सकलमुनिपसेव्य, पापप्रणाशक, धर्मजनक, शिवप्रद, बुधनुत, सद्बुद्धिदाता, प्रवरगुणदाता, पावन, सकलमन:प्रिय और सिद्धान्त समुद्रका सार आदि और न मालूम क्या क्या बतलाता है, इसीके पढ़ने स्वाध्याय करने आदिकी प्रेरणा करता है और अपनेको 'विद्वदर' लिखता है * !! इससे पाठक समझ सकते हैं कि प्रन्थकारका यह कितना निर्लज्ज पाण्डित्य अथवा धृष्टतामय प्रलाप है !!!
__ मैं समझता हूँ मूलप्रन्थ और उसके अनुवादका जो परिचय ऊपर दिया गया है वह काफोसे भी कहीं अधिक हो
___*इस ग्रंथ-प्रशंसाके कुछ वाक्य नमूनेके तौर पर इस प्रकार हैं:"जिनवरमुखजातं गीतमाघ : प्रणोतं, सकलमुनिपसेव्यं हि इद भो भजध्वम् ।" "कुर्वीध्वं यधहानये अनुदिनं स्वाध्यायमस्यैव वै।"-पृष्ठ ४०३ "बुधाश्चेमे ग्रंथं प्रबरगुणदं धर्मजनक । अधा नाशं यान्ति श्रवणपठनादस्य निखिलाः ।" "ग्रंथम बुधसत्तमाः शिवप्रदं विद्वद्वरेणैव वै। प्रोक्त पापप्रणाशकं बुधनुसं सद्बुद्धिदं पावनम् ॥"-पृष्ठ ४०८ "सारं सिद्धान्तसिन्धोः सकलमनः प्रियं नेमिचंद्रेण धीराः।"-पृ० ११०