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[१५५] और मायाचारके अवतार जान पड़ते हैं । मुझे तो उनके इस पतनको देखकर भारी अफ़सोस होता है !!
अपनो ऐसी जघन्य स्थिति और परिणतिके होते हुए भी अनुवादकजी धर्मात्मा और विद्वान् दोनों बनते हैं, विद्वत्ताको डोंगे हाँकते हैं और दूसरोंको यों ही मूर्ख अधार्मिक आगमविरोधी धर्मकर्मलोपक तथा संस्कृतप्राकनके ज्ञानसे शून्य बतलाते हैं । यह सब उनको निलज्जता और बेहयाई का ही एकमात्र चिन्ह है। यदि यह निर्लज्जताका गुण उनमें न होता तो वे कदापि ऐसा झूठा जाली अनुवाद प्रस्तुत करने का साहस न करते, न व्यर्थ को डोंगे हाँकते और न मिथ्या प्रलाप करते । उनको इस प्रवृत्ति और अनुवादको विडम्बना को देखकर मुझे श्रीसिद्धसेनाचार्यको निम्न उक्ति याद आती है, जो ऐसे ही निर्लज्ज पण्डितोको लक्ष्य करके कही गई है:
दैवखातं च वदनं आत्मायत्तं च वाङ्मयम् । श्रोतारः सन्ति चोक्तस्य निर्लजः को न पंडितः ॥
अर्थात्-'मुख तो देवने खोद दिया है ( बना ही रक्खा है), वचन अपने आधीन है ( इच्छानुसार उसका प्रयोग करना आता है ) और जो कुछ कहा जाता है उसको सुननेवाले भी मिल हो जाते हैं, ऐसी स्थितिमें कौन निर्लज्ज है जो पण्डित न बन सके ? भावार्थ-सभी निर्लज्ज, जिन्हें कुछ बोलना अथवा लिखना आता है पण्डित बन सकते हैं, क्योंकि लज्जा हो अयोग्योंके पण्डित बनने में बाधक होती है। प्रत्युत इसके योग्योंके पाण्डित्यमें वह सहायक बनती है। उसके कारण उन्हें सदैव यह ख़याल बना रहता है कि कहीं कोई बिना सोचे समझे ऐसी कच्ची बात मुँहसे न निकल जाय जिसके