Book Title: Suryapraksh Pariksha
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + वीर सेवा मन्दिर दिल्ली १216 मुरमा क्रम संख्या क्रम मरता काल न खण्ड Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागरत बड़े साईकी जाँच सूर्यप्रकाश-परीक्षा (ग्रन्थपरीक्षा-चतुर्थ भाग) लेखक पंडित जुगलकिशोर मुख़्तार ___ सरसावा जिला महारनपुर प्रयपरीक्षा-त्रयभाग, स्वामी समंतभद्र, जिनपूजाधिकारमीमांसा, उपासनातरव, विवाहसमुद्देश्य, विवाहक्षेत्रप्रकाश, जैनाचार्योका शासनभेद, वीरपुष्पांजलि, हम दुखी क्यों हैं, मेरी भावना और सिद्धि-सोपाम आदि अनेक ग्रन्थोके रचयिता। SPONSORS प्रकाशकजौहरीमल जैन, सर्राफ़ दयाकला, देश्लो मुद्रक । 'चैतन्य' प्रिंटिंग प्रेस, बिजनौर प्रथमावृत्ति पौष, वीर सं० २४६० ( मूल्यहज़ार प्रति जनवरी १९३४ । विचार और प्रचार Gao Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धन्यवाद ! इस पुस्तक के प्रकाशनके लिये जिन जिन दानो महानुभावों ने निम्न लिखित आर्थिक सहायता दी है, उन सब ही के हम हृदय से आभारी है :--- १००) ला० धनकुंवार छोटेलाल जी रईस, कानपुर २५) ला० झुन्नूलाल श्योसिंह राय जी रईस, शाहदरा (देइली ) २५) बाबू छोटेलाल जी जैन रईस, कलकत्ता, २०) ला० सिखोमल एण्ड सन्स काग़ज़ी, देहली १०) ला० जानकीदास जी, किनारी बाज़ार, १०१ ल१० मुंशीलाल तो किताब बाले, १०) गुप्त दान १०) ला० छज्जूमल जी रईस कपड़े वाले, १०) ला० मक्खनलालजी ठेकेदार दरियागंज ५) रा० ब० ला० नन्दकिशोर जी ५) ला० जैनीलालजी काग़ज़ी, मोती बाज़ार,,, ५) ला० न्यादरमल पूरनचन्द्र जी सर्राफ, २३५ कुल जोड -प्रकाशक । 0010000+0048 99 " Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकके दो शब्द 'सूर्यप्रकाश' कैसा-किस कोटिका-जाली प्रन्थ है, कितना अधिक जैनस्वसे गिरा हुआ है, कहाँ तक भ० महावीर के पवित्र नामको कलंकित तथा जैनशासनको मलिन करने वाला है और उसका अनुवाद कितना अधिक निरंकुशता, धूर्तता एवं अर्थ के अनर्थको लिये हुए है, ये सब बातं इस परीक्षालेखमालामें दिनकर-प्रकाशकी तरह स्पष्ट करके बतलाई गई है। जैनसमाजमें प्रन्थोंको परोक्षाके मार्गको स्पष्ट और प्रशस्त बनाने वाले मुख्तार साहिब पं० जुगलकिशोरजोको यह लेखमाला 'जैनजगत' में, १६ दिसम्बर सन् १९३१ के अङ्कसे प्रारंभ होकर पहली फ़र्वरी सन् १९३३ तक अङ्कोंमें, १० लेखों द्वारा प्रकट हुई थी। उसोको मुख्तार साहिबसे पुनः संशोधित कराकर यह पुस्तक रूपमें प्रकट किया जा रहा है। लेखक महोदयने इस लेखमालाके द्वारा मंथकी असलियतको खोलकर निम्सन्देह समाजका बड़ाही उपकार किया है। आपका यह लिखना बिल. कुल ठीक है कि इस प्रथको गोमुख-व्याघ्रता 'चर्धासागर' से भी बढ़ी चढ़ी है और इसलिये इसके द्वारा समाजको अधिक हानि पहुँचनेको संभावना है । अतः समाजके सभी सज्जनोंसे मेरा सानुरोध निवेदन है कि वे इस पुस्तकको गोरके साथ साधन्त पढ़नेको कपा करें आर उसके फलस्वरूप चर्चासागरके इस बड़े भाई 'सूर्यप्रकाश'का शीघ्र हो पूर्ण रूपले बहिष्कार करके प्रा. चोन जैनसाहित्य और जैनशासनको रक्षाका पुण्य संपादनकरें। अंतमें मैं,लेखकमहोदय और भूमिका-लेखक पं० दरबारीलालजोका तथा श्रीमान् ७० दोपचन्द्रजोवर्णीका हृदयसे आभार मानता हुआ, उन सभी सज्जनोंका सहर्ष धन्यवाद करता है जिन्होंने इस पुस्तकके प्रकाशनमें मुझे आर्थिक आदि किसीभी प्रकारको सहायता प्रदान की है। -जौहरीमल जैन । Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 4 ] मेरे विचार ! कोई चार वर्षके करीब हुए, जाँबुडो (गुजरात) में मुझे सूर्यप्रकाश' प्रन्थको देखने का अवसर मिला था और उसे देखने पर पथके निर्माण, अनुवाद, प्रकाशन और दिगम्बर जैन पुस्तकालय सूरत के विज्ञापन में उसे स्थान दिये जाने आदि पर कितनो हो शंकाएँ उतपन्न हुई थीं। हालमै पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार को लिखो हुई उसको पूरी परोक्षा-लेखमालाको भी मैंने पढ़ा है। वास्तव में स्वामी समन्तभद्रद्वारा प्रतिपादित शास्त्रलक्षण के अनुसार यह 'सूर्यप्रकाश पंथ कोई जैनशास्त्र नहीं है। इसमें पदपद पर विरोध भरे पड़े हैं, प्रतिवादियों को इसके द्वारा जैनधर्मके खंडनका एक अमोघ शस्त्र प्राप्त हो जाता है, तत्त्वोपदेश. का तो इसमें नामोनिशान भी नहीं है, मोही प्राणियोंको जोकि विचार प्रापहो मोक्षमार्गको भूले हुए, और भो भुलावे में राल. कर उनका अहित करनेवाला है और मिथ्यात्वका वर्धक है। तब ग्रंथकारने ऐसा मिथ्यात्वपोषक ग्रंथ रचा ही क्यों ? इस शंकाके लिए इतना ही समझलेना काफ़ो होगा कि अहंमन्य मुनिराज सोमसेन भट्टारकने जब त्रिवर्णाचार जैसा ग्रंथ रचकर संसारको भुलावेमें डालदिया है तब ये ग्रंथकार महाशय नेमिचन्द्र भी तो उन्हीं शिथिलाचारी भट्टारकोंके शिष्य-प्रशिष्य है, शिष्य महाशय यदि गुरुसे दो कदम आगे न बढे तो गुरुका नामही क्या चलासकेंगे ? ठोक है, इनको ऐसा ही करना रचित था, क्योंकि ये बहुआरंभी और परिग्रही थे, विषयकषायोके गहरे रंग रंगे हुए थे, ऐसा करने में ही इनके प्रयो. जनकी सिद्धि थी अथवा ये ऐसा ही कर सकते थे। इनके पास थे भी मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र; उन्हींको इन्होंने दूसरोंको बतलाया है। Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [5] भट्टारकीय संस्कारोंसे संस्कारित होने के साथ साथ से ग्रंथकार महाशय अशनबहुल भी थे,इसीसे वे अपनी इस रचना में सिद्धहस्त न हो सके । इन्होंने जो कुछ विचार प्रकट किये वे सब भगवान महावीरके मुखसे भविष्यमें होने वाली घटनाओं के सम्बन्ध में किये हैं परन्तु खेद है कि भविष्य कहलाते कहलाते आप भूत भी कहलाने लगे और वह भी उनके सम्बन्धमे जिनका अस्तित्व न तो भगवान महावोरसे पहले ही था और न वोर प्रभुके समकालीन हो थे ! इसी के साथ आप ऐसो ऐसी बातें भी कहलागये जो पूर्वापर विरोध को लिये हुए तथा जैन सिद्धान्तके सर्घथा विरुद्ध हैं। इतना ही नहीं, किन्तु जिन कठोर एवं तिरस्कारमय अपशब्दों के कहने में एक साधारण अज्ञानी तीवकषाबी जीव भोशंकित और संकुचित हो उन्हें भी आप बिना किसी संकोच के परम वीतरागी भ० महावीरके मुखसे कहला गये हैं ! और वह भी प्रायः उन्हींके उपासकों के प्रति !! इन सब असम्बद्ध विरुद्धादि विलक्षण बातोंका इस परीक्षामें विस्तारके साथ अच्छा दिग्दर्शन कराया गयाहै। उसे पाठकोंको देखना चाहिये। अच्छा होता यदि ग्रंथकार महाशय अपने विचार स्वयं स्वतंत्र रोतिसे लिखते और महाराजा श्रेणिक का सम्बन्ध मिलाकर उन्हें वोर प्रभुके द्वारा कहे गये प्रकट न करते; इससे प्रभुका अवर्णवाद तो न होता । अपने विचारों के साथ मदावोर प्रभुका नाम जोड़ देना घोर अपराध है और दूसरोंको धोका देना है। समझमें नहीं आता पं० नन्दनलालजी वर्तमान क्षुल्लक ज्ञानसागर जी महाराज अपना गृहस्थावास त्याग करके जब केवल सम्यगदर्शनादि आराधनाओं का विशेष रूपसे आराधन करनेके लिये ही अनगार संघमें विचर रहे हैं तब वे ऐसे दूषित प्रन्योंके अनुवादादिद्वारा उनके प्रचार में क्यों लग गये ? आपने केवल सूर्यप्रकाश ही नहीं किन्तु चर्चासागर भोप्रकाशित करा Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [61 कर दानविचार भी स्वतंत्र रचडाला, जिनकी समीक्षाएँ भी निकल चुकी हैं और जिनके कारण समाजमें खासी हलचल (जंग) मची हुई है। मेरी यह शंका और भी गम्भीर हो जातीहै जब मैं देखता हूँ कि इन प्रन्योंका समर्थन दक्षिणी मुनिसंघके द्वारा किया गया है । श्रीमान आचार्य शांतिसागरजी महाराज कुछ भी इनके विरुद्ध अपना मत प्रकट नहीं कर रहे हैं और इसलिये कितनी ही भोली जनता इनको जैन शाख समझकर अपना रही है। मालूम होता है या तो आचार्य शांतिसागर महाराज इन ग्रंथोंसे सहमत हैं या अपने सच्चे विचार किसी. कारणसे प्रगट करने में असमर्थ हैं अथवा उनको असलो बात बतलाई ही नहीं जाती। कुछ भी हो, उनका कर्तव्य है कि वे इनके विषयमें शीघ्र ही अपना स्पष्ट मत जैसा हो बैला अवश्यही प्रगट करादचे, जिससे जनता का भ्रम मिट जाये। जहां तक मैं समझताहूँ उनको ग्रंथों तथा ग्रंथसमीक्षाओं आदिकीये सब बाते विदित हीनहीं होती और योही संघको अकोर्ति होरही है ! अतः समाजके व्यक्तियोंकोचाहिये कि वे प्राचार्य महाराज परिचयमें ये सब बातें लाएँ और फिर उनसे पूछे कि वे प्रतिप्रथादि. के विषयमें अब क्या मत रखते हैं ?-इन्हें आर्ष प्रन्थ (आगम). मानते हैं याकि धर्मविरुद्ध संसार परिपाटीके कद्धक मानते हैं ? खेद है कि अनुवादक महाशय क्षुल्लक शानसागरजोने इस ग्रंथके कर्ता पं० नेमिचन्द्रको आचार्य नेमिचन्द्र बना डाला है! और अनुवादमें मूलार्थके नामसे बहुतसी अपनी बाते मिला दो हैं !! उनकी इस कतिसे भले ही कुछ भोले भाले प्राणी ठगारजायं परन्तु विवेको परीक्षक पुरुष तो कभी भी उगाये नहीं जा सकते । जब आचार्य नेमिचन्द्र की कृतियों के साथ पं० नेमिचन्द्रकी इस कर्तृत 'सूर्यप्रकाश' को अथवा बाबा भागीरथजी वर्णीके शब्दोंमें “घोर मिथ्यात्वप्रकाश" को रक्खेंगे तो वे इसे Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " [ 7 ] पढना तो अलग रहा छूना भी पसंद नहीं करेंगे । अच्छा होता यदि अनुवादक महाशय मूलार्थ जैसा का तैसा लगट करके टिप्पणी में चाहे जो कुछ लिखते, इससे अनुवादका मूल्य बढ़ जाता। अथवा जिनजिन विषयोंपर आपको विवेचन करना था उनपर स्वतंत्र ही लिखते तो भी अच्छा होता । परन्तु उन्होंने ऐसे पूर्वापरविरोधी आगमविरोधी, वोर प्रभुका अवर्णवाद करने वाले ग्रंथका सहारा लिया इससे जनतापर उलटाही प्रभावपड़ा। अन्तमें मैं श्रीमान् क्षुल्लक ज्ञानसागरजी और मुनिसंघ से भी सादर निवेदन करताहूं कि वे इस प्रन्थपरीक्षा की रोशनी में पुनः इस ग्रंथपर विचार करके अपना मत प्रगट करनेको कृपा करें, तथा भविष्य में ऐसे ग्रंथोंका ही प्रकाशन व समर्थन करें जो वीरवाणीके अनुसार श्रीकुन्दकुन्दादि माननीय आचार्यो द्वारा रचित होवें - अर्थात् जो मिथ्यात्व अधकारके नाशक, रागद्वेषादि संसारको परिपाटीके उच्छेदक तथा वीतरागताविज्ञानताके पोषक होवें ! और जनता से भी सम्ग्रह प्रेरणा है कि वह भी अब परीक्षा के समय में ज्यो त्यो किसी पूर्व ऋषि के नाम मात्रले ठगा नहीं किन्तु उन ऋषियोंके अन्यान्य वचनों से, आगम और अनायसे मिलान करें, फिर अनुमान और अनुभव से जांच करके ही स्वीकार करें; क्योंकि जितने बचन वीतराग विज्ञानताके पोषक हैं वे सब जैनवचन है और जो रागादिकबर्द्धक हैं वे सब जैनधर्मके विरुद्ध मिथ्याशास्त्र या वचन हैं । मैंने ये विचार सज्जनोंके विचारनेके लिये लिखे हैं। मुझे किसी से कोई विरोध नहीं है। मैं तो सत्य जिन (वीर) वाणी का प्रकाश चाहता हूं, उसीका उपासक हूँ । ऋषभब्रह्मचर्याश्रम, मथुरा कु० व० ९, वीराब्द २४५९ श्री वीर-शासन - सेबी दीपचन्द्र वर्णी Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्वानों की कुछ सम्मतियां (१) त्यागमूर्ति बाबा भागीरथजी वर्णी "संसारमें जितने अनर्थ होते हैं वे केवल स्वार्थ सिद्धि पर निर्भर हैं । इस ग्रन्थका नाम 'सूर्यप्रकाश' है यदि 'घोर मिथ्यात्व प्रकाश' रहता तो अच्छा होता; क्योंकि इसमें श्री महावीर स्वामीका घोर अवर्णवाद किया गया है ।" (२) न्यायालंकार पं० वंशीधरजी सिद्धान्तशास्त्री, इन्दौर "आपकी जो अति पैनी बुद्धि सचमुच सूर्यके प्रकाशका भी विश्लेषण कर उसके अंतर्वर्ति तवोंके निरूपण करने में कुशल है उसके द्वारा यदि नामत: सूर्यप्रकाशकी समीक्षा की गई है तो उसमेंका कोई भी तत्व गुह्य नहीं रह सकता है । अनुवादकके हृदयका भी सच्चा फ़ोटू आपने प्रगट कर दिखाया है। आपकी यह परीक्षा तथा पूर्वलिखित ग्रंथपरीक्षाएं बड़ी कामको चीज़ें होंगी ।" (३) पं० परमेष्ठोदासजी, न्यायतीर्थ, सुरत 66 'सूर्य प्रकाश-परीक्षा' के लेख मैने अक्षरशः पढ़े हैं । उनकी तारीफ़ मै तो क्या करू, मगर विरोधी जीवभी बेचैन होजाते होंगे ! परन्तु वे क्या करें ? हठका भूत जो उनपर सवार है !!" (४) रायबहादुर साहु जगमन्दरदासजी, नजीबाबाद - " चर्चासागर के बड़े भाई 'सूर्यप्रकाश' ग्रन्थकी परीक्षा देखकर तो मेरे शरीरके रोंगटे खड़े हो गये !· पूज्य पं० टोडरमलजी आदि कुछ समर्थ विद्वानोंके प्रयत्न से यह भट्टारकीय साहित्य बहुत कुछ लुप्तप्राय हो गया था परन्तु दुःखका विषय है कि अब कुछ महारकानुयायी पंडितोंने उसका फिरसे उद्धार करनेका वीडा उठाया है । अत: समाजको अपने पवित्र साहित्यकी रक्षा के लिये बहुत ही सतर्कता के साथ सावधान हो जाना चाहिये और ऐसे दूषित ग्रंथों का ज़ोरोंके साथ बहिष्कार करना चाहिये, तभी हम अपने पवित्र धर्म और पूज्य आचार्यों की कीर्तिको सुरक्षित रख सकेंगे ।" ..... Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 9 ] भूमिका " जितना पीला है उतना सब सोना नहीं है" यह कहावत उन भोले भाइयोंको समझाने के लिये बहुत ही उपयुक्त है जो विवेक और गंभीर दृष्टिसे काम न लेकर वेष और भाषाके जाल में फँसकर सन्मार्ग पर नहीं पहुँचने पाते या उससे भ्रष्ट होते हैं । शास्त्रोंके विषय में यह कहावत पूर्ण रूपसे चरितार्थ होती है। मिथ्यात्वकी तीन मूढताओंमें शास्त्रमूढताको जो स्वतंत्र स्थान नहीं दिया गया उसका कारण यह है कि यह एक स्वतंत्र मूढता नहीं है किन्तु सब मूढताओंका प्राण है सब मूढताओके मूलमें यह मूढता रहती है । यह मूढताओं की जननी है । 1 साधारण लोगोंकी विवेक शक्ति बहुत हलकी रहती है । और किसी चीज़ को पहचानने के लिये उनके लक्षण बहुत व्यभिचरित रहते हैं । यही कारण है कि शास्त्रोंके समान वे शास्त्रोंकी भाषाओको भी महत्व देते हैं । इसीसे लोग शास्त्रके समान संस्कृत के किसी भी श्लोक से घबराते हैं-डरते हैं। जनताकी इस कमज़ोरीका धूर्त पंडितोंने खूब हो दुरुपयोग किया है । संस्कृत भाषा भारतके प्रायः सभी प्राचीन सम्प्रदायोंमें सम्मानकी दृष्टिसे देखी जाती है इसलिये धूर्त पंडित इसका सदा दुरुपयोग करते रहे हैं। सभी सम्प्रदायोंमें इस प्रकारका धूर्ततापूर्ण साहित्य तय्यार हुआ है और बहुत अधिक हुआ है। जैनियोंने जिस प्रकार साहित्य के सभी अंगोकी पूर्ति की है उसी प्रकार इस अंगविकार को भी पूर्ति की है । धर्म के नामपर अनेक जैन लेखक बड़ा से बड़ा पाप करने से भी पीछे नहीं हटे हैं। यहांतक कि उन्होंने मनमानें ग्रंथ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 10 ] बनाकर उनके रचयिता भद्रबाह श्रुतकेवली, कुन्दकुन्द, उमास्वामी, जिनसेन, आदिको बना दिया है । और इस प्रकार जनताकी आंखों में धूल झोंकनेकी असफल कुचेष्टा की है। कुछ लोग ऐसे हैं जिन्होंने प्रन्थ पर तो अपना नाम दिया है परन्तु उसमें भ० महावोर आदिके मुखसे इस प्रकार के वाक्य कहलाये हैं जो जैनधर्म के विरुद्ध, क्षुद्रतापूर्ण और दलबन्दोके आक्षेपोंसे भरे हुए हैं। इसी श्रेणोके ग्रंथों में 'सूर्यप्रकाश' भी एक है, जिसकी अधार्मिकता और अनौचित्यका इस पुस्तकमे मुख्तार साहिबने बड़ी अच्छी तरहसे प्रदर्शन किया है । इस प्रकारके जाली प्रन्योंका भंडाफोड़ करने के कार्यमें मुख्तार साहिब सिद्धहस्त हैं। आपने भद्रबाहु-संहिता, कुन्दकुन्द-श्रावकाचार, उमास्वामी. श्रावकाचार, जिनसन-त्रिवर्णाचार आदि जालो प्रन्योकी परीक्षा करके शास्त्रमूढताको हटानेका सफलतापूर्ण और प्रशंसनीय उद्योग किया है। ग्रंथ परोक्षाके इस कार्यको सैकड़ों विद्वानोंने जहाँ मुक्त कण्ठले प्रशंसा की है वहाँ इस कार्य के निन्दकाको भो कमी नहीं है। परन्तु इससे अन्धविश्वासियों और स्वार्थियोंको अस्तित्व-सिद्धिके सिवाय और कुछ प्रतीत नहीं होता। सत्यके दर्शन बड़े सौभाग्यसे मिलते हैं । दर्शन होनेपर उसतक पहुंचना बड़ी वीरताका कार्य है और पहुंच करके उसके चरणों में सिर झुकाकर आत्मोत्सर्ग करना देवत्वले भी अधिक उच्चताका फल है। जिनका यह सौभाग्य नहीं है, जिनमें यह वीरता नहीं है, जिनमें यह उच्चता नहीं है वे असत्यके जालमें फंसकर अपना सर्वस्व नष्ट करते हैं । इतनाही नहीं; किन्तु उनका ईलु हदय दूसरोंकी सत्य-प्राप्तिको सहन नहीं कर सकता। इसलिये वे निन्दा करते हैं, गालियाँ देते हैं, कदाक्षेप Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 11 ] करते हैं और जिस आधारपर वे अपनी सत्यता के गोत गाते हैं उस आधारको काटने तक के लिये तैयार हो जाते हैं ! " जैनधर्म एक वैज्ञानिक धर्म है" इस बातको वे लोगभी बड़े गौरव के साथ कहते हैं जो बिलकुल अन्धश्रद्धालु है, और दूसरों की आलोचना करते समय जो परीक्षाकी युक्ति-तर्ककी दुहाई देते हैं । परन्तु जब किसी निश्पक्ष परीक्षासे उनके अन्धविश्वासको या स्वार्थको धक्का पहुँचता है तब उनका हृदय तिलमिला उठता है । वे शास्त्रकी परीक्षाको पाप कहने लगते है । इस समय उनकी हास्यास्पद मनोवृप्ति एक तमाशा बन जाती है। इस दुर्मनोवृत्तिसे त्रस्त होकर वे चिल्लाने लगते हैं कि "बस ! परीक्षा मत करो । परीक्षा करना पाप है । सरearth परीक्षा करना माताके सतत्वोको परीक्षा करने थे समान निंध है । जब हम मां बापकी परीक्षा नहीं करते तब हमें सरस्वती की परीक्षा करनेका क्या हक है ? दुनियाँके सैकड़ों कार्य बिना परोक्षाके हो चलते हैं आदि ।" अगर कोई वैनयिक मिथ्यात्वो या आज्ञानिक मिथ्यात्वी इस प्रकारके उद्गार निकालता तो उसकी इस मनोवृत्तिको अनुचित कहते हुए भी हम क्षम्य समझते । परन्तु जो एकान्त या विपरीत मिथ्यात्व है और अपनेको सम्यस्वी विवेको शानो समझते हैं तथा अपने पक्षका मंडन और पर-पक्षका खंडन करते हैं, जब वे परीक्षाको पाप कहने लगते हैं तब उनकी यह निर्लज्जता उस सीमा पर पहुँच जाती है जिसे देखकर निर्लज्जता भी लज्जित हो जाये। अरे भाई ! मां बाप की परीक्षा न करना तो ठीक, परन्तु जगतमें ऐसा कौन प्राणी है जो जीवन के अधिकांश कार्य परीक्षा-पूर्वक न करता हो । एक कौड़ी भी जब कोई चीज़ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 12 ] खाती है तब अपनी शक्ति के अनुसार उसकी परीक्षा कर लेती है कि वह भक्ष्य है या अभक्ष्य ? हम भी हरएक पुरुषको बाप नहीं मानते किन्तु आकृति आदिसे पहिचानकर-परीक्षाकरउसे बाप मानते हैं। हां, यह बात दूसरो है कि कहीं परोक्षा शोघ्र होती है, कहीं देरीसे होतो है; कहीं थोड़ी होती है, कहीं बात होतो है; कहीं अल्पावश्यक होती है, कहीं बहावश्यक होती है, परन्तु परोक्षा होतो सब जगह है । इस विषयमें तीन बातें विचारणीय हैं १. वस्तुका मूल्य, २. परीक्षाको सुसम्भवताकी मात्रा, ३. परोता करने न करनेसे लाभ-हानि की मर्यादा।। १-रत्न परीक्षामें हम जितना परिश्रम करते हैं उतना भाजी तरकारोको परीक्षा नहीं करते । बहुमूल्य वस्तुको जाँच भी बहुत करना पड़ती है। धर्म अथवा शास्त्र सबसे अधिक बहुमूल्य है, उस पर हमारा ऐहिक और पारलौकिक समस्त मुख निर्भर है। उसका स्थान मां बापसे बहुत ऊँचा और बहुत महत्वपूर्ण है, इसलिये अगर हम सब पदार्थोकी परीक्षा करना छोड़ दे तो भी शास्त्रको परीक्षा करना हमें आवश्यक ही रहेगा। २-माताके सतीत्व असतीत्वको परीक्षा करनेका हमारे पास सुलभ साधन नहीं है । उसको प्रामाणिक साधनसामग्रो मिलना बहुत कठिन है, जबकि शास्त्रपरोक्षामें हमारी विवेक बुद्धि हो पूरा काम कर सकती हैं। और परीक्षाको साधन-सामग्रो भी बहुत मिलती है। ३-तीसरो और सबसे अधिक विचारणीय लाभहानि. को मर्यादा है। माताके सतोत्वको परोक्षा सरल हो या कठिन, परन्तु पुत्रके लिये वह निरर्थक है। क्योंकि अब वह दूसरेके गर्भ में जाकर अन्यका पुत्र नहीं बन सकता। उसकी माता, Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 13 ] सती हो या असतो, उसकी माता ही बनी रहेगी। इसके अतिरिक्त असती होने पर भी माताके उपकारोंका बोझ हट नहीं सकता । परन्तु शास्त्रके विषयमें यह बात नहीं है । शास्त्र अगर कुशास्त्र हो तो हमको अधोगतिमें ले जायगा, हमारे जोधनको बर्बाद कर देगा। साथ ही वह हमारे जीवन के साथ बंधा हुआ नहीं है, हम चाहें तो कुशास्त्रसे अपनी भद्धाको हटा सकते हैं। इस प्रकार तीनों दृष्टियोंसे शास्त्रको परीक्षा अन्य सब परीक्षाओंको अपेक्षा अधिक आवश्यक है। कोई कोई भाई कहने लगते हैं कि "जिन शास्त्रों से हमने अपनी उन्नति को उनको परीक्षा करना तो कृतघ्नता है" ऐसे भाइयों को समझना चाहिये कि उन्नतिका कारण सत्य है असत्य नहीं । शास्त्रों में जो सत्य है उसको छोड़नेका कोई उप. देश नहीं देता-असत्यको छोड़नेका उपदेश देता है, जो कि हमारी उन्नतिका कारण नहीं है। दूसरी बात यह है कि जिन जाली शास्त्रोको हम परीक्षा कर रहे हैं उनको पढ़ करके हम उन्नत हुए हैं यह कहना मिथ्या है। तोसरी बात यह है कि अगर हम दूधको पोकर पुष्ट हुए हैं इस पर कोई विषमिश्रित दूध पिलाना चाहे और हम न पियें तो इसमें दूधका अपमान नहीं विषका अपमान है। शास्त्रमें असत्यका मिश्रण होने से अगर हम उसका त्याग करते हैं तो इसमें असत्यका अपमान है न कि शास्त्रका । चौथी बात यह है कि परीक्षा कतन्नताका नहीं, किन्तु प्रेमभक्ति और आदरका परिणाम है। सुवर्णसे हम प्रेम करते हैं इसलिये उसकी खूब परीक्षा करते हैं। उसमें कोई मैल न रह जाय इसलिये बार बार अग्निमें डालते हैं। इसका अर्थ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [14] यह नहीं है कि हम सुवर्णसे द्वेष करते हैं। इसी प्रकार शाल की परीक्षा करना भी प्रेम, भक्ति और आदरका सूचक है। ____ कोई कोई भाई कहने लगते हैं कि 'हम शास्त्रकारसे अधिक बुद्धिमान हों तो परीक्षा कर सकते हैं। परन्तु यह विचार भी ठीक नहीं है। पहिली बात तो यह है कि अमुक प्रन्थ बनाने वाला आजकलके सब मनुष्योंसे अधिक बुद्धिमान था यह समझना मिथ्या है। दूसरी बात यह है कि अल्पबुद्धि होकरके भी हम किसी बातको परीक्षा कर सकते हैं। सुन्दर गानकी परीक्षाके लिये सुन्दर गायक होना आवश्यक नहीं है। यदि हम स्वयं परीक्षा न कर सकते हों तो दूसरा आदमी जो परीक्षा करे उसकी जाँच तो अवश्य कर सकते हैं । अगर हम इतनी भी परीक्षा नहीं कर सकते तो अपने पक्षको सत्य और दूसरेके पक्षको असत्य कहनेका हमें कोई हक नहीं रह जाता है। हम विवे. कियों में अपनो गणना कदापि नहीं कर सकते। जैनसमाजमें छोटे छोटे बालकोंको भो शास्त्रका लक्षण पढ़ाया जाता है । लक्षणका उपयोग परीक्षामें ही है। यदि शास्त्रको परीक्षा करना पाप है तो उसका लक्षण बनाना और पढ़ाना भी पाप है; क्योंकि परीक्षाके सिवाय लक्षणका दूसरा उपयोग ही क्या है ? जबकि हमारे आचार्योंने शास्त्रका लक्षण बताया है और स्वामी समन्तभद्रसे लेकर पं० टोडरमल्ल तक प्रायः सभी सुलेखकाने शास्त्रकी परीक्षा की है तब यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जैनधर्म में परीक्षा अत्यन्त महत्वपूर्ण और आवश्यक स्थान रखती है। ___ जब भगवान महावीरके धचन अपने मूलरूपमें उपलब्ध न हों, अंग-पूर्व नष्ट हो गये हों, जैनधर्म ने हज़ारों वर्षों तक अनेक ऊंचे नीचे दिन देखे हों, परिस्थितियों के प्रभावसे Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [15] अनेक दल हो गये हों, दलबन्दियों के चक्कर में पड़कर शास्त्र नामकी ओटमें अनेक लेखकोंने एक दूसरे पर कीचड़ उछाला हो, अनेक आचार्यों और टोडरमल्लजी सरीखे विख्यात ऐति. हासिक विद्वानोंको भी परीक्षाको दुहाई देनी पड़ी हो उस समय शास्त्र परीक्षाकी आवश्यकता कितनी अधिक हो जाती है इसके कहनेकी आवश्यकता नहीं है। _ 'सूर्यप्रकाश' कैसा ग्रंथ है और उसको परीक्षा कैसी लिखी गई है इसकी आलोचना करनेकी यहां कोई आवश्यकता नहीं है । संक्षेपमें इतना ही कहा जा सकता है कि जाली ग्रंथों में जितनी धूर्तता और क्षुद्रता हो सकती है वह सब इसमें है, और उसकी परीक्षाके विषयमें तो मुख्तार साहिबका नाम ही काफी है। यह खेद भार लज्जाको बात है कि सूर्यप्रकाश सरीखे भ्रष्ट प्रथा के प्रचारक ऐसे लोग हैं जिन्हें कि बहुतसे लोग भ्रमवश विद्वान और मुनि समझते हैं । परन्तु इसमें उन लोगोंका जितना अपराध है उतना या उससे कुछ अधिक अपराध जनताका भी है। स्वार्थी लोग अपनी स्वार्थसिद्धिकी कोशिश करें, धूर्त लोग धूर्तता दिखावे इसमें क्या आश्चर्य है ? यह स्वाभाविक है। जनताको अपना बचाव स्वयं करना चाहिये-उसे सदा सतर्क रहना चाहिये। अपने उद्धारके लिये अपनेही विवेककी आवश्यकता है । आशा है इस परीक्षा. प्रन्थको पढ़कर बहुतसे पाठकों का विवेक आप्रत होगा। जुबिलीबाग, तारदेव, बम्बई । दरबारीलाल न्यायतीर्थ ७-११-१९३३ । साहित्यरत्न Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची विषय प्रास्ताविक निवेदन प्रन्य-नाम ... ... ... प्रन्थका जालीपन १ प्रन्थावतारकी विचित्र कल्पना २ भगवान महावीरके सिर विरुद्ध कथन ३ महावीरके नाम पर असम्बद्ध प्रलाप ४ तेरह पंथियोंसे भगवानकी झड़प ५६ढियों पर गालियोंकी वर्षा कुछ विलक्षण और विरुद्ध बातें १ सब पापोंसे छूटनेका सस्ता उपाय २ धर्म और धनकी विचित्र तुलना । ३ ज्यान और तपका करना वृथा ४ मुक्तिका दूसरा कोई उपाय नहीं ५ भव्यत्वकी अपूर्व कसौटी ६ सम्यग्दर्शनका विचित्र लक्षण • कुन्दकुन्दकी अनोखी श्रद्धाका उल्लेख ८ आगमका अद्भुत विधान ९ कर्मसिद्धान्तकी नई ईजाद १० स्त्री जातिका घोर अपमान "शूद्र-जलादिके त्यागका अजीब विधान १२ भगवानकी मिट्टी खराब अनुवादककी निरंकुशता और अर्थका अनर्थ अनुवाद-स्थितिका सामान्य परिचय ... विशेष परिचय अथवा स्पष्टीकरण उपसंहार १५४ अन्तिम पृष्ठ शुद्धिपत्र Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T KEE श्रीमान् प० जुगलकिशारजी मुख्तार सामावा (मारनपुर)। Ons Pilgra Pinted at the Punjal PresCombi Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aafarara बड़े माईकी जांच अर्थात् सूर्यप्रकाश-परीक्षा प्रास्ताविक निवेदन 'जकल 'चर्चासागर' प्रन्थ जैन समाजमें सर्वत्र आजकल चर्चाका विषय बना हुआ है और सब ओरसे उसका भारी विरोध हो रहा है । ऐसे ग्रन्थके इस विरोधको देखकर मेगे प्रसन्नताका होना स्वाभाविक है; क्योंकि आजसे कोई अठारह वर्ष पहले मैंने अन्ध श्रद्धाकी नींदमें पड़े हुए जैन समाजको जगाने और उसमें विचारस्वातन्त्र्य तथा तुलनात्मक पद्धति से ग्रन्थों के अध्ययनको उत्तेजन देनेके लिये प्रन्थोंकी परीक्षाके उनके विषय में गहरी जाँचपूर्वक स्पष्ट घोषणा करने के - जिस भारी कामको प्रारम्भ किया था और जो कई साल तक जारी रहा वह आज कुछ विशेष रूपले फलित होता हुआ नज़र आता है । उस वक्त आम तौर पर विद्वानों तक इतना मनोबल और साहस नहीं था कि वे जैनको मुहर लगे हुए और जैन मन्दिरोंके शास्त्र भंडारोंमें विराजित किसी भी प्रन्थ के विरोध प्रकट रूपसे कोई शब्द कह सके। और तो क्या, मेरे परीक्षालेखों को पढ़कर और उन परसे यह जानकर भी कि ये प्रन्थ धूर्तों के रचे हुए, जालो तथा बनावटी हैं बहुतोंको उन पर अपनी स्पष्ट सम्मति देनेकी हिम्मत तक नहीं हुई - Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २ ] थी — यद्यपि उसे अच्छी जाँच-पड़ताल - पूर्वक देनेके लिये मैंने बारबार विद्वानों से निवेदन भी किया था । इसोसे तत्कालीन 'जैन हितैषी' पत्र के सम्पादक प्रसिद्ध विद्वान पं० नाथूरामजी प्रेमीने, कोई चार वर्ष बाद सितम्बर १९१७ में मेरे कुछ परीक्षालेखको पुस्तकाकार छपाते हुए, लिखा था कि " इन लेखोंने जैन समाजको एक नवीन युगका सन्देशा सुनाया है, और अन्धश्रद्धा के अन्धेरे में पड़े हुए लोगों को चक्रचौंधा देने वाले प्रकाशसे जागृत कर दिया है । यद्यपि वाह्य दृष्टि से अभी तक इन लेखों का कोई स्थूल प्रभाव व्यक्त नहीं हुआ है तो भी विद्वानोंके अन्तरंग में एक शब्दहीन हलचल बराबर हो रही है जो समय पर कोई अच्छा परिणाम लाये बिना नहीं रहेगी।" प्रेमीजीकी उक्त भविष्यबाणी क्रमशः सत्य होती जाती है । इस विषय में विद्वानोंका वह संकोच बराबर दूर हो रहा है और वे परीक्षाप्रधानता तथा स्पष्टवादिताको अपनाते जाते हैं । और इसीलिये आज संख्याबद्ध विद्वान तथा दूसरे प्रतिष्ठित सज्जन 'चर्चासागर' को लेकर ऐसे दूषित ग्रंथोंका विरोध करने के लिये मैदान में आगये हैं । यह सब उन परीक्षालेखोंसे होने वाली उस शब्दहीन हलचलका हो परिणाम है जिसे प्रेमीजीने उस वक्त अनुभव किया था । और इसोसे आज 'जैनजगत्' के सहसम्पादक महाशय अपने २३ नवम्बर के पत्र में लिख रहे हैं कि" ' चर्चासागर ' के सम्बन्धमें जैन समाजमें जो चर्चा चल रही है, उसमें प्रत्यक्षरूपसे यद्यपि आप भाग नहीं ले रहे हैं, किन्तु वास्तवमें इसका सारा श्रेय आपको है । यह सब आपके उस परिश्रमका फल हैं जो आजसे करोब १० -१२ वर्ष पहले से आप करते आ रहे है। जिस बात के कहनेके लिये उस समय आपको गालियां मिली थीं, वही आज स्थितिपालक दलके स्तम्भों द्वारा कही जा रही है !" Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३ ] जिन्होंने मेरो ग्रंथ-परीक्षाओं तथा दूसरी विवेचनात्मक पुस्तकोंको पहले से नहीं देखा था उन विद्वानों में से एक प्रसिद्ध न्यायतीर्थ जी हाल में ग्रंथ परीक्षा के तृतीय भाग (सोमसेन त्रिवर्णाचार की परीक्षा) और "विवाह क्षेत्र प्रकाश" को पढ़कर, अपने १६ नवम्बर के पत्र में लिखते हैं कि “आपकी इन पुस्तकों को पढ़कर बड़ा हो आनन्द आता है। यह सब पुस्तके विद्यार्थी जीवन में हो पढ़ लेना चाहिये थी, मगर दुःख का विषय है कि उन पांजरापोलों या काँजी हाउसों ( कानी भौतों) में विद्यार्थियों को ऐसे साहित्य का भान भी नहीं कराया जाताहै। मेरी प्रबल इच्छा है कि आपकी और प्रेमी जी की तमाम रचनायें पढ़जाऊँ । क्या आप नाम लिखने की कृपा करेगे ?..............."खेद है कि सामाजिक संस्थाओं में हम लोग इन ज्ञानव्यापक बनानेवाली पुस्तकों से बिलकुल अपरिचित रक्खे जाते है। इसी लिये विद्यार्थी ढब्बू निकलते हैं।" ___इसी तरह पर दूसरे विद्वान भी, चर्चा के इस वातावरण में, अपने लेखादिकों के द्वारा उन ग्रन्थ परोक्षाओं का अभिनन्दन कर रहे हैं, तथा आर्य-समाज के साथ के शास्त्रार्थों तक में कुछ जैन पंडितों को यह घोषित कर देना पड़ा है कि हम इन त्रिवर्णाचार जैसे ग्रन्थों को प्रमाण नहीं मानते हैं। कुछ विद्वानों ने तो जिनमें दो न्यायतीर्थ भी शामिल हैं-चर्चा सागर की भी साङ्गोपांग परीक्षा कर देने की मुझे प्रेरणा की है और यह सब उन परीक्षा लेखों की सफलता को लिये हुए भावी का एक अच्छा शुभलक्षण जान पड़ता है । अतः मेरे लिये एक प्रकार से आनन्द का ही विषय है, और मुझे मन्थपरीक्षा का जो राजमार्ग खुला है उसपर बहुतों को चलते Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४] तथा चलने के लिये उद्यत देखकर निःसन्देह प्रसन्नता होती है । परन्तु साथ ही यह देखकर आश्चर्य के साथ कुछ खेद भी होता है कि लोग इस चर्चा सागर के विरुद्ध जितना टूट कर पड़े हैं उसका शतांश भी वे उन त्रिवर्णाचार (धर्मरसिक) आदि प्रन्थों का विरोध नहीं कर रहे हैं जिनके आधार पर इस प्रन्थ में धर्म विरुद्ध तथा आपत्तिजनक विषयों को चर्चित किया गया और विधेय ठहराया गया है। क्या विषवृक्ष के मूल में कुठाराघात न करके उसे सींचते रहने और बनाये रखने पर यह आशा की जासकती है कि उसमें पत्र-पुष्पादि का प्रादु. र्भाव नहीं होगा ? कदापि नहीं। जबतक इन दृषित मूलग्रन्थों का अस्तित्व अक्षुण्ण बना रहेगा अथवा उनकी भूमि पर अन्ध श्रद्धा का वृक्ष लहलहाता रहेगा, तबतक ऐसे असंख्य चर्चासागर रूण पत्र पुष्पों की उत्पत्ति को कोई रोक नहीं सकता। इसमें वेचारे उन अन्धश्रद्धालुओं का विशेष अपराध भी क्या कहा जा सकता है जो उपलब्ध प्रन्थों पर से कुछ विषयों की चर्चाओं का संग्रह करते हैं, जब कि उन प्रन्थों के विषय में उनके भीतर यह रूह (स्पिरिट Spirit)फू की गई है कि वे सब जिनवाणी है और इसलिए उनपर संदेह करना अथवा उनके विरुद्ध विचार करना अधर्म तथा मिथ्यात्व है। यह सब अपराध ऐसी मिथ्या रूह (चेतना) फूकने वाले प्रस्थकर्ताओं तथा उनके प्रचारकों आदि का है, और कुछ उनका भी है जो यह जानते हुए भी कि ये प्रन्य विषमिश्रित हैं-धर्म-विरुद्ध कथनों से भरे हुए हैं, उनके विषय में चुप्पी साधे हुए हैं, उनसे जनता को सावधान करने की हिम्मत नहीं रखते हैं अथवा उन पर *विष ( Ponson) है" ऐसा लेबिल लगाने में प्रमाद करते हैं। क्या जो लोग यह जानते हुए भी कि अमुक सिक्का, अथवा Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५] नोट जाली है उसे चलने देते हैं वे दूसरों के उगाये जाने में मदद नहीं करते हैं ? ज़रूर करते हैं और इसलिये अपराधी हैं। यह ठीक है कि प्रन्थकार पं० चम्पालाल जी ने अनेक स्थानों पर अर्थ का अनर्थ किया है, चालाको से काम लिया है और कितनी ही विरुद्ध बातें अपनी तरफ से भी ऐसी जोड़ दी हैं जिनका कोई प्रमाण नहीं दिया गया, ऐसा अन्य पर से जान पड़ता है। परन्तु जो मुद्रित प्रन्थ हमारे सामने है वह अपने मूल रूप में नहीं किन्तु भाषा के परिवर्तनादि को लिये हुए है। हो सकता है कि इसमें उन भाषापरिवर्तक तथा सम्पादक महाशयों को भी कुछ लीला शामिल हो गई हो. जिन्हें अपना नाम देने तक में संकोच हुआ है, जिनके नाम पीछे से पत्रों में कुछ रहस्य के साथ प्रकट हो रहे हैं । और जिन्होंने अपने कर्तव्य के पालन में यहां तक उपेक्षा तथा आना. कानी की है कि पबलिक को इतनी भी सूचना नहीं दी कि इस प्रन्थ की भाषा परिवर्तित की गई है तथा इसके सब फटनोट उनकी अपनी कति है-ग्रन्थकर्ता की नहीं। और इसलिए उन्होंने पबलिक को एक प्रकार से धोखे में रक्खा है और यह सब उनके नैतिक बल की त्रुटि का अच्छा सूचक है तथा उनके विषय में काफी संदेह पैदा करता है। ऐसी हालत में जबतक ग्रंथ को हस्तलिखित कापी अपने __+ इसे ढूंढारी भाषा से हिन्दी में परिवर्तित करने वालों में 4. लालाराम जी का और इसके प्रधान संपादकों तथा प्रचारकों में उनके भाई पं. नन्दनलाल जी का नाम प्रकट हुआ है, जो उस समय ब. ज्ञानचन्द्र जी के रूप में थे और अब क्षुल्लक ज्ञानसागर जी के रूप मे मुनिसंघ में उपस्थित हैं। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६ ] असली (अपरिवर्तित ) रूप में सामने न हो अथवा उस पर से कोई निष्पक्ष विद्वान अपनी जाँच की रिपोर्ट प्रकट न करे तबतक पं० चम्पालाल जो पर किसी विषय का सीधा आरोप नहीं लगाया जा सकता है । हाँ, यदि यह मान लिया जाय और जाँच से साबित हो जाय - जिसकी अधिकाश में सम्भावना है - कि मात्र भाषापरिवर्तन के सिवाय ग्रन्थ में दूसरा कोई खास गोलमाल नहीं हुआ है - फुटनोट बेशक सम्पादकादिक के लगाये हुए हैं-तो पं० चम्पालाल जी ने जितने अन्शों में जानबूझ कर अर्थ का अनर्थादि किया है, कुछ विरुद्ध तथा अनर्थकारी बातों को योंही अपनी तरफ़ से जोड़ा हैं अथवा किसी कपायवश दूषित साहित्य को इस तरह पर प्रचार देने का यत्न किया है, उतने अन्शो में वे इस विषय के विशेष अपराधी ज़रूर हैं । और तब यह उनकी अक्षम्य धृष्टता है जो वे इस ग्रन्थ के सब कथनों को 'भगवान अरहन्त की भाज्ञानुसार' बतलाते हैं और इसे 'जिनवाणी' प्रतिपादित करते हैं। परन्तु यह सब कुछ होते हुए भी इतना तो स्पष्ट है कि 'चर्चासागर' नाम का जो मुद्रित ग्रंथ हमारे सामने है उसमें 'त्रिवर्णाचार' तथा 'धर्म रसिक' नाम से बहुत से धर्मविरुद्ध कथन पाये जाते हैं और वे सब 'सोमसेन त्रिवर्णाचार' में मौजूद हैं, जिसे 'धर्मरसिक' भी कहते हैं और जिसमें धर्मविरुद्ध कथन बहुत कुछ कूट कूट कर भरे हुए हैं, जिनका बहुत कुछ पता ग्रंथ की उस विस्तृत परीक्षा से सहज ही में चल सकता है जो ग्रन्थ परीक्षा के तृतीय भाग में २६६ पृष्ठों में दर्ज है। इसी तरह ' उमास्वामि श्रावकाचार' आदि दूसरे Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७ ] जाली तथा अर्द्ध जालो ग्रंथोंके प्रमाणोंका हाल है। इन मिथ्यात्वपोषक तथा अन्धश्रद्धाके गढ़रूप मूल ग्रंथोंका पूर्णतया विरोध न करके उनकी कुछ चर्चाओंको संग्रह करनेवाले ग्रंथका विरोध करना क्या अर्थ रखता है, यह मेरो कुछ समझ में नहीं आता। और इसी लिये एसे एकांगी विरोध को देखते हुए मुझे कुछ आश्चर्य होता है। _ 'सोमसन-त्रिवर्णाचार' के दो संस्करण हो चुके-एकमें वह मराठो टोकासहित प्रकाशित हुआ और दूसरेमें हिन्दी टीकासहित । जगह जगह मन्दिरोंमें उसको कापियाँ पाई जाती है और उसे भी दूसरे प्रथोक साथ नित्य अर्घ चढ़ाया जाता है । यह सब विप-वृक्षको सोचना और उसे बनाये रखना नहीं तो और क्या है ? ___ अतः चर्चासागरके विरोध लेखनी उठाने वालोंका यह पहला कर्तव्य होना चाहिये कि वे उन ग्रंथोंका खुला विरोध करे, जिनके आधार पर वस्तुतः धर्मविरुद्ध कथनों अथवा आपत्तिजनक विषयोंको ग्रन्थमै चर्चित और प्रतिपादित किया गया है। उनमेंस जिन ग्रंथोंको परीक्षाएं अभी तक नहीं हो पाई हैं * उनकी पूरी जाँच तथा सांगोपांग परोक्षाका भी ___* निम्नलिखित ग्रन्थोकी विस्तृत परीक्षाएँ लेखक-द्वारा हो चुकी हैं और उन्हें 'जैनग्रंथ-रत्नाकर-कार्यालय, हीराबाग, बम्बई' ने तीन भागोमं प्रकाशित किया है, जो सब पढ़ने तथा ऐसे दूषित साहित्यके विरोधर्म प्रचार करनेके योग्य हैं : १ उमास्वामी-श्रावकाचार, २ कुन्दकुन्द-श्रावकाचार, ३ जिनसेन-त्रिवर्णाचार, ४ भद्रबाहु-संहिता, ५ सोमसेन-त्रिवर्णाचार, ६ धर्मपरीक्षा (श्वेताम्बर )। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ८] अपनी शक्तिभर पूरा यत्न करना और कराना चाहिये, जिससे सर्वसाधारण उनके स्वरूपादिसे भले प्रकार परिचित हो सकें और उनके विषयमें जिनवाणीत्वको जो मिथ्या रूह उनके भीतर की हुई है वह निकल कर, उनकी श्रद्धाका सुधार हो सके। मेरा विचार "चर्चासागर" जैसे ग्रंथोंके सम्बन्धमे भी प्रायः वही है, जिसे मैं अपनी ग्रंथ-परीक्षाओं में आम तौर पर और "सोमसेन-त्रिवर्णाचार" को परोक्षाके अन्तमें खास तौर पर प्रकट कर चुका है। मैं ऐसे प्रन्थोंको जैनग्रन्थ नहीं, किन्तु जैनग्रन्थों के कलंक समझताहूँ। इनमें रत्नकरण्डश्रावकाचारादि जैसे कुछ आर्ष ग्रंथोंक वाक्योंका जो संग्रह किया गया है वह प्रन्थकर्ताओंको एक प्रकारकी चालाकी है, धोखा है, मुलम्मा है अथवा विरुद्ध कथनरूपी जाली सिक्कों को चलाने आदिका एक साधन है । उन्होंने उनके सहारेसे अथवा उनकी ओटमें उन मुसलमानोंकी तरह अपना उल्लू सीधा करना चाहा है, जिन्होंने भारत पर आक्रमण करते समय गौओंके एक समूहको अपनी सेनाके आगे कर दिया था। और जिस प्रकार गोहत्याके भयसे हिन्दुओंने उन पर आक्रमण नहीं किया था उसी प्रकार शायद आर्षवाक्योंकी अवहेलनाका कुछ ख़याल करके उन जैन विद्वानोंने, जिनके परिचयमें ऐसे ग्रन्थ अब तक आते रहे हैं, उनका जैसा चाहिये वैसा विरोध नहीं किया है । परन्तु आर्ष वाक्य और आर्ष वाक्यों के अनुकूल कहे गये दूसरे प्रतिष्ठित विद्वानोंके वाक्य अपने अपने स्थान पर माननीय तथा पूजनीय हैं, धूर्त लोगोंने उन्हें जैनधर्म, जैनसिद्धान्त, जैननीति तथा जैन-शिष्टाचार आदिसे विरोध रखने वाले और जैनआदर्शसे गिरे हुए कथनों Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [९] के साथ में गूथ कर अथवा मिला कर उनका दुरुपयोग किया है, और इस तरह पर ऐसे समूचे ग्रन्थों को विषमिश्रित भोजन के समान बना दिया है, जो त्याग किये जाने के योग्य होता है। विषमिश्रित भोजन का विरोध जिस प्रकार भोजन का विरोध नहीं कहलाता उसी तरह पर ऐसे प्रन्यों के विरोध को भी पापंचाक्यों अथवा जैन शास्त्रों का विरोध या उनकी कोई अवहेलना नहीं कहा जा सकता । अतः विद्वानों तथा दूसरे विवेकी जनों को ऐसे प्रन्थों के विरुद्ध अपना विचार प्रकट करने में ज़रा भी संकोच न होना चाहिये; संकोच से उन्हें ऐसे प्रन्थों द्वारा होने वाले अनर्थ का भागी होना पड़ेगा । अस्तु । अब मैं पाठकों तथा समाज का ध्यान एक दुसरी ओर आकर्षित करना चाहता हूं और वह है " चर्चासागर का बड़ा भाई"। मुनि शान्तिसागर जी के संघ की असीम कृपा से जहां हमे 'चर्वासागर' जैसे प्रथरत्न की प्राप्ति हुई है वहां प्रसाद रूप में एक दूसरा अपूर्व ग्रंथ और भी मिला है, जिसका नाम है 'सूर्य प्रकाश'। दोनों का उद्गम स्थान एक ही संघ और दोनों के निर्माण तथा प्रकाशनादि में एक ही मुख्य स्पिरिट ( मनोवृत्ति ) अथवा उद्देश्य के होने से इन्हें भाई भाई कहना तो सार्थक है ही, परन्तु 'सूर्य प्रकाश' को चर्चासागर का बड़ा भाई कहना तो और भी सकारण है। क्योंकि (१) एक तो यह (सूर्य प्रकाश ) चर्चासागर से कोई डेढ़ वर्ष बड़ा है इसका जन्म जब विक्रम सम्वत् १९०९ के श्रावण मास में हुआ है तब चर्चासागर ने वि० सं० १९१० के माघ मास में अवतार लिया है। यहाँ पर किसी को यह आशंका नहीं करनी चाहिये कि Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०] चर्चासागर में तो उसका निर्माणकाल वि० सं० १८१० दिया हुआ है । यह सब अपना नाम गुम रखने वाले यार लोगों को चालाकी है। उन्होंने प्रन्थको वृद्धता का कुछ मान देने के लिये उसकी आयु में एक दम १०० वर्ष को वृद्धि करदो है ! अन्यथा, ग्रंथ में संवत् जिन 'दिग हरि चन्द्र' शब्दों में दिया हुआ है उन का स्पष्ट अर्थ १९१० होता है; फुट नोट लगाने वालों ने दिग, हरि और चन्द्र पर क्रमशः नं. ६,७,८ डालकर फुटनोट में उनका अर्थ देते हुए 'दिशाएं दश हैं', 'चन्द्र एक को कहते हैं', इतना तो लिखा है परन्तु हरिनारायण ८ होते हैं या ९ऐसा कछ लिखा नहीं-'हरि' शब्द का अर्थ बिलकुल हो छोड़ दिया है, और वैसे ही गोलमाल करते हुए लिख दिया है कि "इन सब के मिलाने से तथा अङ्कानां वामो गतिः अर्थात् अङ्कों की गति बाई ओर को होती है इस न्याय से १८१० है। अर्थात् विक्रम सम्वत् १८१० में यह प्रन्थ बना।" यह चालाकी नहीं तो और क्या है ? ग्रंथ में तो २२९ वीं चर्चा के अन्तर्गत, पृ० ४५७ पर, भीष्म पन्थ की उत्पत्ति का वर्णन करते हुए, उसका स्पष्ट सम्बत् "अठारहसौ तेईस को साल" तक दिया हुआ है, तब यह ग्रंथ १८१० में कैसे बन सकता है, इसे पाठक स्वतः समझ सकते हैं। और 'सूर्य प्रकाश में तो इस विषय की चालाकी और भी बढ़ी चढ़ी है। उसमें अनुवादक-सम्पादक ७० ज्ञानचन्द्र जी महाराज ( वर्तमान क्षुल्लक ज्ञानसागर जी) ने निर्माणकाल विषयक श्लोक का अर्थ हो नहीं दिया, जब कि उसी प्रकार के बोसियों संख्यावाचक श्लोकों का प्रन्थ में अर्थ दिया गया है। ओर मज़ा यह है कि अर्थ न देने का कोई कारण भी नहीं बतलाया और न उसके छोड़ने की कोई सूचना ही को गई है ! Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ११ ] लाचार ग्रंथ प्रकाशक सेठ रावजी सखाराम दोशो से उनके भूमिकात्मक दो शब्दों में यह कहलाया गया है कि - " अन्तमें जो निर्माणकाल बताया है उसका अर्थ अस्पष्ट है । इसलिये पाठक उसको ध्यान से पढ़े और मनन करें ।" परन्तु अर्थ तो कुछ दिया ही नहीं गया जिसके विषयमें अस्पष्टताको प्रकाशक महाशय खुद कुछ कल्पना करते ! और श्लोकका पाठ कुछ अस्पष्ट है नहीं, वह तो अपने स्पष्ट रूपमें इस प्रकार है काभ्रनंदेंदु प्रमे हि चान्दे मित्राद्रि-शैलेन्दु-सुशाकयुक्ते ! मासे नभाख्ये शुभनंदघस्रे विरोचनस्यैव सुवारके हि ॥ और इस लोक परसे स्पष्ट जाना जाता है कि यह ग्रंथ 'वि० सं० १९०९ तथा शक सं० १७७४ के श्रावण मास में शुक्र rants for रविवारको' बनकर समाप्त हुआ है। अगले दो श्लोकोंमें, जिनका अर्थ निरंकुशता पूर्वक कुछ घटा बढ़ाकर दिया गया है, ग्रन्थके द्रोणीपुरके पार्श्वनाथ जिनालय में समाप्त होने की सूचना समय, नक्षत्र और योगके नामोल्लेखपूर्वक की गई है, साथ ही कुछ आशीर्वाद भी दिया गया है । इस सारी स्थिति परसे ऐसा मालूम होता है कि उक्त लोकका अर्थ न देनेमें अनुवादकादिकका यह ख़ास आशय रहा है कि सर्वसाधारण पर यह बात प्रकट न होने पाए कि ग्रन्थ इतना अधिक आधुनिक है-अर्थात् इस बीसवीं शताब्दीका ही बना हुआ है ! (२) दूसरे, छपकर प्रकाशित भी यह मंथ चर्चासागर * यह निरंकुशता अनुवादमें सर्वत्र पाई जाती है 1 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १२ ] से एक वर्ष एक महीना पहले हुआ है-यह अगस्त १९२९ में मुद्रित और प्रकाशित है तो वह सितम्बर १९३० में। (३) तीसरे, नाम-माहात्म्यको दृष्टिसे भी सूर्यप्रकाश बड़ा है जो सागरके भी ऊपर रहता है, अनेक सागरोंको प्रकाशित करता है और जिसके बिना सब कुछ अन्धकारमय है। (४) चौथे, इसकी मूल रचना गीर्वाणभाषा संस्कृतमें हुई है जो कि सब आर्यभाषाओं में बड़ी है, जब कि चर्चासागर आधुनिक हिन्दी भाषाका प्रन्थ है। उसमें संस्कृतादिके वाक्योंको इधर-उधरसे उधार लेकर रक्खा गया है। प्रकाशक महाशयने इसके कुछ अशुद्ध प्रयोगोंको प्रचलित संस्कृत व्याकरण तथा कोष-सम्मत न देख कर जो उसे 'अपभ्रंश' भाषाका प्रथ मान लेनेकी सलाह दी है, वह निरर्थक है,। जान पड़ता है वे अपभ्रंश भाषाके स्वरूपसे बिलकुल हो अनभिज्ञ हैं। अच्छा होता यदि वे उनके विषयमें आर्ष प्रयोगोंकी कल्पना कर डालते और इस तरह पर ग्रंथकारकी त्रुटियोको महत्वका (५) पाँचवे, 'सूर्यप्रकाश' पर आचार्य शांतिसागरजीकी प्रशंसाकी मुहर लगी हुई है, जिससे प्रेरित होकर ही द्रव्यदाताओंने (गांधी नेमचन्द मियाचन्द आदि तीन भाइयोने) उसके उद्धारके लिये धन खर्च किया है; जब कि 'चर्चासागर' पर वैसी कोई मुहर नहीं है। हाँ बाद को “जैनजगत्" में प्रकाशित सेठ गंभीरमल जी पांड्याके वक्तन्यसे मालूम हुआ कि उनसे उसकी प्रशंसा करने वाले और उसे 'महान् उपयोगी' बतलाने वाले ब्र० ज्ञानचन्द्रजी तथा क्षुल्लक चन्द्रसागरजी थे । उन्होंकी प्रेरणा तथा उपदेशसे उन्होंने उसके प्रकाशनार्थ द्रव्य दान किया था, और ये दोनों ही शांतिसागरजीके शिष्य हैं । अतः शिष्य-प्रशंसितको अपेक्षा गुरु-प्रशंसितको स्वभावतः ही Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १३ ] बड़प्पन की प्राप्ति है। शायद इसीसे उक्त ब्र० ज्ञानचन्द्रजीने, जो प्रन्थके अनुवादक भी हैं, सम्पादकके तौर पर ग्रंथ पर अपना नाम देना गौरव की वस्तु समझा है ! जबकि 'चर्चासागर' का संपादन करने पर भी उन्हें उसपर अपना नाम किसी रूप में भी देने में संकोच हुआ है !! (६) छठे, 'चर्चासागर' की कोई कीमत नहीं है, वह यों हो मुफ्त बॅटता फिरता है । जबकि 'सूर्यप्रकाश' पर सेठोद्वारा द्रव्यकी सहायता प्राप्त होने पर भी २)रु० कीमत दर्ज है और इसलिये दो रुपये उसकी भेंट करने पड़ते हैं, जो संभवतः उसकी बड़ाईका हो चिन्ह है! (७) सातधे, 'सूर्यप्रकाश' में सबसे अधिक बड़प्पनको बात यह है कि वह 'चर्चासागर' की अपेक्षा अधिक तथा गहरे प्रपंचको लिये हुए है। उसमें सबकुछ अपना इष्ट जैसे तैसे भविष्य वर्णनके रूप में भगवान महावीरके मुखसे कहलाया गया है-श्वेताम्बरों, हूँढियों, तेरह पंथियों और सुधारकों आदि को भरपेट गालियाँ भी उन्हीं के श्रीमुखसे दिलाई हैं ! और इसलिये वह सोलहों आने जिनवाणी है ! ग्बुद प्रन्थकारने उसका विशेषण भी 'जिनवक्त्रज' अर्थात् जिनमुखोत्पन्न दिया है ! जबकि 'चर्चासागर' के विधाताने इधर उधरकी नई पुरानी चर्चाएँ करते हुए जो कुछ बुरा भला कहा है वह सब अपने शब्दों में कहा है और उसके प्रमाणमें यथासंभव दूसरे प्रन्थोंके वाक्योंको उद्धृत किया है जो जैनाचार्यो, भट्टारकों, जैनपंडितों तथा धूतौ और अजैन विद्वानों तकके बनाये हुए हैं। इसीलिये चर्चासागरको पूरे तौर पर जिनवाणीका दर्जा प्राप्त नहीं है। ____ इस तरह पर 'सूर्यप्रकाश' को मैंने चिसागरका बड़ा भाई निश्चित किया है। इसका दर्शन-सौभाग्य मुझे हालमें Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४] हो प्राप्त हुआ है । बम्बई से सुहृद्वर पंडित नाथूरामजी प्रेमी ने इसे रजिस्ट्री करा कर मेरे पास भेज दिया है और साथ ही यह अनुरोध किया है कि मैं इसकी परीक्षा-पूर्वक कुछ विशेष आलोचना करदूँ, जिससे इसके द्वारा जो अनर्थ फैलाया जा रहा है वह रोका जा सके । आते हो दो तोन दिन के भीतर मैंने इस ४१२ पृष्ठक सानुवाद मोटे प्रन्थपर सरसरी तौर पर एक नज़र डाली और उस परसे यह ग्रन्थ मुझे बहुत कुछ निःसार, अनुदार, प्रपञ्ची तथा असंबद्धप्रलापी जान पड़ा। साथही, यह भीजानपड़ा कि अनुवादक महाशयने इच्छानुकूल उलटा-सीधा तथा प्रपञ्चमय अर्थ कर ग्रन्थके इन गुणोंको और भी बढ़ा दिया है और उसके विषयमें 'एकतो करेला दुसरे नीमचढ़ा' की कहावत को चरितार्थ किया है ! और इसलिये मैंने इस ग्रंथकी विशेष आलोचनाका निश्चय किया। __ यह 'सूर्यप्रकाश' पं० नेमिचन्द्रका बनाया हुआ है। प्रन्थके अन्तमें उनकी एक प्रशस्ति भी लगी हुई है, जिससे मालूम होता है कि चम्पावतीपुरमें स्वर्णकोर्ति नामके कोई सूरि (भट्टारक) थे, उनके शिष्य राजमल, राजमल्ल के शिष्य ततेचन्द्र, फतेचन्द्र के शिष्य वृन्दावन, वृन्दावनके शिष्य सोता. राम और सीतारामके शिष्य शिवजीराम हुए, जो पहले कुछ वर्ष चम्पावतीपुरमें रहे, फिर तक्षपुरमें रहने लगे और अन्तको यहाँसे भी चलकर द्रोणो (दूनी) पुरमें आ बसे । उन्हीं पं० शिवजीरामके ग्रन्थकार महाशय शिष्य थे। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १५ ] ये सब शिष्य-प्रशिष्यजन और पं० चम्पालाल जी प्रायः उसी समय की पौध हैं जबकि भट्टारकोय लीलाओं के विरोध रूप दिगम्बर तेरहपंथ अच्छी तरह से उत्पन्न हो चुका था, अपना विस्तार कर रहा था और भट्टारकानुयायिओं तथा तेरहपंथियों में द्वन्द्व युद्ध चल रहा था। चर्चासागर और सूर्य प्रकाश दोनों उसी समय की स्पिरिट ( मनोवृत्ति) को लिये हुए हैं और उसी युद्ध का परिणाम हैं। उस वक्त इस प्रकार का कितना ही साहित्य निर्माण हुआ जान पड़ता है, परन्तु तेरहपंथी विद्वानों के प्रबल युक्तिवाद और प्रभाव के सामने उस का अधिक प्रचार नहीं हो सका था। किन्तु दुःख तथा खेद का विषय है कि आज कुछ पंडित लोग, सभवतः अपने पूर्व जन्मों के संस्कारक्श, उसी मिथ्यात्वपोषक भ्रष्ट साहित्य को प्रचार देने के लिये उतारू हुए हैं और इस के लिये उन्होंने नग्न भट्टारकीय मार्ग का नया अवलम्बन लिया है, क्योंकि पुराने सवस्त्र भट्टारकीय मार्ग को असफलता का उन्हें अनुभव हो चुका है । अन्यथा, सोमसेन-त्रिवर्णाचार जैसे प्रन्थों पर अटल विश्वास रखने के कारण वे अन्तरंग में मुनियों के सर्वथा नग्न रहने के पक्षपाती नहीं हो सकते । मुनि वस्त्र भो रक्खें और नग्न भी कहलाएं, इसीलिये तो भट्टारक सोमसेन जी ने, जो अपने को 'मुनि' तथा 'मुनीन्द्र' तक लिखते हैं, नग्न की विचित्र परि. भाषा कर डाली है। और अपने त्रिवर्णाचार के तृतीय अध्याय की निम्न पक्तियों में दस प्रकार के नग्न बतला दिये हैं : अपवित्रपटो नग्नो नग्नश्चाई पटः स्मृतः । नग्नश्च मलिनोद्वासी नग्नः कोपोनवानपि ॥२१॥ कषाय वाससा नग्नो नग्नश्चानुत्तरीयमान् । अन्तः कच्छोवहिः कच्छोमुक्तकच्छस्तथैवच ॥२२॥ साक्षानमः स विशेयो दश ननाः प्रकीर्तिताः। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १६ ] अर्थात्- जो लोग अपवित्र वस्त्र पहने हुए हों, आधा वस्त्र पहने हों, मैले कुवैले वस्त्र पहने हुए हों, लंगोटी लगाये हुए हों, भगवे वस्त्र पहने हुए हों, महज़ धोती पहने हुए हों, भीतर कच्छ लगाये हुए हों, बाहर कच्छ लगाये हुए हों, कच्छ बिलकुल न लगाये हुए हों ओर वस्त्र से बिलकुल रहित हो, उन सबको नग्न ठहराया है ! जब महात्मा गाँधीजी ने मुनियों को लंगोटी लगाने की बात कही थी तब इन त्रिवर्णाचारी पंडितों ने भो उसका विरोध किया था और उसे देखकर मुझे आश्चर्य हुआ था। मैं सोचता था कि दूसरे लोग नग्नता में बाधा आती हुई देख कर उसका विरोध करे सो तो ठोक, किन्तु ये त्रिवर्णाचारी पंडित किस आधार पर विरोध करने के लिये उद्यत हुए हैं, जबकि इनके मतानुसार - इनके मान्य आगम त्रिवर्णाचार के अनुसारलंगोटी तो लंगोटी पूरे वस्त्र पहनने पर भी नग्नता भंग नहीं होती । परन्तु उसी समय मैंने समझ लिया था कि यह सब इन लोगों की गहरी चाले हैं, ये योही अपने विचारों की बलि देकर इन मुनियों के पीछे नहीं लगे हैं, इनके हाथों नग्न भट्टारकीय मार्ग को प्रतिष्ठित कराके उसके द्वारा अपना गहरा उल्लू सीधा करना चाहते हैं, और वही हो रहा है । जनता प्रायः मूर्ख है, मुनियों के बाह्य रूप को देखकर उसपर लट्टू है और मुनि-मोह में पागल बनी हुई है। उसे सूझ नहीं पड़ता कि इन मुनियों में कितना ज्ञान है, कितना वैराग्य है- कितना अकषायभाव है और इनकी परिणति तथा प्रवृति कहाँ तक जैनागम के अनुकूल है ! और न उसे यही ख़बर है कि ये मुनि सामाजिक राग-द्वेषों में कितना भाग ले रहे है, और आचार्य होकर भी शान्ति सागर जी Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १७ ] इन क्षुल्लकादि वेषधारी पंडितोंके हाथकी कैसी कठपुतली बने हुए हैं ! इसीसे वह ठगाई जाती है, धोखा खा रही है और अपनी द्रव्यादि शक्तियोंका कितना ही दुरुपयोग कर रही है, जिसका एक ताज़ा उदाहरण सेठ गंभोरमलजी पाँख्याका पश्चाताप पूर्वक यह प्रकट करना है कि उन्होंने चर्चासागरके प्रकाशनार्थ द्रव्यकी सहायता देने में धोखा खाया है ! और यह सब जैन समाजके दुर्भाग्यकी बात है। ___अतः जिन लोगोंके हृदयमें धर्मकी कुछ चोट है और समाजका कुछ दर्द है उन्हें समय रहते शोघ्र सावधान हो जाना चाहिये और जनता को सचेत करते हुए इस नन्न भट्टा. रकीय पर्दे की ओटमें अनर्थों को बढ़ने देना नहीं चाहिये। साथ ही अपने धर्म, अपने साहित्य और अपने पूर्व महर्षियोंकी (प्राचीन आचार्योको) कोर्तिको रक्षाका और उसे विकृत तथा मलिन न होने देनेका पूरा ध्यान रखना चाहिये। यही इस समयका उनका ख़ास कर्तव्य है । और नहीं तो फिर यह देख कर अधिकाधिक पछताना ही पड़ेगा कि "पंडितैभ्रष्टचारित्रवठरेश्च तपोधनैः । शासनं जिनचन्द्रस्य निर्मलं मलिनीकृतम् ॥" 'भ्रष्टचारित्र पंडितों और घठर साधुओं ( मूर्ख तथा धूर्त मुनियों) ने, जिनेन्द्रचन्द्र के निर्मल शासनको-पवित्र जैनधर्मको-मलिन कर दिया है।" यही सब सोच-विचार कर समाज-हितकी दृष्टिसे मैं इस ग्रंथकी विशेष जाँच, आलोचना एवं परोक्षामें प्रवृत्त हुआ हूँ। इस कार्यके लिये मुझे ग्रंथकी पुरानी हस्तलिखित प्रतिकी भी आवश्यकता थी, जिसके लिये सूचना निकाली गई और कुछ पत्रव्यवहार भी किया गया; परन्तु खेद है कि किसी भी Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १८ ] भाईने उसके भेजने या भिजवाने की कपा नहीं की! सत्यकी जाँच, खोज, परीक्षा और निर्णय जैसे कार्यों में समाजके सहयोगकी यह हालत निःसन्देह शोचनीय है ! हाँ, एक मित्रके द्वारा मुझे इतना पता ज़रूर चला है कि जिस हस्तलिखित प्रति परसे यह प्रन्थ अनुवादित और सम्पादित होकर प्रकाशित हुआ है वह झालरापाटनके सरस्वती भवनकी प्रति है, और इसलिये मैंने उसकी प्राप्तिके वास्ते संठ विनोदीराम बालचन्द जीकी फ़र्मके मालिक सेठ नेमिचन्दजी बी० संठीको लिखा, जिसके उत्तरमें उन्होंने अपने ३० दिसम्बर सन् १९३१ के पत्र-द्वारा यह सूचित किया है कि “'सूर्यप्रकाश' को हस्तलिखित प्रति ७० ज्ञानसागर जी ले गये थे, तबसे वह यहां नहीं आई,"...."जिसके लिये लिखा पढ़ी चल रही है । सो हस्तलिखित प्रति यहाँ पर है नहीं; अगर होती तो आपको अवश्य भिजवा दी जाती"। - सूर्यप्रकाशको छपकर प्रकाशित हुए कई वर्ष हो चुके हैं, काम हो जाने के बाद इतने अर्से तक भी ज्ञानसागर जी जैसे क्षुल्लक व्यक्तियोंका उस प्रन्थप्रतिको वापिस न करना और अपने पास रोके रखना ज़रूर दालमें कुछ काला होनेके सन्देहको पुष्ट करता है। संभव है कि मूलमें भी उनके द्वारा कुछ गोलमाल किया गया हो। अस्तु: पुरानी हस्तलिखित प्रतिके अभावमें मुद्रित प्रति परसे ही ग्रन्थके विशेष आलोचनामय परीक्षा कार्यको प्रारम्भ किया जाता है। ग्रन्थ-नाम गन्थका नाम 'सूर्यप्रकाश' सामने आते ही और उसके पूर्वमें धर्म, कर्म, जैन, मिथ्यान्धकार या महावीर जैसा कोई विशेषणपद न देखकर आम तौर पर यह खयाल Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १९ ] होने लगता है कि इस प्रन्थमें सूर्य के प्रकाशका विवेचन होगा अथवा सूर्य क्या वस्तु है, उसका उदय-अस्त तथा गति स्थिति आदि किस प्रकार होती हैं और उनका क्या परिणाम निकलता है, इत्यादि ज्योतिःशास्त्र सम्बन्धी बातोंका वर्णन होगा । परन्तु यह सब कुछ भी नहीं है। प्रथमें भगवान महावीरके मुखसे भावी मनुष्योंके आचार-विचार, उनको प्रवृत्ति, कतिपय धर्मों के प्रादुर्भाव और कुछ घटनाओं आदिका वर्णन यद्वा. तद्वा भविष्य-कथनके रूपमें कराया गया है, और इसलिये ग्रंथ के विषयको देखते हुए ग्रन्थका यह नाम कुछ बड़ा ही विचित्र जान पड़ता है और उस परसे ग्रंथके यों ही कल्पित किये जाने की थोड़ी सी प्राथमिक सूचना मिलती है। साथ ही, यह भी मालूम होता है कि ग्रन्थकार कोई विशेष बुद्धिमान अथवा समझ-बूझका आदमो नहीं था। उसके कथनानुसार यह प्रन्थ प्रायः 'अनागतप्रकाश' नामक किसी ग्रंथके आधार पर रचा गया है-जो संभवतः ग्रंथकार महाशयकी कल्पनामें ही स्थित जान पड़ता है और इसलिये इसका नाम यदि 'भविष्य. प्रकाश' जैसा कुछ होता तो विषयके साथ भी उसका कुछ मेल मिल जाता, किन्तु ऐसा नहीं है । विषयके साथ नामका सामंजस्य स्थापित करनेको ग्रंथकारको कोई समझ ही नहीं पड़ी और इसीसे उसका यह नामकरण बहुत कुछ निरंकुशता तथा बेढंगेएनको लिये हुए जान पड़ता है । अस्तु । ग्रन्थका जालीपन चाब मैं सबसे पहले पाठकोंके सामने कुछ ऐसे प्रमाण उपस्थित करता हूँ जिनसे साफ तौर पर इस ग्रंथ का जालीपन पाया जाता है Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २० ] १ ग्रन्थावतारकी विचित्र कल्पना ! थके अन्तर्मे प्रन्धावतारको कथा देते हुए लिखा है कि- गिरनारपर्वतको गुहामें धरसेन नाम के एक योगीन्द्र रहते थे। उन्होंने यह सोचकर कि संपूर्ण अंगों तथा पूर्वोका ज्ञान लोप हो चुका है और बिना शास्त्र के लोग धर्म के मार्गको नहीं जान सकेंगे, जयधवल, महाघवल और विजयधवल नामके तीन शास्त्रोको रचना को, जिनको श्लोक संख्या क्रमशः ७० हज़ार, ४० हज़ार और ६० हजार हुई। रचनाके बाद उन्हें पत्रों (ताड़पत्रों) पर लिखा गया और ज्येष्ठ शुक्ला पंचमीके दिन चतुर्विधसंघ के साथ उनको पूजा की गई । इसके बाद धरसेनजी का स्वर्गवास हो गया और उनके शिष्य भूतबलि आदिक उन तीनों ग्रंथोंके पाठो हुए । उनके भी स्वर्गवास पर कालक्रमसे नेमिचन्द्र मुनीन्द्र (सिद्धान्त चक्रवर्ती ) उन तीनो प्रन्थोके पारगामी हुए और उन्होंने महाधवल ग्रंथके आधार पर तीन प्रन्थों की रचना की, जिनके नाम हैं ( १ ) अनागतप्रकाश (२) तत्वप्रकाश (३) धर्मप्रकाश । अनागतप्रकाशको 'सर्वक्रियादिकथक' तथा 'मतान्तरविघातक' लिखा है और इसी थके अनुसार 'सूर्यप्रकाश' नामका यह ग्रंथ रचा गया है, ऐसी प्रथकारने सूचना को है । और इस तरह पर महाधवल ग्रंथ तथा धरसेनाचार्य को इस ग्रंथका मूलाधार बतलाकर इसे महा प्रामाणिक प्रसिद्ध करने की चेष्टा की गई है। परन्तु यह सब कोरी कल्पना और जाल है-- वास्त विकता से इसका कोई सम्बन्ध नहीं है । क्योंकि प्रथम तो यह बात किसी भी प्रमाणसे सिद्ध नहीं है कि श्रीधरसेनाचार्यने जयधवलादि नामके तीन ग्रंथोंकी रचना की, उन्हें पत्रों पर Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २९ ] लिखाया और ज्येष्ठ शुक्ल पंचमीको उनकी प्रतिष्ठा कीउन्होंने खुद वस्तुतः ऐसा कोई ग्रंथ ही नहीं बनाया। दूसरे, जयधवलादि ये मूल ग्रन्थोंके नाम नहीं. किन्तु टीकाप्रन्थोंके नाम हैं। टीकाओका ही इतने लोक परिमाण विस्तार है और वे मूल ग्रंथोंसे बहुत कुछ बादकी -- शताब्दियों पोछेकी कृतियाँ है । जिसे यहाँ 'जयधवल' नाम दिया गया है वह वस्तुतः भूतबाल - पुष्पदन्ताचार्य्य-द्वारा महाकर्मप्रकृति प्राभृतसे उद्धृत 'षट्खण्डागम' ग्रंथ की वीरसेनाचार्यकृत 'धवला' नामकी टोका अथवा 'धवल' नामका भाष्य है-जिससे युक्त सिद्धान्त ग्रंथको 'धवल सिद्धान्त' कहते हैं-और उसकी रचना शक सम्वत् ७३८ ( वि० सम्वत् ८७३ ) में हुई है । ग्रन्थ मे अन्यत्र धरसेनयतीन्द्रेण रचिता धवलादयः " इस वाक्यके द्वारा प्रथमोल्लेखित प्रन्थका नाम 'धवल' दिया भी है। इसी तरह 'विजयधवल' जिसका नाम दिया गया है वह गुणधर आचार्य विरचित 'कषायप्राभृत' ग्रन्थको 'जयधवला' नाम की टीका अथवा 'जयधवल' नाम का भाग्य है, जिसके २० हजार श्लोक जितने आद्य अंशको वीरसेनने, और शेषको उनके शिष्य जिनसेनने शक सं० ७५९ (सं० ८९४ ) में रचा है । और ये सब बातें इन ग्रन्थों परसे ही जानी जाती हैं । ये दोनों प्रन्थ मूडबिद्री* को कालकोठरीसे निकल कर उत्तर भारत में भी आगये हैं और इसलिये इनके विषयमें अब कोई ग़लतफ़हमी नहीं फैलाई जा सकती। इन्द्रनन्दिके 'श्रुतावतार' से भी इन * 'सूर्यप्रकाश' में इन ग्रंथोंके अस्तित्व स्थान इस नगरको 'जैनपुर' नामसे उल्लेखित किया है और अनुवादकने उसका अर्थ 'मूडबिद्री' ही दिया है । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २२ ] बातोंका समर्थन होता है और उसमें यह भी लिखा है कि सबसे पहले भूतबलि आचार्यने 'पट्खण्डागम' को पुस्तकारूढ़ ( लिपिबद्ध ) कराकर ज्येष्ठ शुक्ला पंचमीको उसकी पूजा-प्रतिष्ठा की थी- धरसेनाचार्य का इस पूजा-प्रतिष्टादिसे कोई सम्बन्ध नहीं है। रही 'महाधवल' ग्रंथको बात, वह भी धरसेनाचार्यको कोई कृति नहीं है, किन्तु षट्खण्डागम के 'महाबन्ध' नामक छठे खण्डका या अधिक स्पष्ट रूपमें कहा जाय तो महाबन्ध के संक्षेपभूत 'सत्कर्म' नामक ग्रन्थ का कोई भाष्य है, जो 'महाधवल' नाम से प्रसिद्धिको प्राप्त हुआ है । उक्त श्रुतावतार में इस नामसे उसका कोई उल्लेख नहीं है और मूडबिद्रीके पं० लोकनाथजी शास्त्रोने हालमें उसका जो परिचय ३१ दिसम्बर सन् १९३१ के जैनमित्र अङ्क नं० ७ में प्रकाशित कराया है उससे भी इस नामकी कोई स्पष्ट उपलब्धि नहीं होती । । हाँ, ब्रह्म हेमचन्द्र के 'श्रुतस्कंध' से इस ४० हजारको संख्या वाले ग्रंथ का नाम 'महाबन्ध' जरूर जान पड़ता हैसत्तरिसहस्सधवलो जयधवलो सट्ठिसहसबोधव्वो । महबंधो चालीसह सिद्धततयं श्रहं वंदे ॥ ८८ ॥ और शास्त्री जीके उक्त परिचयसे भी यह ग्रंथ साफ़ तौर पर बन्ध विषयक मालूम होता है; क्योंकि इसमें प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश ऐसे चार प्रकारके बन्धोंका ही - + इस विषय में विशेषरूपसे दर्यागत करने पर और यह पूछने पर कि ग्रन्थ साहित्य के किस अंशपरमे उन्हें इस नामकी उपलब्धि हुई है, शास्त्रीजी अपने १७ जुलाई सन् १९३२ के पत्रमें लिखते हैं“उक्त सिद्धांत ग्रन्थके किसी अध्यायके अन्तमें 'महाधवल' नाम नहीं लिखा गया किन्तु केवल ग्रन्थारंभके प्रथम पृष्ठ में 'महाधवल' ऐसा नाम है । अतएव (उस ग्रंथके इस नाम सम्बन्धी) विषयमें मुझे भी संदेह है"। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २३ ] चार अध्यायों में विस्तारके साथ वर्णन किया है । साथ ही, यह भी मालूम होता है कि कोई विवरण ( भाष्य ) ग्रन्थ है-इसमें पंचिका रूपसे मूल 'सत्कर्म' विषयका विवरण दिया है, जैसाकि इस प्रन्थके निम्न प्रतिज्ञावाक्यसे प्रकट है: वुच्छामि सत्तकम्मे पंचियरूवेण विवरणं सुमहत्थं ॥ और इसलिये महाधवलको महाबन्धके संक्षेपभूत उस 'सत्कर्म'* प्रन्थका भाष्य समझना चाहिये जो कि 'श्रुतावतार' ____ * पं० लोकनाथ जी शास्त्रीने अपने ग्रन्थ-परिचयमे भाष्यके उक्त प्रतिज्ञावाक्यमे प्रयुक्त हुए 'सत्तकम्मे' पदके 'सत्त' शब्दका अर्थ 'सप्त' दिया है, जो ठीक मालूम नहीं होता; क्योंकि इन्द्रनन्दि-श्रुतावतारके "सत्कर्मनामधेय षष्ठ स्खण्डं विधाय संक्षिप्य" इस वाक्यसे यह स्पष्ट जाना जाता है कि छठे खण्डके संक्षेपभूत ग्रंथका नाम 'सत्कर्म' है और वही 'सत्तकम्मे' पदके द्वारा यहाँ विवक्षित है। प्राकृत भाषामे 'सत्त' शब्द केवल 'सप्त' के अर्थमे ही प्रयुक्त नहीं होता किन्तु सत्य (सत् ), शक्त, शत, सक्त, सत्र, गत और सत्व अर्थों मे भी प्रयुक्त होता है ( देखो, प्राकृत-शब्द-महार्णव पृष्ठ १०७६ )। और इसलिये श्रुतावतारके उक्त वाक्यको ध्यान रखते हुए यहां पर उसका सत्य अर्थात् सत् अर्थ ही ठीक जान पड़ता है और उससे मूल ग्रंथका नाम बिलकुल स्पष्ट होजाता है । भाष्य लिखनेकी प्रतिज्ञाके अवसरपर उस ग्रंथका नाम दिया जाना बहुत कुछ स्वाभाविक है, जिसपर भाष्य लिखा जाता है। ___यहां पर यह प्रकट कर देना भी उचित मालूम होता है कि बादको उक्त शास्त्रीजीने भी इसे मान लिया है। वे १७ जूलाई सन् १९३२ के पत्रमें, अपनी भूल स्वीकार करते हुए, लिखते हैं"मंगलाचरणमे प्रयुक्त 'सत्तकम्मे' इस पदका 'सप्तविधकर्म' ऐसा, अर्थ ठीक नहीं है, जो आपने श्रुतावतार के अनुसार 'सत्कर्म किया सो ही ठीक मालूम पड़ता है। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २४ ] परसे वीरसेन आचार्यकी कृति जाना जाता है । और इससे तीसरी बात यह फलित होती है कि 'महाधवल' प्रन्थका विषय इस 'सूर्यप्रकाश' प्रन्थ के विषयसे एकदम भिन्न है और इसलिये यह ग्रंथ जिस 'अनागतप्रकाश ग्रंथके आधार पर बतलाया जाता है उसके उद्धारका सम्बन्ध महाधवलके साथ नहीं जोड़ा जा सकता । चौथे, नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीने 'अनागतप्रकाश' आदि नामके तीन ग्रन्थ बनाये हैं, इसकी भी अन्य कहींसे कुछ उपलब्धि और सिद्धि नहीं होती। उनके बनाये हुए तीन प्रसिद्ध प्रन्थ हैं, जो प्रायः सर्वत्र पाये जाते हैं और वे हैं गोम्मटसार, त्रिलोकसार और लब्धिसार - जिसमें क्षपणासार भी शामिल है। 'बाहुबलि चरित' में भी नेमिचन्द्र के नामके साथ इन्हीं तीनों प्रन्थोंका उल्लेख पाया जाता है और लिखा है कि वे सिद्धान्तसागरको मथकर प्राप्त किये गये हैं, जिससे धवलादि सिद्धान्तप्रन्थों परसे उन्होंके उद्धृत किये जानेको स्पष्ट सूचना मिलती है— दूसरों की नहीं । यथा: सिद्धान्तामृतसागरं स्वमतिमन्थक्ष्माभृदालोड्यमध्ये, aise फलप्रदानपि सदा देशी गणाग्रेसरः । श्रीमद्गोम्मटलब्धिसारविलसत् त्रैलोक्यसारामरदमाज श्री सुरधेना चिन्तितमणीन् श्रीनेमिचन्द्रो मुनिः ॥ सूर्यप्रकाशके विधाताने नेमिचन्द्राचार्यकी कृतिरूपसे इन प्रन्थोंका नाम तक भी नहीं दिया ! इनके स्थान पर दूसरे ही तीन नवीन ग्रंथोंकी कल्पना कर डाली है, जिनका कहीं कुछ पता तक भी नहीं है !! हां, अनुवादक महाशयको कुछ ख़याल आया और उसने अपनी तरफ़से लिख दिया है कि आपके " प्राकृतके ग्रंथ- गोम्मटसारादि प्रसिद्ध हैं" । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२५] इस प्रकार यह जयधवलादि प्रन्थों का ऐतिहासिक परिचय है और इससे स्पष्ट है कि प्रन्थकार ने इनके नाम पर कितना जाल रचा है । मालूम होता है उसने कभी इन प्रन्थों को देखा तक भो नहीं, योंही इधर उधर से इनके महत्वादिकी कुछ कथा सुन कर और यह जान कर कि वे दूर से ही पूजाअर्चा के पात्र बने हुए मूडबिद्री की एक काल-कोठरी में बन्द हैं, किसी को प्राप्य नहीं है, न सर्वसाधारण की उन तक गति है और इसलिये उनके पवित्र नामाश्रय पर जो भी प्रपञ्च रचा जायगा वह सहज ही में किसी को मालूम नहीं हो सकेगा,उस ने यह सब कुछ खेल खेला है और इस तरह पर अपनी मनमानी बातोको प्राचीन ग्रन्थों तथा प्राचीन आचार्यों के नाम पर जनता के गले उतारने का जघन्य प्रयत्न किया है । प्रन्यकार पं० नेमिचन्द्र का यह प्रयत्न उस प्रपञ्च से भी एक तरह पर कुछ बढ़ा चढ़ा है जो जिनसेन-त्रिवर्णाचार के कर्ता ने 'यथोक्त जयधवले', 'तत्राह महाधवले', 'अथ धवलेऽप्युक्त। जैसे वाक्यों के साथ हिन्दू ऋषियों के स्रो-संभोगादि संबंधी कुछ जैनवाह्य वाक्यों को हिन्दू-ग्रन्थों से उद्धृत कर उन्हें जय. धवलादि ग्रंथों के नाम से जैन समाज में प्रचलित करने का किया था ® । उसका वह प्रपञ्च तो इन सिद्धान्त प्रन्थों के सम्बन्ध में कुछ थोड़े से वाक्यों तक ही सीमित था, परन्तु इस ग्रंथकार ने तो प्रायः समूचे ग्रंथ को महाधवल की गर्दन पर लाद कर चलाने का प्रभारी प्रपञ्च रचा है ! इस जालसाजी तथा धूर्तता का A 'ठिकाना है !! मालूम होता है, ग्रंथकार महाशय को अपनी इस प्रपंची रचना पर, उसे अमोध समझते हुए बहुत कुछ गर्ष दुआ है और इसलिये उसने प्रन्थावतार के अन्त में यही क लिख दिया है कि "जो कोई * देखो "ग्रंथ परीक्षा प्रवराग ८३ से ४५ तक । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २६ ] मनुष्य कुमार्ग पोषक (सुधारक आदि ?) होंगे वे इस प्रन्थ के सुनने मात्र से मंत्र-कीलित नागों की तरह मुकवत् स्थिर हो जायंगे-उन्हें इसके विरुद्ध बोल तक नहीं आएगा" - अस्य श्रवणमात्रेण कुपथपोषका नराः । मूकवत् येऽत्र स्थास्यति यथा नागाश्च कीलिताः ॥ परन्तु बेचारे पण्डितजी को यह खबर नहीं थी कि जयधवलादिक ग्रंथ सदा के लिये कालकोठरी में बन्द नहीं रहेंगे, काललब्धिको पाकर एक न एक दिन उनके बंधन भी खुलेंगे, वे कनड़ी लिपिसे देवनागरी लिपिमें भी लिखे जायंगे और विद्वानों के परिचय में भी आएंगे। और न यही खबर थी कि उसके इस समग्र मायाजालका भंडाफोड़ करनेवाले नथा इस ग्रंथके विरुद्ध साधिकार बोलने वाले परीक्षक भी पैदा होंगे और उन पर कोई माया मंत्र न चल सकेगा। यदि खबर होती तो वह ऐसी गर्वोक्ति का साहस कर व्यर्थ हो हास्यास्पद बनने की चेष्टा न करता। यहां पर मुझे इतना और भी कह देना चाहिये कि आज भी जो लोग कषाय तथा अज्ञानवश इन प्रन्यों को छिपा कर रखते हैं और किसी जिज्ञासु विद्वान् को भी पढ़ने के लिये नहीं देते वे इन प्रन्थों के नाम पर ऐसे प्रपंचों तथा जाली प्रन्थों के रचे जाने में सहायक होते हैं । अतः मूडबिद्री और सहारनपुर जैसे स्थानों के भाइयों को इस विषय में अपने कर्तव्य को खास तौर पर समझ लेना चाहिये, और साथ ही यह जान लेना चाहिये कि उनका ऐसा व्यवहार जिनवाणी माता के प्रति घोर अत्याचार है तथा दूसरों की ज्ञान सम्प्राप्ति में बाधक होना अपने अशुभ कर्मों के प्रास्त्रवबन्ध का कारण है। २. भगवान महावीर के सिर विरुद्ध कथन । प्रन्थ में मंगलाचरणादि के अनन्तर भगवान् Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २७ ] महावीर के समवसरण में राजा श्रेणिक के पहुंचने का और भगवान् से पञ्चमकालभावी प्राणियों के सम्बन्ध में एक प्रश्न "पञ्चमे कीदृशा भूता: का चेष्टा कीदृशो क्रिया। भविष्यन्ति कथं ते हि" इत्यादि रूप से पूछने का उल्लेख करते हुए प्रश्न के उत्तर रूप प्रथके विषय का प्रारंभ किया गया है। भगवान ने “श्रुणुत्वं भावि तीर्थश वर्णनं पंच मस्य वै (७८)" इत्यादि रूप से उत्तर देते हुए और कुछ भविष्य का वर्णन करते हुए कहा है सहस्रार्धेषु वर्षेषु नाशो धर्मस्य वा पुनः । भविष्यन्ति पुनर्धर्ममार्गजैनप्रभावकाः ॥१५३॥ भद्रयाहुस्तथा भूप जिनसेन ऋषीश्वरः । समन्तभद्रयोगीन्द्रो बौद्धमातंगसिंहभः॥१५४॥ इत्याद्या वरयोगीन्द्रा वर्तयिष्यन्ति निश्चयात् । दिशावासधरा: पूज्यादेवमानववृन्दतः ॥१५५॥ पश्चादमुनिजायाप्रमाब्दे मगधेश्वर । कुन्दकुन्दाभिधो मौनी भविष्यति सुरार्चितः ॥१५६॥ ___ इस भविष्य वर्णन में बतलाया है कि पाँचसौ वर्ष में धर्म का नाश हो जायगा, फिर जैनधर्म को पुनः प्रभावना-प्रतिष्ठा करने वाले भद्रबाहु, जिनसेन और समन्तभद्र आदि उत्तम योगीन्द्र होंगे। बाद को कुछ वर्ष बीतने पर-जिन की संख्या 'जाया' शब्द का प्रयोग संदिग्ध होने से ७० ऊपर कुछ शतक जान पड़ती है-कुन्दकुन्द नाम के मुनि होंगे। यह वर्णन आपत्ति के योग्य है; क्योंकि भगवान महावीर से पाँचसौ वर्ष के भीतर जैनधर्म का नाश अथवा लोप नहीं हुआ, ५०० वर्ष की समाप्ति पर भी जैनधर्म तब आज से कहीं बहुत अधिक अच्छे ढंग से प्रचलित था । उस वक्त उस के अनुयायियों में ग्यारह अङ्गादिक के पाठी तक भी मौजूद थे, जिनका आज शताब्दियों से अभाव है। दूसरे, कुन्दकुन्द का Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २८ ] अवतार समन्तभद्र के ही नहीं, किन्तु जिनसेन के भो बाद (पश्चात् ) बतलाना ऐतिहासिक तथ्य के विरुद्ध है। जिनसेन कुन्दकुन्द से कई शताब्दियों बाद विक्रम की ९ वीं शताब्दी में हुए हैं-उन्हों ने 'जयधवल' भाष्य को शक सं० ७५९ (वि० सं०८९४ ) में बना कर समाप्त किया है, जबकि कुन्दकुन्द शक संवत् ३८८ स भी बहुत पहिले हो चुके हैं। क्योंकि इस संवत् में लिखे हुए मर्करा ताम्रप्लेट में उनका नामोल्लेख ही नहीं किन्तु उनके वंश में होने वाले गुणचन्द्रादि दूसरे कई आचार्यों तक के नाम भी दिये हुए है* | और समन्तभद्र का कुन्दकुन्द से पीछ होना तो श्रवणबेलगोल के कई शिलालेखों (नं. ४०/६४ आदि ) से प्रकट है। याप श्लोक नं० १५६ के शुरू में प्रयुक्त हुआ 'पश्चात् शब्द अपने प्रयोगमाहात्म्य से साफ़ तौर पर पूर्वोल्लिखित भद्रबाहु, जिनसेन ओर समन्तभद्र के पश्चात् कुन्दकुन्द के होने को सूचित करता है, परन्तु अनुवादक महाशय ने उसके पहले "हमारे" अर्थवाचक शब्द को यों ही ऊपर से कल्पना की है और 'जाया' शब्द को चार की संख्या का वाचक बतलाकर (1) लिख दिया है कि-"हमारे (वीर निर्वाण संवत् से) चार सौ सत्तर वर्ष के बाद देवों से पूजित कुन्दकुन्द नाम के यतीश्वर होंगे"-अर्थात् वि० संवत् १ में कुन्दकुन्द का होना बतला दिया है ! इस अर्थ को यदि किसी तरह पर ठोक मान लिया जाय तो उस से और कई आपत्तियां खड़ी होती हैं और विरोध आते हैं (क) एक तो. आगे कुन्दकुन्द का वर्णन करते हुए जो उनके समय में धरसेनाचार्य कत धवलादि ग्रंथों का अस्तित्व * देखो, 'एपिग्राफिका कर्णाटिका' जिल्द पहली अथवा 'स्वामी समन्तभद्' इतिहास पृ. १६६ । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २९ ] बतलाया गया है | वह नहीं बन सकता; क्योंकि वीर निर्वाण संवत् ४७० से पहले न तो धरसेन ही हुए हैं और नं उन मूल सिद्धांत ग्रंथों की रचना हो हुई थी जिन पर धवलादि भाष्य रचे गये हैं । इन सब का प्रादुर्भाव धवलादि प्रन्थों के अनुसार उस समय के बाद हुआ है जबकि एक भी अङ्गका कोई पूरा पाठी नहीं रहा था और यह समय पूर्वोल्लिखित श्रुतावतार तथा श्रुतस्कन्ध के हो नहीं, किन्तु त्रैलोक्यप्रशति, और जिनसेन कृत हरिवंश पुराणादि जैसे प्राचीन ग्रंथों के भो अनुसार वीर निर्वाण संवत् ६८३ है । और इसलिये दोनों कथन परस्पर में विरुद्ध पड़ते हैं । (ख) दूसरे, प्रभावतार में प्रथकारका यह सूचित करना कि धरसेन से पहले संपूर्ण अंग तथा पूर्व नष्ट हो चुके थे ("अंगाच पूर्वा ह्यखिला गताव", पृ० ३६०), और फिर धरसेन को वीर निर्वाण सं० ४७० से पहले का विद्वान् बतलाना भी विरुद्ध है, जबकि अङ्गशान नष्ट नहीं हुआ था । (ग) तीसरे, कुन्दकुन्द के समय में श्वेताम्बर मत का जो बहुत कुछ प्रचार बतलाया गया है और यह कहा गया है कि गिरनार पर्वत पर श्वेताम्बराचार्य के साथ कुन्दकुन्द का महान् वाद हुआ है, वह सब कथन भी विरुद्ध ठरहता है; क्यों कि इसी ग्रंथ में ढूंढक मत को उत्पत्ति का वर्णन करते हुए, श्वेताम्बर मत की उत्पत्ति संवत् १३६ में बतलाई है ( पृष्ठ १७९), और यह संवत् १३६ विक्रम संवत् जान पड़ता है, जिस + "धरसेन यतीन्द्र ेण रचिता धवलादयः । विद्यन्ते सेsyनातन जैनाभिचपुरे वरे ॥ ( पृ० ६८ ) 1 रिपुरभीन्दु संयुक्तसमेऽभूत्श्वेतवाससाम् । द्वापरेषु प्रमनानां यतोहि काल दोषतः ॥ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३०] का समर्थन रत्ननन्दि के भद्रबाहु चरित्र से ही नहीं किंतु १०वीं शताब्दी के बने हुए दर्शनसार ग्रंथ की निम्न गाथा से भी होता है: एकसये छत्तीसे विक्कमरायस्स मरण पत्तस्प । सोरटे वलहीए उप्पण्णो सेवडो सघो ॥ यदि यह कहा जाय कि यह सं० १३६ वीर निर्वाण संवत् है तब भी विरोध दूर होने में नहीं आता; क्योंकि एक तो दूसरे प्राचीन प्रन्यों के साथ विरोध बना ही रहता है, दूसरे इसी ग्रंथ में अन्यत्र पृष्ठ ६३ पर श्वेताम्बर मत की उत्पत्ति भद्रबाहु के समय के बाद बतलाई है । ये भद्रबाहु यदि श्रुतकेवली हों तो उनका समय दिगम्बर मतानुसार वीर निर्वाण से १६२ वर्ष तक का है। इनके बाद श्वेताम्बर मत को उत्पत्ति होने से वह वीर निर्वाण संवत् १३६ में नहीं बन सकती और इस संवत् में उत्पत्ति मानने से वह भद्रबाहु श्रुतकेवली के बाद नहीं बन सकती। यदि ये भद्रबाहु दूसरे भद्रबाहु हो तो फिर वे उक्त भविष्यवर्णन के भी अनुसार वीर निर्वाण से ५०० वर्ष के बाद हुए हैं, तब वीर निर्वाण सं० १३६ में श्वेताम्बर मत की उत्पत्ति और भी ज्यादा विरुद्ध हो जाती है और 'पश्चात्' शब्द का अर्थ वही ५०० वर्ष के बाद होने वाले भद्रबाहु, समन्तभद्र आदि आचार्यों के भो बाद का रह जाता है जिस पर शुरू में हो आपत्ति की जा चुकी है। मृते विक्रमभूपाले षट् त्रिंशदधिकशते । __ गतेऽब्दानामभूल्लोके मतं श्वेताम्बराभिधं ॥ ४-५५ * "भद्रदोः समये पश्चादभूवै श्वेतवासस । ___मत: कापट्यमन्ना द्वादरार्पित चेतसाम् ॥ अर्थ-भद्रबाहु स्वामीके पीछे श्वेतांवर मत प्रचलित हुआ।" Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३१] इस तरह पर उक्त भविष्य कथन हर तरह से विरुद्ध तथा आपत्ति के योग्य पाया जाता है। भगवान महावीर जैसे आप्त पुरुषों के द्वारा ऐसे विरुद्ध कथनों का प्रणयन नहीं बन सकता। चूकि यह सब कथन भगवान महावीर के मुख से कहलाया गया है-उनके सिर पर इसका सारा भार रक्खा गया है-,इसलिये इससे साफतौर पर प्रन्थका जालीपन सिद्ध होता है। ३. महावीर के नाम पर असम्बद्ध प्रलाप । उक्त ( नं०२ में उद्धृत ) भविष्य वर्णन के अनन्तर पद्य नं० १५७ में राजा श्रेणिक को कुन्दकुन्द मुनि का चरित्र सुनने की प्रेरणा की गई है और फिर उन मुनिराज का भावी वृत्तान्त सुनाया गया है, जो पद्य नं. ४९७ पर जाकर सामाप्त हुआ है । इस प्रकरण के आदि अन्त के दोनों पद्य इस प्रकार हैं मुनेस्तस्य श्रुणुध्वं च वृत्तमानन्ददायकम् । एकाग्रमनसा भूप कर्मेन्धनहुताशनम् ॥१५७॥ इत्थं श्रीणिक भूप सर्वगदितं वृत्तं मया तेऽखिलम् पापौघस्य विनाशकं सुविमलं श्रीकुन्दकुन्दस्य वै। चित्ते त्वं कुरु धारणं च मनसः शुद्धं करं नन्ददम् अग्रे धर्मविवर्द्धकं वरसुरैः पूज्यं च पूज्योदयम् ॥४९७॥ इन से स्पष्ट है कि कुन्दकुन्द का यह सब ३४० पद्यमय भावी वृत्तान्त महावीर के द्वारा राजा श्रेणिक के प्रति कहा गया है । अब इस वृत्तान्त का कुछ परिचय भी लीजिये वृत्तान्त के प्रारंभिक अंश (श्लोक नं० १५८ से १९८ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २] तक.) को पढ़ते हुए प्रायः * ऐसा मालूम होता है मानो भगवान् मेक ठीक भविष्य का वर्णन कर रहे हैं । उन्हों ने बतलाया है कि-'वार ( बाय ? ) नगर में 'कुन्द ' सेठ और 'कुन्दा' सेठानी से 'कुन्दकुन्द' नाम का पुत्र पैदा होगा, जो कुमार अवस्था में ही जिनचन्द्र मुनि के पास से जिनदोक्षा लेकर मुनि हो जायगा । एक दिन वे कुन्दकुन्द मुनि धरणीभूषण पर्वत पर विदेहक्षेत्रस्थ सीमंधर स्वामी का ध्यान लगाएँगे, उस वक्त सीमंधर स्वामी अपने समवसरण में उन्हें 'धर्मवृद्धि' देंगे, उसे सुनकर वहां पर बैठे हुए चक्रवर्ती आदि गजा विस्मय को प्राप्त हुए (प्रायुः १७०)! वे भगवान सीमंधर स्वामी से पूछेगे कि यहां कोई आया नहीं, तब आप ने किस को धर्मवृद्धि दी, उत्तर में स्वामी उन्हें भरतक्षेत्र की वर्तमान स्थिति का कुछ वर्णन करते हुए तत्रस्थ कुन्दकुन्द मुनि का और उनके उस ध्यान का परिचय देंगे, उसे सुनकर चक्रवर्ती आदि महान् हर्ष को प्राप्त हुए (संप्रायुः १८४) और सब देवेन्द्रो, राजाओं तथा यतीश्वरों ने हाथ जोड़ कर भारत के उस ऋषि को नमस्कार किया (चकुर्नति १८५)! इसके बाद यह पूछे जाने पर कि वे कुन्दकुन्द मुनि किस उपाय से यहां आसकेगे सीमंधर स्वामी ने कहा ( अवदत् १८६) कि उनके पूर्व जन्म के दो मित्रों रविकेतु और चन्द्रकेतु को भेजना चाहिये । उक्त दोनों देव कुन्द कुन्द को लेजाने के लिये यहां (भारत में) आधेगे, उस वक्त यहां रात्रि का समय होने से और यह जानकर कि ध्यानमग्न मुनि रात्रि को बोलते नहीं वे नमस्कार करके वापिस चले * इस अंश में भी कहीं कहीं कुछ भविष्यकालीन क्रियाओं के स्थान पर 'प्रायुः', 'संप्रायुः, 'चक्र :' और 'अवदत्' जैसी भूतकालीन क्रियाओं का ग़लत प्रयोग पाया जाता है। इसी से यहां जानबूझ कर 'प्राय:' शब्द का व्यवहार किया गया है। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जायंगे; प्रातः काल शिष्योंसे देवोंके आगमन आदिका र मालूम करके कुन्दकुन्द इस प्रकारका दुपट नियम लकि जबतक सीमंधर स्वामीको दर्शन-प्राप्ति न होगी तबतक मेरे चार प्रकारके आहारका त्याग है। इसके बाद वे दोनों देव फिर दिनके समय आयंगे ओर उनके विमानमें बैठकर कुन्दकुन्द सीमंधर स्वामीके पास जायंगे।' पिछले कथन का सूचक अन्तिम वाक्य इस प्रकार है: तद्विमाने समारुह्य यास्यति स मुनीश्वरः। केवलं धर्मकायार्थ पूर्वपुण्येन प्रेरितः ॥१८॥ परन्तु इस क्थनके बाद ऐसा मालूम होता है कि भगवान् अपनी भविष्य वर्णनाकी बातको भूलकर एकदम बदल गये हैं और इसलिये उन्होने विमानारूढ़ कुन्दकुन्दका शेष जीवन चरित्र अपन पूर्व कथनके विरुद्ध भूतकालीन क्रियाओं में इस डगसे कहना प्रारम्भ कर दिया है मानो कुन्दकुन्द कोई भूतकालीन ऋपि थे और वे भगवान् महावोरस पहिले हुए है । महावोरके इस उत्तर कथनकी कुछ बाते सूचनामात्र क्रमश: इस प्रकार हैं - "विमानारूढ़ कुन्दकुन्दने अनेक पर्वतों, आश्चर्यों और संपूर्ण पृथिवीको देखते हुए आकाशमे गमन किया (चकार गमनं १९९), विमानसे उतर कर सीमंधर प्रभुको सभामें प्रवेश किया (विवेश २०० ), उन्हे देखाx, तीन प्रदक्षिणाएं दी, उनका स्तवन प्रारंभ किया, अपने लघु शरीरका ख़याल कर कहाँ बैठने के सम्बन्धमें कुछ विचार किया और फिर सीमंधर स्वामोके पोठाधोभागमें अपना आसन ग्रहण किया। उस x यहां 'ददर्श' और आगे ददौ', 'आरेभे' आदि मूल क्रियापदोंको साथमे न दिखलाकर उनका अर्थ अथवा आशय ही दे दिया गया है। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [- ३५ ] समय वहाँ चक्री आया, उसने कुन्दकुन्दको हाथमें लेकर आश्चर्यके साथ कुछ चिन्तन किया, फिर स्वामोसे पूछा, उन्होंने कहा कि जिसकी बाबत पहले कहा गया था यह वही भारतज मुनि है, यह सुनकर चक्री सन्तुष्ट हुआ और उसने मुनिको इस भय से कि कहीं तुच्छकाय होने के कारण उसे (५०० धनुष ऊंचे पर्वताकार मनुष्योंके बीच में) कुछ हानि न पहुँच जाय स्वामी के सामने स्थापित कर दिया । कुन्दकुन्द मुनिने सीमंधर स्वामीकी दिव्यवाणी सुनकर आनन्द प्राप्त किया और फिर स्वामोसे एक लम्बासा प्रश्न करके वे मानस्थ हो रहेप्रश्न में मिथ्यात्वकी वृद्धि, सर्वत्र जिनालय के न होने, श्वेताम्बर मतके प्रचार तथा जेनशास्त्रोंके न दिखलाई देनेका भो उल्लेख किया गया है और उसका कारण पूछा गया है - उत्तरमें सीमंधर स्वामीकी वाणी खिरी, जिसमें बलभद्रके जीव द्वारा मिथ्या मनकी उत्पत्ति जैसी अन्य बातोंके अतिरिक्त भद्रबाहु के पश्चात् श्वेताम्बर मत उत्पन्न हुआ बतलाया गया, श्वेताम्बरों पर 'कापट्यमप्रता' का आरोप किया गया, दुष्ट लोगों द्वारा जिनागम शास्त्रोंक समुद्र में डुबोए जाने के कारण जैनशास्त्रोंका न दिखाई देना कहा गया और साथही यहभी कहा गया कि इस समय जैनपुर ( मूडबिद्रो) में धरसेन यतीन्द्रके रचे हुए धवलादिक शास्त्र मौजूद हैं। उत्तरको सुनकर कुन्दकुन्दका चित्त संदेहरहित होगया । इसके बाद स्वामीकी ध्वनिमें यह बात प्रकट हुई कि कुन्दकुन्द योगीन्द्रको सर्वसिद्धान्त सूचक शास्त्र लिखाकर दिये जाने चाहियें और उन्हें ग्रंथोंके साथ भेजना चाहिये । ध्वनिकी समाप्ति पर कुन्दकुन्द सभास्थान में ही ग्रंथोंको पढ़नेके लिये बैठ गये (!) और उन्होंने वहां सर्वसिद्धान्त-सूत्रक ग्रंथ पढ़े । विदेह क्षेत्रमें आहारको योग्यता न मिलने से - वहां आहारके समय दिन और भारतमें उस वक Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २५ ] रात्रि होनेको वजहसे (!)- कुन्दकुन्द सात दिनतक निराहार रहे, फिर सीमंधर स्वामीको बार बार स्तुतिप्रणाम कर, गणधरादिको नमन कर और उनके दिये हुए ग्रंथोंको लेकर तथा विमान में रखकर वे पूर्वोक दोनों देवताओंके साथ आकाश मार्गसे रवाना हुए, देवता उन्हें उसी स्थानपर छोड़कर और उनको आज्ञा लेकर वापिस चले गये । फिर कुन्दकुन्दने सारे मिथ्यात्वको शान्त किया; उनके उपदेशसे भव्य जीवोंने दान, पूजा, यात्रा, अभिषेक, जिनबिम्ब प्रतिष्ठा, मंदिरजीर्णोद्धार आदि अनेक कार्य किये; उस वक्त जैनधर्मका बड़ा उद्योत हुआ, उन्होंने कलिकालमें धर्मका उद्धार किया, वे मुनि जयवंत हों । उनके अतिशयको देखकर कितनोंहोने संयम ग्रहण किया । 'नन्दी' आदि उनके शिष्य हुए, जिन्हें चारों दिशाओं में भव्योंके संबोधनार्थ भेजा गया । उस वक्त जिनधर्म पृथिवी पर प्रकट हुआ । कुन्दकुन्द ने पुनः सिद्धान्तोंको प्रकट किया, कितनेही ग्रन्थ रचे- जिनमें समयसारादि कुछ प्रसिद्ध ग्रंथोंके अतिरिक्त 'श्रावकाचार*', 'जिनेन्द्रस्नानपाठ' तथा 'प्रभुपूजन' * 'कुन्दकुन्दश्रावकाचार' की परीक्षा को जाचुकी है और वह महाजाली सिद्ध हुआ है (देखो, प्रन्थपरीक्षा, प्रथम भाग ) । मालूम होता है इसी तरह पर और भी कितनेही ग्रंथ कुन्दकुन्दके नामसे जाली बनाये गये हैं, जिनमें 'जिनेन्द्रस्नान पाठ' और 'प्रभुपूजन' जैसे ग्रंथभी उस कोटिके जान पड़ते हैं । अभिषेक और पूजन जैसे विषय उस वक्त ख़ास विवादापन थे और अधिकांशमें वेही तेरहपंथ और बोस पंथके झगड़े की जड़ बने हुए थे । भट्टारकों तथा भट्टारकानुगामियोंने इन विषयों के सम्बन्धमें अपनी मान्यताओंके पीछे युक्तिबल न देखकर प्राचीन आचार्योंके नामपर अनेक जाली ग्रंथोंकी रचना की है, और कितीही बातें दूसरे ग्रंथोंमें प्रक्षिप्त भी की हैं । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ३६ जैसे अंधोंके नाममी दिये हैं और फिर लिखा है कि उन्होंने सर्व प्राणियोंके हितार्थ ग्रंथों में विस्तार के साथ पूजाविधि तथा स्नानविधिका निर्माण किया है।" यह पिछला वाक्य इस प्रकार हैपूजाविधिस्तथास्नानविधिर्विस्तारतः खलु । ग्रंथेषु निर्मितस्तेन सर्वभूतहितातये ॥३५॥ इसके अनन्तर मानो भगवान्को फिर कुछ होश आई और वे भूत वर्णनाको छोड़ कर पुनः भविष्य कथनके रूपमें कहने लगे-“हे चेलनाकान्त (श्रेणिक) ! इत्यादि संपूर्ण ग्रंथों को वह धर्मबुद्धि मुनि जिनधर्मको प्रभावनाके लिये करेगा (रचेगा), अपनी सिद्धि तथा भव्योंके सम्बोधनार्थ हे राजन् ! वह यतीन्द्र पृथ्वी पर विहार करेगा और भव्योंको सम्बोधता हुआ तथा धर्मको बढ़ाता हुआ मिथ्यान्धकारका नाश करेगा।" यथा इत्यादिसकलान् ग्रंथान् चेलकान्तसुधर्मभाक् । करिष्यति प्रभावार्थ जिनधर्मस्य धर्मधीः ॥३५२॥ स यतीन्द्रः स्वसिद्धयर्थ विहारं च करिष्यति । तदावनौ नराधीश भव्यबोधार्थमंजसा ॥३५३॥ भव्यान् सम्बोधयन् धर्म वर्द्धयन् वचनोत्करैः । मिध्यान्धतमसं सैव हनिष्यति भवाब्धिदम् ॥३५४॥ परन्नु यह होश कुछ अधिक समय तक स्थिर नहीं रह सको, उक्त कथनके अनन्तरही पलट गई अथवा यो कहिये कि भगवान्के शानका क्षण भरमें कुछ ऐसा विपर्यास (उलटफेर) होगया कि उसमें भविष्यकालीन घटनाएँ भूतकालीनके रूपमें झलकने लगी और इसलिये भगवान् गिरनार पर्वत पर Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होने वाले कुन्दकुन्दके वृत्तान्तको सुननेकी प्रेरणा करते हुए कहने लगे 'एक दिन उन कुन्दकुन्द मुनीश्वरने नेमिजिनेन्द्रकी यात्राके लिये गमन किया, उनके साथ बहुतसे भव्य पुरुष स्त्रियोसहित चले-मुनिभो चले, आर्यिकाएँभी चलीं, उस चतुर्विध संघमें ७०० मुनि थे, १३०० आर्यिकाएं थीं, ३५ हज़ार धावक थे और ७० हज़ार श्राविकाएं थीं। इतने बड़े संघक साथ कुन्दकुन्द मुनि गिरनार पर्वतके बनमें पहुँचे और सबने मार्गश्रम-निवारणार्थ अपने अपने योग्य स्थान पर डेरा किया। अब दूसरो कथा सुनो-उसी वनमें नेमि जिनकी यात्राके लिये श्वेताम्बरोंका महान् संघभी आ पहुँचा, जिसमें नाना. तिशयसम्पन्न २४० यति थे-जिन्हें नामके यति, रसोंसे अपना शरीर पुष्ट करने वाले तथा मदोद्धत बतलाया गया और उनके आज्ञापालक दो लाख मनुष्य (श्रावकजन) और थे । पहले आये हुए संघने कुन्दकुन्दको आगे कर जिस समय यात्रा के लिये प्रस्थान किया उस वक्त श्वेताम्बरोंने-जिन्हें 'खल' तक कहा गया-आकर उसे रोका और कहाकि पहले हम यात्रा करेंगे, क्योंकि हमारा मत सबसे पहला है और हम सब * इससे मालूम होता है कि दोनो संघोंके मुनि-आर्यिका श्रावक-श्राविकाओकी संख्या तीन लाख सात हजार तीनसौ चालीस थी। तब उनके साथ ५० हजारके करीब गाड़ियां और इतनेही गाड़ीवान ( हांकने वाले ) तथा ५० हजारके करीब दूसरे नौकर चाकर और एक लाखसे ऊपर बैल-घोड़े-ऊंट वगैरह सवारी तथा बारबरीके जानवरभी होंगे। इतने बड़े जनादि समूहका एकही वक्तमें गिरनार पर्वतको तलहटीके एक वनमे समाजाना ग्रंथकारको शायद कुछ अस्वाभाविक प्रतीत नहीं हुआ !! Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३८ 1 में वृद्ध हैं। इस पर कुन्दकुन्दने 'वधुपाल' नामके एक श्रावकको बुला कर और उसे भले प्रकार शिक्षा देकर श्वेताम्बरों के पास भेजा, जिसने कुछ समझाने के अनन्तर श्वेताम्बरोंसे कह दिया कि यदि तुम्हारी वादको शक्ति होतोशोघ्र आकर वाद करलो जो संघ जीतेगा वही पहले तीर्थयात्रा करेगा। इस तरह श्वेताम्बरोंको क्षुभित कर उसने सब वृत्तान्त आकर गुरु से कह दिया, तब कुन्दकुन्द सर्व संघसहित गिरनार पर्वतके समीप हो ठहर गये । वहीं पर श्वेताम्बरो लोग वादके लिये आ गये । श्वेताम्बरोंके मुख्याचार्य शुक्लाचार्यके साथ कुन्दकुन्दका वाद हुआ । शुक्लाचार्य जब युक्तिवादमें हार गया तब उसे कोप हो आया और उसने अपने मंत्रयल से कुन्दकुन्दके कमण्डलुमें मछलियाँ बनादी, इशारा पाकर उनके एक शिष्यने कुन्दकुन्द से पूछा 'आपके कमण्डलुमें क्या है ?', कुन्दकुन्दने कहा अपने गुरुजीसे हो पूछो वे आदि मतके धारक हैं, उसने तब गुरुसे पूछा और गुरुने मदमें आकर लोगोंको सम्बोधन करते हुए कहा 'देखो, यह मुनि जीव भक्षक है' (क्योंकि इसके कमण्डलुमें मछलियां है)। यह सुनकर कुन्दकुन्दने सीमंधर स्वामीको नमस्कार करके कमंडलु को ओधा कर दिया और उसमें से पद्मपुष्पों का समूह नीचे गिरपड़ा,जिसकी सुगन्धसे उसी क्षण वहां भौहरे आगये। इस अतिशयको देखकर संघके सब लोग बड़े प्रसन्न हुए, लोगोंने 'पभनन्दी' नामसे कुन्दकुन्दको स्तुति को आर श्वेताम्बरोंके चेहरे मलिन हो गये। उसी वक्तसे कुन्दकुन्द मुनि 'पानन्दी नामसे प्रसिद्ध हुए।' _ 'फिर शुक्लाचार्य और कुन्दकुन्दका और भी वाद (मंत्रवाद) हुआ, मन्त्रबलसे शुक्लाचार्य ने कुन्दकुन्दको पिच्छिको आकाशमें रखदिया और कुन्दकुन्दने शुक्लाचार्यके शरीरसे वनों को उतार कर उसके पास रख दिया; इस तरह दोनोंका महान Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३९] वाद हुआ-वह पिच्छि तो स्वामीके पास आगई परन्तु के वस्त्र वहीं रहे। 'पुनः कुन्दकुन्द स्वामीने शुक्लाचार्यसे कहा कि यदि तुम्हाग धर्म आदि धर्म है तो इस पाषाणनिर्मित सरस्वतीको मूर्तिसे कहलाओ, जिसको यह मूर्ति आदिमत कह देगी उसीको पहले यात्रा होगी; शुक्लाचार्यने इसे स्वीकार किया और अपने मंत्रबलसे मूर्तिको बोलने के लिये प्रेरित किया परन्तु मर्तिने बोलकर नहीं दिया, इससे शुक्लाचार्यका मुंह काला पड़ गया। तब कुन्दकन्दने पिच्छि हाथ में लेकर और सीमंधर स्वामीको नमस्कार कर उस सरस्वतोसे सत्यवाणी बोलनेको कहा, उसे सुनतेहो वह पाषाणकी मूर्ति बोलने लगी, उसने दैगम्बर मतको तीन बार 'आदिमत' बतलाया, उसकी बहुत कुछ प्रशंसाकी ओर फिर शुक्लाचार्यको अपना संकल्प छोड़ने की प्रेरणा करते हुए वह मौनस्थ हो गई। सरस्वतीके प्रभावसे श्वेताम्बरयतियोंके सर्व देवता कुत्तोंकी तरह भाग गये!* और दिगम्बर पक्षकी जय हुई।' 'तत्पश्चात् कुन्दकुन्दने चतुर्विध संघके साथ श्रीनेमिजिनेन्द्रका सानन्द दर्शन किया और वहीं पर 'सरस्वती' नाम का गच्छ तथा 'बलात्कार' नामका गण स्थापित किया, अपने नामका वंश कायम किया और अपने शिष्योंकी 'नन्दि' आदि आम्नाय कायम को और कहा कि सर्व संघोंमें मल संघ मुख्य है, अतः आजसे तुम इसको भजो। सिद्धभूमिकी यात्रा करके कुन्दकुन्द मुनि अपने स्थानको वापिस आ गये और तप करने लगे । एक दिन ध्यानके समय उनकी गर्दन टेढ़ी हो गई, वे उसके कारणका विचार करने लगे तो सरस्वतीने आकर कहा * इस वाक्यके द्वारा भगवान् महावीरकी भाषासमितिकासंयत भाषाका-अच्छा पदर्शन किया गया है ! Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि अकालय जैन सिद्धान्तोंको पढ़ने के दोषसे ग्रीवा यह वक्रता आई है, अकालमें जैनसिद्धान्तोंको नहीं पढ़ना चाहिये। इस पर कुन्दकुन्दने अपनी निन्दा की और उस दोषकी शान्तिके लिये सीमंधर स्वामीका स्तवन किया, तब सरस्वतीने अवक्रता प्रदान की और वह 'वक्रमीव' नाम देकर अपने स्थान चली गई । इसीसे कुन्दकुन्दका तीसरा नाम 'वक्रग्रीव' हुआ। 'एलाचार्य नाम विदेह क्षेत्रसे पड़ा, और विमानमें पिच्छिकाके गिर जाने पर देवोंने गृद्धपिच्छिका दो थी इससे 'गृद्धपिन्छा. चार्य' नाम पृथ्वी पर प्रसिद्ध हुआ। इस तरह वे मुनि पांच नामोंसे प्रसिद्धिको प्राप्त हुए । यह पिछला वाक्य इस प्रकार है :एवं पंचाभिधानेन स मुनिः सकलार्थवित् । श्रासीत् विख्याततां पूज्यः विपक्षविजयात्सुरैः ॥४५३॥ इसके बाद भगवान महावीर कुन्दकुन्दकी भक्तिमें कुछ ऐसे डूबे कि वे इस बातको ही भूल गये कि हम तीर्थकर हैंसर्वज्ञ हैं, कुन्दकुन्द हमारे पीछे शताब्दियों बाद कलिकालमें एक छमस्थशानी साधु होने वाला है; और इसलिये उन्होंने, मानो अपनेको कलिकालीन अनुभव करते हुए, एक पूर्व महर्षि के तौरपर कुन्दकुन्दको नमस्कार किया, उनके चरणोंकी वन्दना की और उनका स्तोत्र तक रच डाला, जिसमें श्वेताम्बरोंको गाली दी गई-उन्हें 'खलाशय' तथा 'क्रूर' बतलाया गयाकुन्दकुन्द मुनीन्द्रने ही इस कलियुगमें शास्त्रादिकी रचना की है ऐसा कहा गया और कहा गया कि उनके समान इस कालमें न कोई हुआ और न होगा। साथही, उनकी माताको भी धन्यवाद दिया गया जिसकी कूखसे ऐसा पुत्र पैदा हुआ। इतने परसे भी तृप्त न होते हुए पुनः भगवान् 'चित्तरोधार्थ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४१ } पाँच नामोका बखान कर कुन्दकुन्दका स्तवन करने लगे। इस कथनके सूचक वाक्य इस प्रकार हैं: अश्मजा वादिता येन भंगमाप्ताः खलाशयाः । स्वेतवासोधराः कुराः तस्मै श्रीमुनये नमः ॥४५४॥ सीमंधराजिनेन्द्रस्य येनाप्तं दर्शनं शभम् । प्राचीनपुण्ययुक्तेन तस्य पादों नमाम्यहम् ॥४५५॥ अस्मिन् कलो मुनीन्द्रेण तेनैव रचना कृता । शास्त्रादीनामहो भव्याः तस्मै नमोस्तु सर्वदा ॥४५६॥ कुन्दकुन्दसमश्वास्मिन् काले मिथ्यात्वसंभृते । नाभून्नैव पुनथात्र भविष्यति सुनिश्चयात् ॥४५७॥ धन्या सा जननी लोके यस्याः कुक्षौ सुरैः स्तुतः । अभूदै ईदृशः पुत्रो मिथ्यान्धतमः पूषणः ॥४५८॥ कुन्दकुन्दमुनीन्द्रस्य तस्यैवाहं करोमि वै । स्तवनं चित्तरोधार्थ नित्याहसो विनाशकम् ॥४५६॥ इसके बाद कुन्दकुन्दके स्तवनका माहात्म्य बतला कर भगवान ने कहा कि-"इस तरह धर्ममार्गको प्रकट करनेके पश्चात् कुन्दकुन्दने अपनी आयुका एक महीना अवशिष्ट जान कर समाधि-सिद्धिके लिये अपने नगरके वाह्यस्थ वन गमन किया और वहां क्रमशः सर्व आहारका त्याग कर, मंत्रराजका श्रवण-स्मरण और पंचपरमेष्ठी तथा सोमधर स्वामोका ध्यान करते हुए, समाधिपूर्वक प्राण त्यागकर स्वर्ग प्राप्त किया। चौथे कालमें घे मोक्ष जायंगे।" और इसके अनन्तरही वे कुन्दकुन्दके गुणोंका तथा उनके पुण्यका पुनः कीर्तन करने लगे और यहां तक कह गये कि 'वे यतिराट् हमारो और तुम्हारो सदा रक्षा Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४२ ] करो ('यतिराट् स पातु नो वः सदा' ४९१ ) ! हमारी संसारसे रक्षा करो ('नः पातु संसारतः' ४९४ ) !' साथही, उन्होंने पुण्योपार्जनकी प्रेरणा को और फिर राजा श्रेणिक को संबोधन कर 'इत्थं श्रेणिकभूप सर्वगदितं वृत्तं मया तेऽखिलम्' इत्यादि रूपसे वह उपसंहारात्मक अन्तिम वाक्य (पद्य नं० ४९७) कहा जो ऊपर उद्धृत किया जा चुका है और उसमें बतलाया है कि-- 'हे राजा श्रेणिक ! इस तरह श्री कुन्दकुन्दका यह सब पूरा निर्मल चरित्र मैने तुझसे कहा है, इसे तू चित्तमें धारण कर, यह पूज्योदयको लिये हुए पापसमूहका नाश करने वाला, मनको शुद्ध करने वाला, आनन्दका देने वाला, आगामी कालमें धर्मका बढ़ाने वाला और देवोंसे पूज्य है।' इस प्रकार यह भूत भविष्यतादिके विवेकरहित ग्रंथकारका भगवान् महावीरके नाम पर असम्बद्ध प्रलाप है । ग्रंथकार को यह सब लिखते हुए इतनी भी होश रहो मालूम नहीं होती कि वह अपने कथनकं पूर्वापर सम्बन्धको ठीक समझ सके अथवा यह जान सके कि भगवान् महावीर कब हुए हैचतुर्थकालमें या इस पंचम (कलि ) कालमें - और उनकी क्या पोज़ीशन थी । और इसलिये उसे वह ख़बर नहीं पड़ी कि मैं भगवान् के मुख से भविष्य में होने वाले कुन्दकुन्द मुनिका जो वर्णन करा रहा हूं वह भविष्य वर्णनाके रूपमें ही होना चाहिये - भूतवर्णनाके रूपमें नहीं, और न यही समझ पड़ी कि सर्वज्ञ भगवान् के मुखसे कहे जाने वाले शब्द कितने संयत, कितने उदार, कितने गम्भीर और कितने सत्यमय होने चाहिये । इसीसे उसने उन्मत्तको तरह यद्वा तद्वा कहीं भविष्यकालकी क्रियाका और कहीं भूतकालकी क्रियाका प्रयोग कर डाला ! साथही, सत्य-असत्य, उचित-अनुचित, कहने योग्य और न कहने योग्य जो जीमें आया भगवान् के मुखसे कहला M Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४३ ] डाला !! इस तरह ग्रंथकारने अपनी मूर्खता, अपनी अशता, अपनी अनुदारता, अपनो साम्प्रदायिकता, अपनो कट्टरता और अपनो मिथ्या धारणाको भगवान् महावीरके ऊपर लादकर उन्हें मूर्ख, अज्ञानी, अनुदार, साम्प्रदायिक, कट्टर और असत्यभापी ठहरानेको अक्षम्य धृष्टता को है !!! ___अनुवादक महाशय ७० ज्ञानचन्द्रको भी प्रन्थकारका यह असम्बद्ध प्रलाप कुछ खटका ज़रूर है परन्तु उन्होंने प्रन्थकारके सुरमें सुर मिलाकर उसे छिपाने तथा उस पर पर्दा डालनेकी जघन्य चेष्टा की है। आपने श्लोक नं० १९८ का अर्थ देनेके बाद एक विचित्र वाक्य इस प्रकार लिख दिया है: ___ “आगे ग्रन्थकार उस कथनके अनुसार स्वयं वर्णन करते हैं।" परन्तु ग्रन्थकारने ग्रन्थमें कहाँ ऐसी सूचना को है, इसे वे बतला नहीं सके और न यह सुझा सके हैं कि ग्रन्थकारको अपने ग्रन्थकी पूर्वप्रतिज्ञा (श्लोक नं० १५७) के विरुद्ध ऐसा करनेकी ज़रूरत क्यों पैदा हुई ?-वह भगवान्को बीचमें कहते कहते छोड़कर अपना राग क्यों अलापने लगा ?-और पूर्वकथनमें भी जो कहीं कहीं भूतकालोन वाक्य पाये जाते हैं उनका तब क्या बनेगा ? इससे यह सब अनुवादक महाशयकी निजी निःसार कल्पना है। उन्हे इस कल्पनाको करते हुए इतनोभी समझ नहीं पड़ी कि हमारे "उस कथन" शब्दोंका वाच्य भगवानका भविष्यवर्णनारूप कथन है या भूतवर्णनारूप, यदि भूतवर्णनारूप है तो असम्बद्ध प्रलाप ज्योंका त्यों स्थिर रहता है और यदि भविष्यवर्णनारूप है तो उसके अनुसार प्रन्थकारका कथनभी भविष्यवर्णनारूप होना चाहिये था, जो नहीं है और न यही ख़बर पड़ी कि श्लोक नं० १९८ के बादसे यदि ग्रंथकारने बिना किसी सूचनाके ही स्वयं अपने तौरपर Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४४ ] वर्णन करना प्रारम्भ कर दिया था तो फिर आगे चलकर श्लोक नं० ३५२ से भगवान् राजा श्रेणिकको सम्बोधन करते हुए बोच मैं क्यों बोल पड़े ?--वहाँ उनके इस बोचमें कूद पड़नेको अथवा बिना घुलाये बोल उठने के कारणको अनुवादक महाशय ने भो कोई सूचना नहीं की!-क्या ग्रंथकारके सामनेभो उस. के सम्बोधन के लिये राजा श्रेणिक मौजूद थे ? यदि ऐसा कुछ नहीं तो फिर क्या अनुवादक महाशय अपने उक्त वाक्य-प्रयोग के द्वारा यह सुझाना चाहते हैं कि भविष्यवर्णनारूप जितना कथन है वह तो खास महावीरका कथन है- उन्हींके शब्दोंमें ज्यों का त्यों उनके मुखसे निकला हुआ है, उसमें तदनुसार कथनकी कोई बात नहीं-और शेष कथन प्रन्थकारका अपने तौरपर किया हुआ कथन है ? यदि ऐसा है तबभी असम्बद्ध प्रलापका दोष दूर नहीं होता, क्योंकि भविष्यवर्णनाके कथनों को क्रमशः मिलाकर और इसी तरह भूतवर्णनाक कथनोंको क्रमशः मिलाकर अलग अलग पढ़ने पर वे औरभी ज़्यादा असम्बद्ध मालूम होते है । उदाहरणके तौर पर यदि 'तद्विमाने समामा यास्यति' इत्यादि श्लोक नं० १९८ के बाद 'इत्यादि सकलान् प्रथान्' नामक भविष्यवर्णना वाले श्लोक नं० ३५२ को पढ़े तो वह कितना असम्बद्ध तथा बेढङ्गा मालूम देगा और उससे भगवान्को मूर्खता, असमोक्ष्यकारिता और उन्मत्त. प्रलापता कितनी अधिक बढ़ जायगी; क्योंकि बीचके सारे कथन-सम्बन्धको छोड़ देने परभी श्लोक नं. ३५२ में प्रयुक्त हुआ 'इत्यादि' शब्द अपने पहले कछ ग्रंथोंके नामोल्लेखको मांगता है, जिसका महावोरको भविष्यवर्णनामें अभाव है। अतः इस असम्बद्ध प्रलापके ऊपर किसी तरहभी पर्दा नहीं डाला जा सकता-प्रकरणके आदि अन्तके ऊपर उद्धत किये हुए दोनों प्रतिज्ञा और उपसंहार वाक्य (नं० १५७, ४९७) ही Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४५ ] इस बात को स्पष्ट बतला रहे हैं कि यह सारा वर्णन भगवान् महावीरके मुख से राजा श्रेणिकके प्रति कहलाया गया है। अनुवादक महाशयने व्यर्थही भोले पाठकोंको आँखों में धूल डालने का यह निंद्य प्रयत्न किया है। वास्तवमें अपने इस प्रयत्न द्वारा ग्रंथकार की स्पष्ट मूर्खतादि का पक्ष लेकर उन्होंने खुदको तत्सदृश सिद्ध किया है ! खेद है कि मुनि शान्तिसागरजी आचार्य बनकर और कलिकाल सर्वज्ञ कहलाकर भी ग्रंथकारके इतने मोटे असम्बद्ध प्रलापको समझ नहीं सके, न अपने चेले ब्रह्मचारी ( वर्तमान क्षुल्लक ज्ञानसागर) की उक्त कर्तृत ( लीपापोती) को हो परख सके हैं और यही बिना समझे गणधर चेलों के जाल में फंसकर ऐसे जाली प्रथके प्रशंसक बन बैठे हैं और अपने संघ द्वारा उसका प्रचार करते तथा होने देते हैं, जो भगवान् महावीरके पवित्र नामको कलङ्कित करने वाला है । अस्तु । इस असम्बद्ध प्रलापके भीतर जो असत्य प्रलाप भरा हुआ है और ऐतिहासिक तथ्योंके विरुद्ध कितनाही कथन पाया जाता हैं उस सबको यहा प्रकट करनेका अवसर नहीं है, अवकाश मिला तो उसका कुछ अंश किसी दूसरी जगह प्रकट किया जायगा -- कुछ संकेतमात्र नं० २ में दियाभी जा चुका है | यहां पर सिर्फ इतनाही जान लेना चाहिये कि ऐसा असंबद्ध प्रलाप भगवान् महावीर जैसे आप्त पुरुषोंका नहीं हो सकता। चूंकि प्रतिशा और उपसंहार वाक्यों आदिके द्वारा उसे साफ़ तौर पर भगवान् महावीरका प्रकट किया गया है । अतः इस परसे ग्रंथका जालोपन औरभी निःसन्देह हो जाता है और वह स्पष्टतया जाली तथा बनावटी सिद्ध होता है । साथी, यहभी स्पष्ट हो जाता है कि वह प्रथकारके कथनानुसार किसी 'अनागतप्रकाश' नामके प्राचीन ग्रंथस्ते उधृत Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४६ ] किया गया मालूम नहीं होता बल्कि अधिकांशमें ग्रंथकारके द्वारा कल्पित किया गया और कुछ इधर उधरके भूतवर्णना वाले आधुनिक भट्टारकीय प्रन्थों परसे अपनी नासमझोके कारण उठा कर रक्खा गया जान पड़ता है। और इसीसे वह इतना बेढंगा बन गया है। ४ तेरापंथियोंमे भगवान् की झड़प ! प्रथमें भगवान् महावीरके मुखसे भविष्यकथनक रूपमें जो असम्बद्ध प्रलाप कराया गया है वह नं. ३ में दिये हुए कुन्दकुन्दके प्रकरणके साथ ही समाप्त नहीं होता बल्कि दूर तक चला गया है। अगले प्रकरणोंको पढ़ते हुए भी ऐसा मालूम होता है मानो भगवान् कहीं कहीं तो ठीक भविष्यका वर्णन कर रहे हैं और कहीं एकदम विचलित हो उठे हैं और उनके मुखसे कुछका कुछ निकल गया है-कथन का कोई भी एक सिलसिला और सम्बन्ध ठीक नहीं पाया जाता । कुन्दकुन्द-प्रकरण के अनन्तर अगले कथनका जो प्रतिज्ञावाक्य दिया है वह इस प्रकार है: अथापरं शृणु भूप पंचमसमयस्य वै । वृत्तान्तं भाविकं वक्ष्ये सर्वचिन्तासमाधिना ॥४६॥ इसमें साफतौरपर पंचमकालके दूसरे भावी वृत्तान्तके कथनकी प्रतिज्ञा करते हुए राजा श्रेणिकसे उस वृत्तान्तको सुननेकी प्रेरणा की गई है । परन्तु इसके अनन्तर ही, भावी वृत्तान्तकी बातको भुलाकर, भगवान्ने अभिषेकादि छह क्रियाओंका उपदेश देना प्रारम्भ कर दिया है ! और उसके द्वारा वे खुद ही अपनी पूजा-अर्चा का विधान करने बैठ गये हैं ! यहां तक कि जपक्रियाके मंत्रों में उन्होंने अपना नाम भी Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४७ ] 'सर्वकर्मरहिताय श्रीमहावीरजिनेश्वराय सदा नमः' इत्यादि रूप से जपने के लिये बतला दिया है !! साथ ही अपने परम आराध्य कुन्दकुन्दके नामका मंत्र देना भी वे नहीं भूले हैं और उन्होंने कुन्दकुन्दके नाम वाले मंत्रको तीन बार 'नमोस्तु' के साथ जपने की व्यवस्था करके उनके प्रति अपनी गाढ़ श्रद्धा-भक्ति का परिचय दिया है !!! अभिषेक क्रियाके वर्णन में उन्होंने जल, इक्षुरस, घृत, दुग्ध और दधिरूप पंचामृत से जिनेन्द्रके और इसलिये अपने भो - स्नानका विधान हो नहीं किया बल्कि " स्नानं कुरुध्वं बुधाः' (५०८) जेसे वाक्यां द्वारा उसकी साक्षात् प्रेरणा तक को ह । साथ हो, उसकी दृढ़ताकं लिये ऐसे अभिपेकका फल भी मरु पर्वत पर देवताओं द्वारा अभिषेक किया जाना आदि बतला दिया है आर एक नज़ोर भो प्रोत्साहनार्थ तथा इस क्रियाको मुख्यता प्रदान करनेके लिये दे डाली है, और वह यह कि देवता लोग भी पहले भगवान्का अभिषेक करके पोछे सम्पत्तिको अंगीकार करते हैं-दूसरे कामोंमें लगते हैं । इसी तरह पूजन क्रिया के वर्णनमें उन्होंने भगवच्चरणोंके आगे जल को तीन धाराएं छोड़ने, केसर, अगर- कपूर को घिस - कर जिन चरणों पर लेप करने और जिन चरणोंके आगे सुन्दर अक्षतों, कुन्द- कमलादिके पुष्पों तथा सर्व प्रकार के पक्वान्न व्यंजनोंको चढ़ाने, हज़ारों घृतपूरित दीपकोंका उद्योत करने, सुगंधित धूप जलाने और केला आम्रादि फलों को अर्पण करने रूप अष्टद्रव्य से पूजन का विधान ही नहीं किया किन्तु "एवं बुधोत्तमा जिनपतेः इज्यां कुरुध्वं च भो' (६२२) जैसे वाक्यों * इससे यह कथन अगले भविष्यकथनकी प्रस्तावना या उत्थानिक की कोटिसे निकल जाता है और एक असम्बद्ध प्रलापके रूपमें ही रह जाता है 1 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४८ द्वारा उस प्रकारसे पूजनको साक्षात् प्रेरणा भी की अथवा आशा तक दी है। साथ हो ऐसे प्रत्येक द्रव्यसे पूजनका फल ही नहीं बतलाया बल्कि इन द्रव्योंसे पूजन करके फल प्राप्त करने वालोंकी आठ कथाएं भी दे डालो हैं *, जिससे इस प्रकारके पूजनकी पुष्टिमें कोई कोर कसर बाकी न रह जाय ! शेष जप, स्तुति, ध्यान और गुरुमुखसे शास्त्रश्रवण । नामकी क्रियाओंका विधान भी भगवान्ने प्रेरणा तथा फलवर्णनाके साथ किया है परन्तु उनके विषयमें भविष्यका कोई ख़ास उल्लेख नहीं किया गया । इसके बाद वे फिरस पूर्णाहुतिक तौर पर उक्त छहों क्रियाओंका उपदेश देने बैठ गये है ! और इतने पर भो तृप्त न होकर थोड़ी देर बाद उन्होंने जलगंधाक्ष * ये कथाएं पंचमकालके भाविक वृत्तान्त के वर्णनमे बहुत कुछ असम्बद्ध जानपडती हैं, और इनमे यह कथन अगले भविष्यकथन की प्रस्तावना या उत्थानिका की कोटिये और भी ज्यादा निकल जाता है तथा एक प्रलापके रूपमे ही रहजाता है । __ ग्रंथोंकी स्वत: स्वाध्यायकर लोग कहीं भक्त भट्टारकोके शासनसे निकल न जायं-उनपर नुक्ताचीनी करनेवाले तेरहपंथी न बनजायं-इसीसे शायद गुरुमुखमे शास्त्रश्रवणकी यह वात रक्खीगई जान पड़ती है । अनुवादकजीने 'ग्रन्थान् भव्या: गुरोरास्यात् शृणुध्वम्' का अर्थ "ग्रन्थोका स्वाध्याय गुरुमुखसे ही श्रवण करना चाहिये" देकर इसकी मर्यादा को और भी बढ़ा दिया है, परन्तु खेद है कि वे अपने इस वाक्यमे प्रयुक्त हुए 'ही' शब्दपर खुद अमल करतेहुए नज़र नहीं आते !! इन क्रियाओंके साथमें भविष्यका कोई वर्णन न रहनेसे इनका कथन प्रतिज्ञात भाविक वृत्तान्त के साथ औरभी असंगत होजाता है और बिलकुल ही निरर्थक ठहरता है। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४९ ] तादि जुदे जुदे द्रव्यों से पूजनका वहो राग पुनः छेड़ दिया है !! हां, बीच बीच में जब कहीं उन्हें दिगम्बर तेरहपन्थी नज़र पड़ गये हैं या उनसे भी चार कदम आगे तारनपन्थी और स्थानकवासो दिखलाई दे गये हैं तो भगवान् अपनेको संभाल नहीं सके, वे आधेशमें आकर एकदम उन पर टूट पड़े हैं और समवसरणमें बैठे बैठे हो भगवान्की उनके साथ अच्छी खासी झड़प हो गई है ! भगवान्ने उन्हें मूर्स, मूढ, कृतघ्न, गुरुनिन्दक, आगमनिन्दक, जिनागमप्रघातक, जैनेन्द्रमतघातक, मदोद्धत, कर, सुबोधलववर्जित, क्रियालेशोज्झित,वचनोत्थापक, मिथ्यात्वपथसवक, मायावी, खल, खलाशय, जड़ाशय, धर्मध्न, धर्मबाह्य, कापट्यपूरित,जिनाज्ञालोपक, कुमार्गगामी और अधम आदि कहकर अथवा इस प्रकारकी गालियां देकर ही संतोष धारण नहीं किया बल्कि उन्हे श्वपचतुल्य (चाण्डालोके समान) और सप्तम नरकगामो तथा निगोदगामी तक बतला दिया है!!! अभिषेक और पूजन क्रियाओंके सम्बन्धमें भविष्यवर्णना रूपले जो कथन किया गया है वह प्रायः उन्हींको लक्ष्य करके कहा गया है* । ये पंचमकालके (कलियुगी) लोग इन क्रियाओं * इस प्रकरणके भविष्यवर्णनावाले अधिकांश वाक्य इस प्रकार है, जिन्हें पढ़कर विज्ञ पाठक स्वयं जान सकेंगे कि वे तेरहपंथियों आदि को लक्ष्य करके ही लिखे गये हैं: (१) कलौ वै मानवा मूढा चाभिषेकक्रियामिमाम् । नूनमुत्थापयिष्यन्ति स्वस्वमतिविपर्ययात् ॥ ५०९ ॥ शास्त्राणां वचनं मूर्खा लोपयिष्यन्ति निश्चयात् । नूननं नूतनं मागं करिष्यन्ति स्वकीर्तये ॥ ५९० ॥ दास्यन्ति सर्वग्रन्थानां दोषं स्वमतिसम्बलान् । संस्कृतं प्राकृतं ग्रन्थं वाचयिष्यन्ति नैव च ॥ ५११ ॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५० ] को नहीं मानेंगे अथवा अमुक विधिसे अभिषेक-पूजा नहीं करेंगे, क्रियाओंका उत्थापन करेंगे, नया नया मार्ग चलाएंगे, स्वं स्वं कल्पित-वाक्यं च मानयिष्यन्ति ते नराः । जैनागमविनिमुका आचार्यागमनिन्दकाः ॥ ५१२॥ स्वस्वमतस्य पक्षस्य पालका गुरुनिन्दकाः । कृतघ्नाः ते भविष्यन्ति जैनेन्द्रमतघातकाः ॥ ५१३ ॥ [ इनके अनन्तर ही 'द्वितीया च क्रिया प्रोक्ता' इत्यादि रूपसे पूजन क्रियाका वर्णन है ।] (२) अनेन विधिना भूए कलौ मूढाश्च ये नराः । करिष्यन्ति जिनेन्द्राणां पूजा नव मदोद्धताः ॥६२३॥ तस्मिन् तदुजवाः क्रूराः सुवोधलववर्जिताः । वचनोत्थापका: स्वस्यागमस्यैव प्रतिश्चयात् ॥६२४॥ [इनके बाद 'भंगपूर्वानाराधीश स्थास्यन्ति मत्परं खलु' इत्यादि रूपसे भविष्यवर्णनाके जो चार श्लोक दिये हैं और श्लोक नं. ६४० तक भूतादिवर्णनाको लिये जो वाक्य दिये हैं उनका प्रस्तावित पूजन क्रियाके साथ कोई खास सम्बन्ध नहीं है।] (३) कलौ धर्मप्रकाशार्थं सर्वलोकस्य साक्षितः। नूतना स्थापना लोका: करिष्यन्ति च मायिनः ॥६४१॥ केचिच्च द्वषका माः केचिच्च सेवकाः खलु । एवं तस्मिन् भविष्यन्ति कलौ च मगधाधिप ॥६४२॥ जैनागमसुवाक्येषु बमीषा मगधेश्वर । निश्चयो न भविष्यति संशयाधीनचेतसाम् ॥६४३॥ अन्याना पूजकाः केचित् जिनविम्बस्य निन्दकाः । कलौ भेदाह्मनेके च ज्ञातव्या श्रोणिक त्वया ॥१४॥ वसुभूपालवत्स्वस्य मतस्य ते नरा: खलाः । हद पक्षं करिष्यन्ति सतपावनि दुःखदम् ॥६४५॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५१ ] शास्त्रोंके वचनका लोप करेंगे, ग्रंथोंको दोष लगाएंगे, संस्कृत प्राकतके ग्रंथ नहीं बाँचेंगे, अपनीही बुद्धिसे कल्पित किये (भाषा) ग्रंथोंको स्वाध्याय तथा पूजनादिके कार्यो में बतेंगे, ग्रंथोंके पजक तथा जिनबिम्बोंके निन्दकभी होंगे और जिनात. पुरुषों (भट्टारक गुरुओ) तथा साधर्मि पुरुषोंकी निन्दा करेंगे, इत्यादि कह कर और निन्दाके फलवर्णनकी अप्रासंगिक बात जिनासपुरुषाणां च केचिच्छाद्धानिका नराः । स्खला निन्दा करिष्यन्ति जिनागम-प्रघातकाः ॥६४६॥ पूर्वाचार्यकृता सर्वामभिषेकादिका क्रियाम् । तस्मिनु स्थापयिष्यन्ति ते मूढाः पञ्चमोडवाः ॥६४७॥ नूतनां नूतना सर्वा करिष्यन्ति जडाशयाः। ते नराश्च क्रिया भूप स्वस्वमतिविकरूपतः ॥६४६॥ वयं श्रद्धानिका यूयं मिथ्यात्वपथसेवकाः । मानयिष्यन्ति ते चिसे क्रियालेशोजिझताः खलु ॥६४९॥ स्वधीकल्पितग्रंथान् वै स्वाध्याये पूजनादिके । कार्ये प्रवर्तयिष्यन्ति नो तद्धिते खलाशया: ॥६५०॥ इत्थं जैनेन्द्रधर्मस्य मध्ये भेदोत्कराः खलु । तस्मिन्न व भविष्यन्ति स्वस्वमतविनाशकाः ॥६५॥ [ इसके पश्चात् हुडावसर्पिणी कालकी कुछ घटनाओंका उल्लेख ६६० नम्बर तक है।] (४) साधर्मि पुरुषाणां च निन्दा ते श्रावकाः बलाः । करिष्यन्ति कलौ भूप निन्दाया: किं फलं भवेत् ॥६६॥ [आगे नम्बर ६८१ तक निन्दाका फल दिया है। (५)ोवं सर्व भविष्यन्ति कलौ भूप न संशयः। स्वचित्त मानयिष्यन्ति वयं श्रद्धानिकाः खलु ॥ ६८२॥ ग्रंथलोपजपापेन ते च श्रद्धानिकाः खलु। नरकावनौ च यास्यन्ति सर्वे हि मगधेयर ॥६८३॥ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५२ ] उठाकर उसके बहाने उन्हें फिर प्रकारान्तरमे खूब कोसा गया है कहा गया है कि ऐसे निन्दक लोग अगले जन्ममें अन्धे, बहरे, गंगे, कुबड़े, सदा रोगी, विकलांगी, दारिद्री, नपुंसक, कुरूपो, असुरोले, दुःखभोगो, पुत्रपौत्रादि-रहित, सदा शोको, भाग्यहीन, दुर्बुद्धि, क्रूर, दुष्ट, खल, ज्ञानशून्य, मुन्यादि-वर्जित (साधु आदिके सत्संग रहित अथवा निगुरे), धर्ममार्गपरान्मुख, गुणमानविहीन और दूसरों के घर पर नौकर होते हैं (होगे); प्रतिपच्चन्द्रमाको तरह (शोध) मर जाते हैं, ८ . १२ वे, १६ वें वर्ष तथा जवानी में हो मरणको प्राप्त हो जाते हैं और इस लोक तथा परलोकमें धूर्त * बन जाते हैं । साथहो यहभी कहा गया है कि प्राणियों के शरीरमें जो भी कष्टदायक दुःख होते हैं वे सब परनिन्दाके फल हैं। और जो लोग प्रत्यक्षमें (सामनेहो) निन्दा करते हैं उन्हें चाण्डालके समान समझना चाहिये। * मूलमे 'धवाः' पद है और वह यहाँ धूतों का वाचक है। हेमचन्द्रादिके कोशों मे भो 'धवः धूर्ते नरेपत्यौ' आदि वाक्यों के द्वारा 'धव' शब्द को धूर्तवाचक बतलाया है। परन्तु अनुवादकसंपादक ब. ज्ञानचन्द्रजी महाराजने अपनी नूतनाविष्कारिणी शक्तिके द्वारा बड़ी निरंकुशताके साथ उसका अर्थ विधुर तथा विधवा कर दिया है और लिख दिया है कि "इस लोक तथा परलोक में विधुर अथवा विधवा हो जाते हैं" !! + फलादेशकी इस फिलासॉफ़ीने जैनधर्मकी सारी कर्म-फिलासॉफ़ीको लपेट कर बालाएतात रख दिया है ! * पिछले दोनों वाक्योंके सूचक श्लोक इस प्रकार हैं :ये ये दु:खाश्च जायंते प्राणिना दु:खदायकाः । ते ते ज्ञ याः शरीरेषु परनिन्दाया मो फलम् ॥ ६७९॥ प्रत्यक्षं येऽत्र मूढा वै निन्दा कुर्वन्ति सर्वदा। ज्ञयाः श्वपचसा तुल्याः स्वमतस्य क्षयंकराः॥१८॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५३ ] इसके बाद यह दुहाई देते हुए कि ग्रंथोंमें भद्रबाहु, माघनन्दी, जिनसेन, गुणभद्र, कुन्दकुन्द, वसुनन्दी और सकलकीर्ति आदि योगोन्द्रोंके द्वारा पूजा स्नानादिकी वे ही सब क्रियाएं रखी गई हैं जो वीतराग भगवान् तथा गणधरादिकने कही हैं, यहां तक कह डाला है कि उन क्रियाओंका उत्थापन करने वाले कपटी मनुष्य दुःखोंसे भरे हुए सातों नरकोंमें क्यों नहीं जायंगे ? भगवान के वचनको लोपनेसे मूढ मानी पुरुष निश्चयही नाना दुःखों की खान निगोदों में पड़ेंगे । अन्तमें बहुत कुछ संतप्त होकर भगवान उन तेरहपन्थियों आदिको सम्बोधन करते हुए उनसे इस प्रकार पूछने और कहने लगे हैं - 'बतलाओ तो सही, किस ग्रंथके आधार पर तुमने गृहस्थोंकी इन छह क्रियाओं (पंचामृत अभिषेक, भगवत् चरणों पर गंधलेपनको लिये हुए सचित्तादि द्रव्योंसे पूजा, स्तुति, जप, ध्यान, गुरुमुख से शास्त्रश्रवण ) का लोप किया है ? यदि तुम्हारे जिनागम की श्रद्धा है तो प्रतिदिन छह क्रियाओंको करो । मूढ़ो ! हृदयोक्तिको छोड़ो और वसु राजाकी तरह ग्रंथों का लोप मत करो। अहो मूर्खो ! मतिश्रुतावधिनेत्रधारक यो गियोंने तो इन अभिषेकादि संपूर्ण क्रियाओं में कोई दोष देखा नहीं, तुम्हारे तो मूढ़ो ! मतिज्ञानादि सद्गुण अल्प मात्रा में भी दिखाई नहीं देते, फिर बतलाओ तुम बुद्धिविहीनोंने किस ज्ञान से अभिषेकादि क्रियाओंमें प्रदोष देखा है ? प्रभुके चरणों पर चन्दनादिसे लेप करनेमें क्या दोष है ? दीपकका उद्योत करने + तत्क्रियोत्थापकाः किन्न यास्यन्ति ये च सप्तसु । श्वभ्रषु दुःखपूर्णेषु नरा: कापट्यपूरिताः || ६९४ ॥ प्रभोर्वाक्य प्रलोपेन ते मूढा मानसंयुताः । यास्यन्ति वै निकोतेपु नानादुःखकरेषुच ||६९८ || Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५४ ] में, जिनांकस्थित यक्षोंका पूजन करनेमें, धूप जलाने में, रात्रि को पूजन करनेमें, जिनातपुरुषों (भट्टारकों) के मार्गवर्धक वात्सल्य में, पुष्पसमूह से जिनचरणकी पूजा करनेमें और केला, आम तथा अंगूरादि फलोंसे पूजा करनेमें क्या दोष है ? इत्यादि संपूर्ण क्रियाएं जिननाथने आगममें कही हैं, तुमने अपनो मूढबुद्धिसे उन्हें छोड़ दिया है । अतः तुम जिनेन्द्रकी आशा भङ्ग करने वाले और कुमार्गगामी हो, श्राद्ध ( श्रद्धावान् श्रावक) नहीं हो, जिनाशाके लोपले निष्फल हो गये हो । जहाँ आशा (आज्ञापालन ) नहीं वहाँ धर्मका लेशभो नहीं, अतः तुम निःसन्देह कुद्धा पालक हो। अरे! जिनवचन में यदि तुम्हारी दृढ़ श्रद्धा हो तो अभिषेकादि सत्क्रियाओंको अङ्गीकार करो। मूढो ! बतलाओ तो सही, किसको आशासे तुमने अभिषेकादि मुख्य क्रियाएं छोड़ो है ? प्रन्थ खोलकर दिखलाओ। दुष्टो ! बोलो, ग्रंथोंके अनुसार तुमने ये क्रियाएं छोड़ी हैं या अपनी मतिके अनुसार ? जिनमुखोत्पन्न प्रथोंकी आशा तो तोमो लोकमै सभी देवेन्द्र, नरेन्द्र, नागेन्द्र और खचरेन्द्र मानते हैं, जिनेन्द्रकी आशाके बिना सुरेन्द्र कहीं भी कोई काम नहीं करते, फिर बतलाओ अरे मत्यों ! तुमने परम्परा से चली आई इन अभिषेकादि क्रियाओंको कैसे उत्थापित किया है ? जिनाशा लोपनेकी सामर्थ्य तो देवेन्द्रोंकी भी नहीं होती, मूढो ! तुमने कैसे उसका लोप कर दिया ? क्या तुम उनसे भी बड़े हो और इसलिये तुमने सर्वेन्द्रपूज्य प्रभुके वाक्य का उत्थापन कर दिया है ? अरे मूर्खो ! बोलो, क्या ये सब क्रियाएं असत्य हैं ? यदि असत्य है तो फिर सारे ग्रंथ झूठे ठहरेंगे। तुम्हारे यदि जिनागमकी श्रद्धा है तो फिर आगम वाक्यके अनुसार क्यों नहीं चलते ? पक्षपातको छोड़ो और प्रथपक्ष के अनुसार 'चलो ।' Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५] जिन वाक्यांका सार दिया गया है वे क्रमशः इस प्रकार है: भवद्भिः केन प्रन्थेन वक्तव्यं खलु लोपिताः। षट् क्रियाः जिननाथेन इमाः प्रोक्ताश्च गहिनाम् ॥६०॥ स्यात् यदि दृढ़श्रद्धा वै भवतामागमस्य च । कुरुध्वं जिननाथस्य षट् क्रियां वासरं प्रति ॥३१॥ त्यजध्वं हृदयोक्ति च वसुभूपालवत् खलु । ग्रन्थानां लोपनं मूढा मा कुरुध्वं मतापहम् ॥६२॥ मातिश्रुतावधिनेत्रधारकाणां च योगिनाम् । गृहस्थधर्मव्याख्यानं कुर्वतां च विमानिनाम् ॥१३॥ तेषां नैव ह्यहो मूखा दोषो दृष्टोकिमप्यहो । अभिषेकादिसर्वासु क्रियासु विदितेषु वै ॥६॥ भवतां नैव भो मूढा मतिज्ञानादिसद्गुणाः । चाल्यमात्रापि दृश्यते सर्वद्वापरनाशकाः ॥६॥ वक्तव्यं केन ज्ञानेन भवाद्भिः मतिवर्जितः । किं दृष्टश्च प्रदोषों वे अभिषेकादिषु खलु ॥६६॥ दोषः किंस्यात्पभोः पादलेपने चन्दनादिभिः। दीपस्योद्योतने किं च जिनांकयवपूजने ॥६७॥ धूपोत्करस्य दहने निशायाः पूजने तथा । जिनात्तपुरुषाणां च वात्सल्ये मार्गवर्द्धके ॥१८॥ पुष्पोत्करैः जिनेन्द्रस्य पादाम्बुजपूजने खलु । केलाम्रगोस्तनी चान्यत्कलोत्करैः प्रपूजने ॥१६॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५६ ] इत्याद्या याः क्रियाः सर्वा जिननाथेन वर्णिताः। आगमे तत् भवद्भिश्च त्यक्ता भो मूढबुद्धितः ॥७॥ अतः यूयं जिनेन्द्रस्य आज्ञानाश्च कुमार्गगा। न श्राद्धा निःफला जाता जिनाज्ञालोपतः खलु ॥७१॥ यत्राज्ञा न च तत्रापि धर्मलेशोऽपि नास्ति वै । अतो यूयं कुश्रद्धायाः पालकाश्च न संशयः ॥७२॥ यदि स्यात् दृढ श्रद्धा वै भवतां तद्वचनस्य च । तदा ागीकुरुध्वं भो स्नपनादिसक्रियाम् ॥७३॥ आख्यापर्यथ मूढाः कस्याज्ञया स्नपनादिकाः। यूयं त्यक्ताः क्रिया मुख्या ग्रन्थपक्षं प्रदय॑थ ॥७४॥ अन्धानुसारतः त्यक्ताः वदध्वं च क्रियाः खलाः। इमे यूयं तथा कि च स्वमतेः सारतः खलु ॥७॥ जिनाननसमुत्पन्नग्रन्थाज्ञां भुवने त्रये । देवेन्द्रा वा नरेन्द्राश्च नागेन्द्राः खचरेश्वराः ॥७६॥ सर्वे ते मामयन्त्येव निःशंकां निखिलार्थदाम् । मति श्रुतावधिश्लिष्टशुद्धग्धारकाः खलु ||७७॥ क्वचिदपि जिनेन्द्रस्य चाज्ञा ऋते सुरेश्वराः। न कुर्वन्त्यपरं कार्य नानाभवप्रदायकम् ॥७॥ यूयं वदथ भो माः पारंपर्यात्समागताः । भवद्भिरभिषेकाद्याः कथमुत्थापिताः खलु ॥७॥ सुरेन्द्राणामपि नैव सामर्थ्य स्यात्कदाचन । जिनाज्ञालोपने मूढाः भवद्भिः लोपिताः कथम् ॥८॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५७ ] यूयं तदधिकाः कि वै अतः उत्थापितं प्रभोः। वाक्यं सर्वेन्द्रपूज्यं च सर्वत्रापि निरंकुशम् ॥१॥ वदध्वं पुनः भो मूर्खा ह्यसत्याः स्युरिमाः क्रियाः । सर्वे ग्रन्था असत्याः स्युः सर्वसन्देहनाशकाः ॥८२॥ युष्माकं यदि श्रद्धा स्यात् दृढ़ा जिनागमस्य वै । तदा किं न कुरुध्वं भो तन् वाक्यं शिवदायकम् ॥३॥ पक्षपातं त्यजध्वं च ग्रन्थपक्षं जगन्नुत्तम् । यूयं श्रद्धानिका नित्यं कुरुध्वं धर्मसिद्धये ॥४॥ -पृष्ठ १६३ से १६७ पाठकजन ! देखा, कितनी भारोझडपका यह उल्लेख है ! इसी तरहका और भो कितनाही संघर्षात्मक क्थन है, जो भट्टारकोंको-प्रन्थकारकं शब्दों में जिनात्तपुरुषों को-गुरु न माननेसे सम्बन्ध रखता है, जिसमें भट्टारकोंको गुरु न माननेवालोंको सप्तम नरकगामी तक बतलाया है !* और जिसे यहां छोड़ा जाता है । अस्तु; इतनो खैर हुई कि ग्रंथकारने उत्तर में तेरहपन्थियोंको कुछ बोलने नहीं दिया, नहीं तो समवसरण सभाका रंग कुछ दूसरा ही हो जाता! और इस तरहसे निरर्गल बोलने तथा पूछने वाले भगवान्के ज्ञान-विज्ञानकी सारी कलई खुल जाती !! ___इस प्रकार ग्रंथकारने अपनी इस कृतिद्वारा भगवान् महावीर जैले परमवीतरागी और ब्रह्मज्ञानी पूज्य महान पुरुषको एक अच्छा खासा पागल, विक्षिप्तचित्त, अविवेको, कषायवशवर्ती * येऽधमा नैव मन्यन्ते गुरु ज्ञानस्य दायकम् । ते यास्यन्ति न संदेहः सप्तमे वभ्रकूपके ॥ पृ०॥ १७७॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५८ ] और कलुषितहृदय, क्षुद्रव्यक्ति प्रतिपादित किया है। उसका यह घोर अपराध किसी तरह भी क्षमा किये जानेके योग्य नहीं है। एक म्वार्थसाधु पामर मनुष्य अपनो स्वार्थसाधना में अंधा होकर और कषायोंमें डूब कर जाने-अनजाने पूज्यपुरुषों तक को कितना नीचे गिरा देता है, यह इस प्रकरण से बहुत कुछ स्पष्ट है, जिसमें यहां तक चित्रित किया गया है कि भविष्य में एक खास ढंग से अभिषेकपूजाको न होते हुए देखकर भगवान् एक दम बिगड़ बैठे हैं ! ग्रंथकारने अपनो कुत्सित वासनाओं और कषायभावनाओंको चरितार्थ करने के लिये भगवान् महावीरके पवित्र नामका आश्रय लियाहै,उसे अपना आला अथवा हथियार बनाया है अर्थात् बातें अपनो, कहनेका ढंग अपना और नाम भ० महावोरका! उसकी इस कृतिमें साफ तौर पर भट्टारकानुगामियोंकी तेरहपंथियोंके साथ युद्धको वही मनोवृत्ति काम करती हुई दिखलाई दे रही है जिसका पहले लेखमें उल्लेख किया जा चुका है। इसके सिवाय इस सारे वर्णनमें और कुछ भी सार नहीं है। भगवान् महावीर जैसे परम विवेकी और परम संयमी आप्तपुरुषोंका ऐसा असम्बद्ध, सदोष और कषायपरिपूर्ण बचनव्यवहार नहीं हो सकता । ऐसे बचनों अथवा प्रयों को जिनवाणी कहना-जिनमुखोत्पन्न बतलाना-जिनवाणीका उपहास करना है। यदि सचमुच जिनवाणी का ऐसा ही रूपहो तो उसे कोई भी सुशिक्षित और सहृदय मानव अपनानेके लिये तय्यार नहीं होगा। इसके सिवाय, किसी भी सभ्य मनुष्यको यह बात पसंद नहीं आती कि वह अपनी पूजा प्रशंसाके लिये दूसरों को साक्षात् प्रेरणा करे, फिर मोहरहित वीतरागी आतपुरुषोंकी तो बातही निराली है-उन्हें वीतराग होने के कारण पूजाप्रशंसा से कोई प्रयोजन ही नहीं होता; जैसाकि स्वामी समन्तभद्र के Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५५ । न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे जैसे वाक्यसे प्रकट है। उनके द्वारा इसतरह विस्तारपूर्वक और लड़झगड़कर अपनी पूजाअर्वाका विधान नहीं बन सकता । स्वामी पात्रकेसरीने तो अपने स्तोत्रमें 'त्वया ज्वलितकेवलेन न हि देशिताःकिन्तु तास्त्वयि प्रसृतभक्तिभिः स्वयमनुष्ठिताः श्रावकैः' जैले वाक्य द्वारा स्पष्ट बतला दिया है कि केवलशानी भगवान्ने इन पूजनादि क्रियाओंका उपदेश नहीं दिया; किन्तु भक्त श्रावकोंने स्वयं हो ( अपनी भक्ति आदि के वश होकर ) उनका अनुष्ठान किया है-उन्हें अपने व्यवहार के लिये कल्पित कियाहै। और यह बहुत कुछ म्वाभाविक है। ऐसी हालतमें भगवान् महावोरके मुखसे जो कुछ यद्वातद्वा अपनी इच्छानुकूल कहलाया गया है और उसमें तेरहपन्थियों आदिके प्रति जो अपशब्दोंका व्यवहार किया गया है उससे भगवान महावीरका कोई सम्बन्ध नहीं है. उनका ज़रा भी उसमें हाथ नहीं है-वह सब वास्तव में प्रन्थकारक संतप्त एवं आकुल हृदयका प्रतिबिम्ब है, उसकी अपनी चित्तवृत्तिका रूप है, और इसलिए उसकी निजी कृति है। अपनी कृतिको दूसरे को प्रकट करना अथवा उसके विषय में ऐसी योजना करना जिससे वह दूसरे की समझली जाय, इसोका नाम जालसाज़ी है और इस जालसाज़ी से यह प्रन्थ लबालब भरा हुआ है। इसलिए इसे जाली कहने में ज़रा भी अत्युक्ति नहीं है। अपनी इस कति परसे ग्रन्थकार पंडित नेमिचन्द्र इतना मूर्ख मालूम होता है कि उसे प्रन्थरचनाके समय इतनी भी तमीज़ (विवेक-परिणति ) नहीं रही है कि मैं कहना तो क्या इस विषयके विशेष विवेचनादिके लिये लेखककी उस लेखमालाको देखना चाहिये जो कुछ वर्ष पहले 'उपासना-विषयक समाधान' नामसे जैनजगत्में प्रकट हुई थी। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६० ] चाहता हूं और कह क्या रहा हूं! वह कहने तो चला भगवान महावीरके मुखसे निकला हुआ अविकल भाविक वृत्तान्त और सुना गया अपने संतप्त हृदयकी बेढंगी दास्तान !! जिस परनिन्दाको उसने इतनी बुराईको और जिसका इतना भारो भयदूर परिणाम बतलाया, उसोको उसने खुद अपनाया है और उससे उसका ग्रंथ भरा पड़ा है !!! क्या दूसरोंको उपदेश देना ही पंडिताईका लक्षण है-खुद अमल करना नहीं ? समझमें नहीं आता, आचार्य कहलाने वाले शांतिसागर. जोने ऐसे कषायवर्धक और साम्प्रदायिक विद्वेषमूलक जाली ग्रंथ को कैसे पसंद किया, क्यों कर अपनाया और किस तरह वे उसकी प्रशंसा करने बैठ गये!! क्या उन्होंने भगवान् महावीर को ऐसा हो कलुषितहृदय, अविवेकी, असभ्य और योंहो हवासे बात करनेवाला उन्मत्त प्रलापी एवं क्षुद्र प्राणी समझा है ? क्या इसी रूपमें उनके ऐसे ही गुणोंका चिन्तवन करते हुएवे उनका ध्यान किया करते हैं ? और ऐसेहो बेढंगे प्रन्थोंको वे जिनवाणी समझते हैं ? अथवा यह समझ लिया जाय कि ये खुद भी ग्रंथकारके रंगमें रंग हुए हैं ? बड़ो ही कृपा हो यदि आचार्य महाराज स्वयंहो इस विषयका खुलासा प्रगट करने का कष्ट उठाएँ । और यदि वस्तुतः किसीके प्रभावमें पड़कर या वस्तुस्थितिको ठीक न समझनेक कारण उनसे भूल हो गई है तो उसका खुले दिलसे प्रायश्चित्त कर डालें, और अपने संघमें ऐसे क्षित प्रन्थों के प्रचार को रोक देखें । इसीमें उनके पदकी शोभा है। ५ हूँ ढियों पर गालियों की वर्षा दिगम्बर तेरहपन्थियोंसे उस मारो झडपके बाद जिसका ऊपर नं०४ में उल्लेख किया जाचुका है, भगवान महावीर, Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६१ । अपनो उसो भाविक वृत्तान्त वर्णनाके सिलसिलेमें, राजा श्रेणिकको ढूंढियों (स्थानकवासी जैनों) का कुछ वर्णन सुनाने बेठे हैं, जिसे प्रथम 'हूँढकमतोत्पत्ति' नाम दिया गया है। परन्तु ढूँढक मतको उत्पत्तिका इस प्रकरणमे प्रायः कुछ भी इतिहास नहीं है-सिर्फ इतना कहा गया है कि श्वेताम्बर मतमें लुंका (लौका शाह ) सम्बत् १५२७ में उत्पन्न हुआ । उसके मतमें बहुतसे भेद हुए, कोई जिनपूजाके निन्दक है, कोई जिन बिम्बोंक दर्शन-पूजनसे पराङ्मुख हैं, कोई तीर्थयात्राओं को निन्दा करते हैं, कोई जैनमन्दिरों तथा प्रतिष्ठाओंके निषेधक हैं, और ये सब जिनमार्गके नाशक हुए हैं (बभूवुः)। बाकी सारा प्रकरण दिगम्बर तेरहपन्थियोंको तरह दूढियोंके साथ भगवान्के लड़ने झगड़ने, उनकी पूजनादिसम्बन्धी कुछ मान्य. ताओंका खण्डन करने और उनपर अविश्रान्त गालियोंकी वर्षा से भरा हुआ है। मालूम होता है 'अथापरंशृणुध्वं भो', इन शब्दोंके साथ प्रकरणका प्रारम्भ करतेही भगवान् एक दम विचलित हो उठे हैं, उन्होंने भविष्यवर्णनाको अपनी बात (प्रतिज्ञा) को भुला दिया है और वे ढूंढियोंकी उत्पत्तिका वर्णन एक अतीत घटनाके रूपमें करने चले हैं ! उन्होंने उसके लिये प्रायः आसीत. अभूत, जाताः, बभूवुः जैसी भूतकालीन क्रियाओंका प्रयोग किया हैx और उनके द्वारा यह सूचित * यह पूरा श्लोक इस प्रकार है: अथापरं शृणुध्वं भो स्वेतवासोमते खलु। लुक्काभिधः कुधीरासीत्सर्वधर्मविनाशकः ॥१४॥ x अनुवादकको भी यह बात कुछ खटकी है और इसलिये उसने कहीं कहीं हिन्दी पाठकोंको धोखेमें डालते हुए, भूतकालकी क्रिया का अर्थ भविष्यकालकी क्रियामे दे दिया है। -देखो, पृष्ठ १८० । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६२ ] किया है कि ढूंढकमत (स्थानकवासी सम्प्रदाय) की उत्पत्ति उनसे पहलेही हो चुकी थो; इतनाही नहीं बल्कि निन्न वाक्य द्वारा वे यहाँ तकभी स्पष्ट कह गयेहैं कि इस वक्त हूँ ढिया लोग सब जगह खूब फैले हुए हैं !!t नाम्ना ढूंढ्याश्च विख्याता क्रियाकर्मविवर्जिताः । सर्वत्र विस्तृता ते च ह्यधुना भो बुधोत्तमाः ॥१५२॥ इसके सिवाय, भगवानने, भो लुकमतधारकाः, भो लुंकाः, भो ढूंख्याः, इत्यादि सम्बोधन-पदोंके द्वारा ढूंढियोंको साक्षात् सम्बोधन करके कितनोही बाते गद्य-पद्यमें कही हैंउन्हें पूजनविधान तथा जिनबिम्बदर्शनादिके लिये, क्रोध भरे अपशब्दोंके साथ, उनके पैतालीसा +, जोवाभिगम, शाताकथा, उपासकदशा, सूत्रकृतागम और भगवतीस्त्रादि ग्रन्थोंको देखने. उनके अनुसार चलने अथवा उनका लोप कर देनेको भो कहा + अनुवादक ब्रह्मचारी ज्ञानचन्द्र (क्षुल्लक ज्ञानसागर ) जीने श्लोकके उत्तरार्द्धका, जिसमे यह बात कही गई है, अर्थ ही नहीं दिया और न यही सूचित किया कि इस वाक्यका अर्थ उनमे नहीं बन सका, जो अतिसुगम है ! यह है आपके निष्कपट व्यवहारका एक नमूना !! आपकी लीलाओके विशेष परिचयके लिये तो 'अनुवादककी निरंकुशता' वाले प्रकरणको देखिये। पैंतालीसाभिधे अन्ये' इन शब्दों में पैंतालीस' या 'पैतालीसा नाम के जिस ग्रन्थ का उल्लेख किया गया है उस नामका कोई एक ग्रन्थ हटियोंके यहाँ देखने अथवा सुननेमें नहीं आता। संभव है कि यह श्वेताम्बरोंके ४५ आगम ग्रंथोंकी तरफ ही मूर्खतापूर्ण इशारा हो, जिनमें से हूँ दिया भाई बहुतसे ग्रंथोंको प्रमाण नहीं मानते। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६३ ] है। कुछ बातोंका दूँढियोंने उत्तरभी दिया है जिसका उल्लेख प्रन्थमें निम्न प्रकारकं वाक्योंके साथ किया गया है: ढूंढ्या इत्युत्तरं श्रुत्वापि स्वपक्ष-पालनार्थमित्यूचुः । इति श्रुत्वापि पुनः लुकमतधारका ढूंढ्या इत्याहुः । इससे जान पड़ता है कि बहुतसे हूँ ढिये भगवानके समवसरणमें पहुँच गये थे ! उन्हें अपनी सभामें साक्षात् सामने बैठे देखकर भगवान श्रेणिकको कथा सुनानोभी भूलकर इतने आवेशमें भर गये और इतने उत्तेजित हो उठे कि वे अपनेको संभाल नहीं सके और इसलिये उन्होंने, जो कुछ कहती अनकहनी थी, वह सब कह डाली ! उन्होंने सब हूँढियोंको मूर्ख, मूढ, मृढमानस, मूढचित्त, महामुढ, सुबोधलववर्जित, मतिवर्जित, निर्विचार, मतिहीन, ज्ञातिहीन, क्रियाहोन, सर्वहोन, क्रियाकर्मविवर्जित, जिननिन्दक, जिनानाविमुख, धर्मलोपक, जिनमार्गनाशक, जिनधर्मनाशक, जैनघातक, जिनन, जिनागमन, जिनवाक्यन, जिनमंत्रराजन, सर्वन, मदोद्धत, मदोन्मत्त, खल, खलात्मा, खलाशय, क्रूर, अशुद्ध, असाधु, कुकुलान्वित, ज्ञानलेशोज्झित, भक्ष्याभक्ष्यविधेकरहित, भ्रष्टाचारो, अधम आदि कहकरही सन्तोष धारण नहीं किया, बल्कि उन्हें बगुलों से भी गये बीते, श्वपचवत्, निशाचरसम, जनंगमोपम (चाण्डालतुल्य), चाण्डालो से भी होन, म्लेच्छाचारप्रपालक, म्लेच्छ, जीवभक्षक, पशुतुल्य, दुर्गतिगामी और निगोदगामी तक कह डाला है !! इस प्रकरणके पिछले कुछ थोड़ेसे वाक्य नमूने के तौरपर इस प्रकार हैं: हंसा हंसा: हि भो मूर्खा: बका बकाश्च सुन्दरा। यूयं च बक-तुल्यापि नो सन्ति ध्यानमानसाः ॥३॥ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६४ ] क्रियालेशोऽपि नास्त्येव भवतां च खलात्मनाम् । यत्र नास्ति क्रियाशुद्धिः धर्मोपि तत्र नास्ति वै ॥४॥ प्रत्यक्षं भवतां मूढाः म्लेच्छाचारों हि दृश्यते । अतः स्युः तत्समाः यूयं भ्रष्टाचारस्य पालनात् ॥८॥ जिह्वास्वादेन युष्माभिः सर्वांचारः सुशोभनः । त्यक्ता (क्तो) ऽतः सर्वधर्मोपि मुनिगृहस्थगोचरः॥८६॥ प्रासुकं प्रासुकं कृत्वा सर्ववस्तुकदम्बकम् । भवद्भिश्च क्रियाहीनः सर्व चंगीकृतं ननु ॥७॥ भक्ष्याभक्ष्यविवेकोपि युष्माकं नास्ति किचनः। दृश्यते श्वपचो यद्वत् तद्वत् यूयं न संशयः ॥८॥ ज्ञातिहीनाः क्रियाहीनाः जिनविम्बस्य निन्दकाः । यूयं च सर्वहीनाः स्युर्यथा म्लेच्छाः तथा खलु ॥८६॥ खाद्याखाद्यस्य भेदो न म्लेच्छानां च खलात्मनाम् । यथा स्यात् किंचनो लुका युष्माकमपि सो नहि ॥३०॥ स्वस्वधर्मे रताः सर्वे स्वस्वदेवस्य पूजकाः। यूयं हि जिनधर्मस्य नाशकाः स्युः न संशयः ॥१॥ तनोः हि नवद्वाराः स्युः भो लुका तान् कथं खलाः । बन्धयथ सुचेलेन जीवानां रक्षणाय नो ॥१४॥ बन्धयथ नवद्वारान् लुंकाः त्यजथ भो खलाः । वक्त्रस्य बन्धनं नूनं यूयं सत्या यदि खलु ॥१५॥ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६५ । वासोयोगात्समीरस्य कीलालस्य च निश्चयात् । जीवोत्कराश्च श्रास्ये वै उत्पद्यन्ते खलाशयाः ॥१६॥ तत्रैव ते च म्रियते सदाकालेत्र संशयः। नो यूयं पश्यथ लुकाः ग्रंथेषु सकलेषु च ॥१७॥ अतो यूयं च प्रत्यक्षं निशाचरसमाः खलाः। जीवानां भक्षणात् स्युःहि ते हि जीवस्य भक्षकाः॥१८॥ रक्षथ नैव रात्रौ च प्रासुकं चोदकं खलु ।। यदि स्यान्मलमूत्रादेरुत्पत्तिः मां खलाः स्फुटं ॥६॥ वदथ कुरुथ कि च तत्र तत्शुद्धये तदा । कि न कुरुथ भो लुका यदि श्वपचसोपमाः ॥१०॥ कथं जपथ नोकारं सामायिकं पठथ च । अशुद्धे सर्व व्यर्थ स्यात् शुचिःसर्वत्र सम्मता ॥१०१॥ ईदृश्यं निद्यकर्म च नो कुर्वन्ति खलाः स्फुटं । मातंगापि क्रियाहीना व्रतकर्मविवर्जिताः ॥१०२॥ जनंगमोपमा यूयं कि स्युः भो जिनानन्दकाः । नो संति तत्समाप्येव तद्धीना नात्रसंशयः ॥१०३॥ भो म्लेच्छाः ईदृशं कि स्यात् साधुजनस्य लक्षणं । वयं हि साधवो लोके इत्यसत्यं वदथ मा ॥१०४॥ अतो भो कुक्रियां त्यक्त्वा क्रियां शुद्धा सुखास्पदा । पालयत प्रयत्नेन जिनवक्त्रसमुद्भवाम् ॥१०॥ यायाध कुगतिं मूढा यूयमाचारवर्जनात् । मा भजथाविवेकं च धर्ममार्गस्य नाशकाः ॥१०६॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनबिम्बं जिनागारं जिनसिद्धान्त-पुस्तकं । जिनमतस्थं दयाभावं जिनयात्रां जिनोत्सवम् ॥१०७॥ जिनधर्म प्रभोवांचं धर्माब्धिसोमसदृशं । इत्याद्यान् ये च लोकाश्च निन्दयन्त्येव ते मताः॥१०॥ म्लेच्छाश्च जिनधर्मस्य नाशकाच जिनागमे । इति ज्ञात्वा न कतव्या निन्दा विम्बस्य भो खलाः॥१०॥ इत्युपदेशमस्माभिदत्तो भवतां खल । अहंकारमदान्नैव तद्धि भद्रार्थमेव च ॥११०॥ निकोतेः यदि वाछा चेत् यष्माक स्यात्खलाः स्फुटं । तदा करुथ बिम्बस्य निन्दां धर्मस्य नाशिनीम् ॥१११॥ -पृष्ठ २०२ से २०६ इन वाक्योंमें भगवान हूँ ढियासे कहते हैं-"अरे मूखों ! हंस हंस ही होते हैं और सुन्दर बगुले, बगुल ही,परन्तु तुम तो बगुलों के बराबर भी ध्यानी नहीं हो । तुम दुष्टात्माओंके तो क्रियाका लेशभो नहीं है, और जहां क्रियाशुद्धि नहीं वहा धर्म भी नहीं होता । मूढो ! तुम्हारे तो प्रत्यक्ष लच्छाचार दिखलाई पड़ता है, अतः तुम भ्रष्टाचारके पालने से म्लेच्छोंके समान हो । जिह्वास्वादकं वशवर्ती होकर तुमने सारा शोभना. चार त्याग दिया है और इसलिये मुनिगृहस्थ-सम्बन्धी सारे धर्मसे हो तुम हाथ धो बैठे हो। तुम क्रियाहीनांने प्रासुक प्रासुक करके सारी वस्तुओं को हो अंगीकार कर लिया है। तुम्हारे भक्ष्याभक्ष्य का कुछभी विवेक नहीं है। जिसतरह चाण्डाल दिखाई देता है उसीतरह तुमभी दिखाई पड़ते हो, इसमें सन्देह नहीं। तुम जिनबिम्बकी निन्दा करने वाले जाति Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६७ ] होन हो, क्रियाहीन हो और सबमें होन (नीच) हो, जैसे म्लेच्छ होते हैं वैसे हो निश्चय से तुम हो । म्लेच्छोंके और दुष्टात्माओंके जैसे खाद्य अखाद्य का कुछ भेद-विचार नहीं होता वैसेही लुंकाओ! तुम्हारे भी खाद्य अखाद्यका विचार नहीं है । सब लोग अपने अपने धर्ममें लोन और अपने अपने देवके पूजक हैं परन्तु तुमतो निःसन्देह जिनधर्मके नाशक ही हो। x x x हे लुकाओ ! शरीरके नवद्वार होते हैं, तुम अधमजन जीवोंकी रक्षाके लिये उन सबको कपड़ेसे क्यों नहीं बांधते ? हे लुंकाओ! खलपुरुपो ! यदि तुम सच्चे हो तो या तो नवोंद्वारोंको कपड़ेसे बांधो और नहीं तो मुख पर पट्टी बांधना भी छोड़ो । दुगत्माओ ! वस्त्र, वायु और थूकके योगसे जोवों के समूह मुखमें उत्पन्न हो जाते हैं और सदा वहीं मरते रहते हैं, इसमें संशय नहीं है। तुम सब प्रन्थों में इस बातको देख सकते हो । अतः दुष्टो ! जीवोंके भक्षणसे तुम साक्षात् निशाचरों (गक्षसों) के समान हो। निशाचर भी जीवभक्षक होते हैं । तुम रातको प्रासुक जल नहीं रखते । यदि उस समय मलमूत्रादिकी उत्पत्ति हो तो दुर्जनो! मुझे बतलाओ उसकी शुद्धिके लिये तब क्या करते हो ? यदि कुछ नहीं करते हो तो चाण्डाल को समान हुए कैसे नमोकार मंत्रका जप करते और सामायिक पाठ पढ़ते हो ? अशुद्ध अवस्था में तो सबकुछ करना व्यर्थ है, सब जगह पवित्रता को माना गया है। 8 यहाँ शायद भगवान को अपने शासनके और ग्रन्थकार को देवपूजा के निम्न वाक्यों का स्मरण ही नहीं रहा: अपवित्रः पवित्रो वा सुस्थितो दुःस्थितोऽपि वा। ध्यायेत्पंचनमस्कार सर्वपापैः प्रमुच्यते ।।१।। अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थांगतोऽपि वा । यः स्मरेत्परमात्मानं स वाद्याभ्यन्तरे शुचिः ॥२॥ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MARATHI [६८ ] पापियो ! ऐसा निंद्यकर्म : तो व्रतकर्म विवर्जित और क्रियाहोन मातंग (चाण्डाल ) भी नहीं करते हैं । अरे जिननिन्दको! तुम चाण्डालोंकी बराबर भी कैसे हो सकते हो, तुम तो उनके बराबर भी नहीं हो, किन्तु निःसन्देह उनसे होन हो । अरे म्लेच्छो ! यह क्या साधुजनका लक्षण है ? हम साधु है-ऐसा झूठ मत बोलो । अरे ! कुक्रियाको छोड़कर जिनभाषित शुद्ध सुखकारी क्रियाका यत्नसे पालन करो। मूढो! तुमने आचार त्याग दिया है इससे दुर्गनिको जाओ; धर्ममार्गके नाशको ! अविवेकको मत धारण करो। जो लोग जिनबिम्ब, जिनमंदिर, जिनसिद्धान्तपुस्तक, जिनमतस्थ, दयाभाव, जिनयात्रा, जिनोत्सव, जिनधर्म और प्रभुके वचनादिको निन्दा करते हैं, वे जिनागममें मटेच्छ तथा जिनधर्मके नाशक माने गये हैं। ऐसा जानकर, अरे दुष्टो ! बिम्बकी-मूर्तिको-निन्दा नहीं करनी चाहिये । हमने जो आपको यह उपदेश दिया है वह अहंकारमदसे नहीं दिया किन्तु हितके लिये ही दिया है। यदि दुष्टो ! तुम्हारी निगोद जाने की इच्छा है तो खूब मूर्ति की निन्दा करो, जो धर्मका नाश करने वाली है।" पाठकजन ! देखा कितनी भारी गालियोंकी यह वर्षा है ! पदपद पर और बातयातमें हूँ ढिया भाइयों के प्रति कितना निर्हेतुक अपशब्दोंका व्यवहार किया गया है !! कैसा दांत पोस पोसकर उन्हे कोसा गया है !! और उनपर कैसे नोचसे नीच आक्रमण किये गये हैं !!! भगवान महावीरका परम संयत मुख और ये शब्द !-ये कषायसे पूरित और संतप्त हृदयके उद्गार !! क्या कोई महावीरका सहृदयभक्त इन्हें भगवान यहाँ 'ईदृश्यं निन्धकर्म' का अर्थ अनुवादकने "अपने मूत्र से अपनी शरीर की शुद्धि" दिया है, जो बिलकुल मनगढन्त तथा शरारतसे भरा हुआ है !! Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६९ ] महावीर के मुखसे निकले हुए शब्द मान सकता है ? अथवा कोई विवेकी पुरुष भाषासमिति और वचनगुप्तिकी चरमसीमाको पहुँचहुए एक सर्वश वीतराग तथा निर्मोही महात्माकी ओर से उसीके उपासकोंके प्रति ऐसी सभ्य और शिष्ट वचनवर्गणाकी कल्पना करसकता है ? कदापि नहीं । यह सब प्रन्थकार की साम्प्रदायिक कट्टरताके कुपरिणामस्वरूप उसकी निजी लोला, चालाकी, जालसाज़ी और धोकादेही है जो उसने अपनी तथा अपने जैसों को कृतिको भगवान् महावीर जैसे परम संयमी और परम वीतरागी आप्तपुरुषोंकी कृति बतलाया है, और इस तरह अपनी मूर्खता, कपायवासना एवं स्वार्थसाधनाके बरा उन्हें सभ्य संसारमै नोचे गिराने आदिको जघन्य चेष्टा की है । उसे कषायावेश एवं झूठकी धुनातनोकी धुनमें इतनोभो ख़बर नहीं रही कि वह भगवान महावोरकं मुखसे ढूंढियों की उत्पत्तिका वर्णन भूतकालकी क्रियाओं में कराने और भगवानके समवसरणमें ढूढियों को बिठलाकर उनके साथ भगवानका साक्षात् संवाद कराने से भगवान् महावीर और राजाश्रेणिकको कितना आधुनिक-- विक्रम संवत् १५२७ से भी कितने अधिक पोछेकाठहरा रहा है और इसलिये पब्लिक के सामने अपने झूठका कितना पर्दाफ़ाश कर रहा है ! सच है "दरोग़गोरा हाफ़िज़ा न बाशद " - अर्थात् झूठेकी स्मरणशक्ति ठोक काम नहीं देती । उसे अपने कथन के पूर्वापर सम्बन्धका उसके गुणदोष एवं परिणामका यथेष्ट भान नहीं रहता और इसलिये वह यद्वातद्वा जो जीमें आता है कह डालता है । ठीक यही हालत प्रन्थकार पं० नेमिचन्द्र की हुई जान पड़ती है । उसे इस प्रकरणके कहीं बिलकुल अन्तमें जाकर भविष्य कथन की बातका कुछ स्मरण हुआ है और इसीलिए उसने बिना पूर्वापरका सम्बन्ध ठोक जोड़े नीचे लिखे भविष्यकथन के दो लोक भो, मगधेश्वर राजा Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७० ] श्रेणिकको सम्बोधन करतेहुए, भगवान के मुंह से कहला दिये -- ईशाः धर्ममार्गस्य नाशकाश्च खलाशयाः । ज्ञानलेोज्झिताः क्रूरा भविष्यन्ति न संशयः ॥१२१॥ भव्यभावयुता स्वल्पसंख्याढ्या मगधेश्वर ! विसंख्याढ्या नराः तस्मिन् भविष्यन्त्येव नेतराः ॥१२२॥ यहां पहले श्लोक प्रयुक्त हुआ 'ईदृशा:' ( इसप्रकार के ) पद बहुत खटकता है और वह ग्रंथकार की नासमझी का द्योतक है, जबकि उससे ठीक पहले, ग्रन्थ में ढूदियोंके स्वरूपका परिचायक कोई 'दूसरा श्लोक नहीं है और उससे भी पहले दूँ ढियों के सिद्धान्तों का खण्डन तथा उनके साथ भगवान का वादवि वाद चल रहा था । इस लोकसे ठीक पहलेका निम्न श्लोक और भी ज्यादा बेढंगा ( असंगत ) हैं और वह ग्रंथकारकी अच्छी ख़ासी मूर्खताका द्योतक जान पड़ता है यत्प्रोक्ता वीरनाथेन श्रेणिकं प्रति भो बुधाः । भाविकालभवा वार्ता तथैव पश्यथाशुभा ॥ १२० ॥ इसमें कहा गया है कि 'हे बुधजनो ! महावीर स्वामीने श्रेणिक के प्रति जो भविष्यकाल सम्बन्धी बात कही है उसे तुम वैसी ही अशुभरूप में देखलो।' परन्तु एक तो हूँ ढ़ियों के सम्बन्ध में कोई बात भविष्य वर्णनाके रूपमें इससे पहले इस प्रकरण में कही नहीं गई, दूसरे जब भगवान अभी कथन कर ही रहे हैं और अगले दोनों लोक उन्हीं के वाक्य हैं तब ग्रंथकारका इस तरह से बीचमै बोल उठना क्या अर्थ रखता है ? वह उसकी मूर्खता नहीं तो और क्या है ? जान पड़ता है ग्रन्थकारने बिना सोचे समझे कितने Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७१] हो पाक्योंको इधर उधर से उठाकर भी रक्खा है और इससे उसके ग्रंथमें और भी ज्यादा असम्बद्धता, बेढंगापन तथा जालोपन आगया है। इस प्रकरणका प्रायः गद्यभाग हूँ ढिया साधुओं और किसी भट्टारकक दरम्यान हुए शास्त्रार्थको रिपोर्ट का एक अंश जान पड़ता है, जिसका अनुभव पाठकोंको नीचेके कुछ संघाद-वाक्योंसे ही हो जायगा: “ढूंढ्या इत्युत्तरं श्रुत्वापि स्वपक्षपालनार्थमित्यूचुः । भो सज्जनाः ! भवद्भिः यत्कार्थतं तत्सत्यमपि तथापि अस्माकं वाक् श्रयतां । वयं निरारंभास्युः श्रतः अस्माभिः प्रारम्भदोषेण प्रतिमायाः पूजन उत्थापितं । प्रारंभात सकलजपतप:संयमज्ञानादिसद् गुणा नश्यन्ति । यत्रारंभः तत्र किमपि धर्मोत्पत्तिनास्त्येव । निरारंभण शिवस्थानप्राप्तिरंजसा भवति । प्रारंभेण अनन्तशः जविराशयो म्रियन्ते । तत्पाकात् श्वभ्रान्धी अयं प्राणी दुःखौघ भंजति वा निगोदिष वचनागोचरं ह्यनन्तकालपर्यंतदु:खं भुंजत्येव । इत्येवं कल्पोक्तं श्रुत्वा लंकमतेभघातने केशरितुल्य: जैनागममार्गवर्धनैकदिवाकरः असत्यपक्षविभंजकः भव्याब्जमार्तडोपमः श्रीवीतरागप्रतिपालकः (पादक) सिद्धान्तादिग्रन्थवाचने सामर्थ्यधारकः पूर्वाचार्यवाक्य-प्रतिपालकः तन्मतोस्थापनार्थमित्याह-भो लुंकाः ! प्रारम्भनिराकरणं यूयं श्रुणुथ चित्तसमाधिना करोम्यहम् ।..." "इतिश्रुत्वापि पुनः लंकमतधारका ढूंढ्या इत्याहुः भो Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७२ ] बुधोत्तमाः । सुरेन्द्राणामारम्भे पापोत्पत्तिर्नास्त्येिव । पापारम्भोत्पत्तिः पुरुषकार्येषु भवेत् नात्र संशयः । इतिकल्पोक्तं श्रुत्वा जिनागमार्थज्ञायक ग्राह- भो लुंका अस्योत्तरं यूयं श्रुणुथ । XXX पुनरारम्भ फलं श्रुणुथश्रीवर्धमानवन्दनार्थं श्रोणिकाभिधोभूपेन्द्रः सकलसेनया सह किमगमत् वा एकएवागमत् तत्कथय भो मतिविवर्जिता: । " भगवान् महावीरको समवसरण सभा दूँ ढियोंके साथ भगवानके शास्त्रार्थका ऐसा रूप नहीं हो सकता। इसमें ढूँढियों की ओर से कहे गये 'भो सज्जनाः' जैसे सम्बोधनपद और उनकी बातका उत्तर देने वाले वक्ता के लिए प्रयुक्त हुए 'लुंकमतेभघातने केशरितुल्यः' आदि विशेषणपद तथा आरंभ फलकी सिद्धिमें प्रमाण रूपसे प्रस्तुत किया हुआ श्रीवर्द्धमान की वन्दनाको श्रेणिकके सेनासहित जाने का उल्लेख, ये सब विषय ख़ास तौर से ध्यान देने योग्य है और वे इस विषयपर और भी अच्छा ख़ासा प्रकाश डालते हैं । अस्तु । इन सब प्रमाणोंसे ( प्रमाणों के पांच गणों से ) ग्रन्थका जालीपन भले प्रकार सिद्ध हो जाता है और किसी विशेष रूपटोकरण की ज़रूरत नहीं रहती । साथ ही प्रन्थकारको बुद्धि, योग्यता, कपटकला, कषायवशवर्तिता, उद्धनता, धूर्तता, साम्प्रदायिक कट्टरता, कलहप्रियता, और असत्यवादिता का भो कितना ही भंडाफोड़ होकर उसका बहुत कुछ वास्तविक रूप सामने आजाता है । यहां पर मैं इतना और भी कह देना चाहता हूं कि ग्रंथकार अपनी ऐसी लीलाओं तथा प्रवृत्तियोंके कारण जैनधर्मके संस्कारोंसे प्रायः शून्य मालूम होता है। उसने यदि जैनधर्मके Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७३ ] स्याद्वादामृत अथवा विरोधमथनी अनेकान्तरसायनका सेवन किया होता तो उसकी कदापि ऐसी कलुषित मनोवृत्ति न होती और न वह अपने तेरहपंथी भाइयोंको तरह ढूंढिया भाइयों परभी इस तरहसे जहर उगलता । उसे स्वतः यह समझमें आ. जाता कि ये लोग भी हमारी तरह जैनधर्मके उपासक हैं, उसकी मूल बातों ( तत्त्वों ) को मानते हैं और ये भी भगवान महावीर आदि सभी जैनतीथंकरों की पूजा-भक्ति करते हैं । पूजा-भक्तिका तरीका कितने ही अंशोंमें समान और कितने ही अंशांमें जुदा जुदा है, और ऐसा होना देशकालादि की परिस्थितियों की दृष्टि से बहुत कुछ स्वाभाविक है। भक्तिमार्ग बड़ा ही विचित्र तथा गहन होता है, वह सदा सबके लिये न कभी एक जैसा रहा और न रहेगा। अतः पूजा-भक्ति-उपासना की ज़ाहिरी, फरूआती एवं ऊपरी बातोंमें एक दूसरेके तरीको. को पूर्णतया न अपनाते और न पसन्द करते हुए भी एकको दूसरेसे घृणा करने, द्वेष रखने अथवा शत्रुता धारण करनेकी ज़रूरत नहीं है । सबको मिलकर प्रेमपूर्वक एक पिताकी संतान के रूपमें रहना तथा एक दूसरेके उत्थानका यत्न करना चाहिए, और प्रेमपूर्वक ही एक दूसरे की भूल, त्रुटि, गलती, अन्यथा प्रवृत्ति अथवा गलत तरीकेको सुधारना चाहिये-न कि ऐसे विषैले साहित्य द्वारा घृणा तथा द्वेषादिके भावको फैलाकरके, जिसका असर उलटा होता है। निःसन्देह यह सब ऐसे दृषित साहित्यका ही परिणाम है जिसने परस्पर में कलहका बोज बोकर जैनधर्मके पतनका मार्ग साफ़ कर दिया है और जैनियोंकी शक्तिको छिन्न भिन्न करके उन्हें किसी भी कामका नहीं छोड़ा; प्रत्युत उनके सारे पूर्व गौरवको मिट्टी में मिलाकर उन्हें जनताको आंखोंमें हकीर (तुच्छ) बना दिया है ! जो लोग जानबूझकर ऐसे साहित्यकी Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७४ ] सृष्टि करते, उसे अपनाते, उसकी प्रशंसा करते और उसका प्रचार करते हैं उनका हृदय ज़रूर काला है भले ही वे ऊपरसे कितनेही साफ़ सुथरे तथा शान्त दिखलाई पड़ते हों, और इसीलिये उन्हें जैनधर्म तथा जैनसमाजका हितशत्रु समझना चाहिये। कुछ विलक्षण और विरुद्ध बातें गह 'सूर्यप्रकाश' प्रन्थ, जिसका जालोपन और बेढंगा पन-ऊपर अनेक प्रमाणोंके आधार पर भले प्रकार दिनकर-प्रकाशकी तरह स्पष्ट सिद्ध किया जा चुका है, औरभी बहुतसी ऐसी विलक्षण तथा विरुद्ध बातोंसे भरा हुआ है जिनका भगवान् महावोरके सत्य शासन अथवा उनके उपदेशके साथ प्रायः कोई मेल नहीं है-प्रत्युत इसके, जो उसको प्रकृतिके विरुद्ध तथा गौरवको घटाने वाली हैं और साथहो ग्रंथको औरभी ज़्यादा अप्रामाणिक, अमान्य, अश्रद्धेय एवं त्याज्य ठहरानेके लिये पर्याप्त हैं। नोचे एसीही कुछ बातोंका नमूने के तौर पर दिग्दर्शन कगया जाता है। इससे पाठकों पर ग्रंथकी असलियत और भी अच्छी तरहसे खुल जायगी और उन्हें प्रथकारके हृदय, श्रद्धान, तत्वज्ञान एवं कपटाचरणका और भी कितनाही पता चल जायगा:१ सब पापोंसे छूटने का सस्ता उपाय! टूढियों पर गालियोंकी वर्षा के अनन्तर-पूर्वोल्लेखित श्लोक नं० १२२ के बाद ही-ग्रंथमें एक व्रतप्रकरण दिया गया है, जिसका प्रारम्भ "पुनराह शृणु भूप! तेषां भाविसुखाप्तये" इन शब्दोंसे होता है, और उसके द्वारा भगवान् महावीरने पंचमकालके मानवोंको सुखप्राप्तिके लिये राजा श्रेणिकको Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७५ ] कुछ व्रतविधान सुनाया है । इस प्रकरणमें अष्टान्हिक आदि व्रतोंके नाम सामान्य रूपसे अथवा कुछ विशेषणों के साथ देकर और उनके विधिपूर्वक अनुष्ठानका फल दो तीन भवोंमें मुक्ति का होना बतलाकर 'कर्मदहन' नामके एक खास व्रतका विधान किया गया है। इस प्रतकी उत्कृष्ट विधि मूलोत्तर कर्म प्रकृतियोंकी संख्याप्रमाण १५६ प्रोषधोपवास एकान्तरसे और निरारम्भ करने होते हैं-अर्थात् पहले दिन मध्यान्हके समय एक बार शुद्ध भोजन, दूसरे दिन निरारम्भ अनशन (उपवास) फिर तीसरे दिन एक बार भोजन और चौथे दिन अनशन यह क्रम रहता है; भोजनके दिन पंचामृतादिके अभिषेकपूर्वक तथा जिनचरणों में गन्धलेपनपूर्वक सचित्तादि द्रव्योंसे पूजा की जातीहै, प्रत्येक उपवासके दिन उस २ कर्म प्रकृतिके नामोल्लेखपूर्वक एक जाप्य । १०८ संख्या प्रमाण जपा जाता है। साथ हो, विकथादिके त्याग रूप कुछ संयमका भी अनुष्ठान किया जाता है * । यह सब बतलानेके बाद प्रथमें इस व्रतके फल का वर्णन करते हुए लिखा है : कर्मदहनव्रतस्य फलं ऋणु समाधिना ।। श्रवणाच्च यत्सर्वाहाः प्रलयं यान्ति देहिनाम् ॥१७॥ इसमें भगवान् महावीर राजा श्रेणिकको कर्म-दहन + अनुवादकने एक दिनके जाप्यका नमूना “ॐ ह्रीं मतिज्ञानावरणकर्मनाशाय नमः" दिया है ! * वह संयम विकथा, ग्रहारम्भ, स्त्रीसेवन, शृङ्गार, खट वा. शयन, शोक, वृथापर्यटन, अष्टमद, पैशून्य, परनिन्दा, परस्त्रीनिरीक्षण, रागोद्रकपूर्वकहास्य, रति, भरति, कुभाव, दुर्म्यान, भोगाभिलाष, पत्रशाक और अशुद्ध दूध दही-घृतके त्यागरूप कहा गया है। (श्लोक १६८ से १७१)। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७६ ] व्रतके फलको ध्यानपूर्वक सुनने की प्रेरणा करते हुए कहते हैं कि-'इस व्रतकं फलश्रवणसे देहधारियोंके सव पाप प्रलयको प्राप्त हो जाते हैं ! यहाँ 'साहाः' पदमें प्रयुक्त हुए 'सर्व' शब्द की मर्यादा 'सर्वज्ञ' शब्दमें प्रयुक्त हुए 'सर्व' शब्दको मर्यादासे कुछ कम नहीं है वह जैसे त्रिकालवर्ती अशेष पदार्थोंको विषय करने वाला कहा जाता है वैसेहो यह 'सर्व' शब्दभी भूत-भविष्यत्-वर्तमानकाल सम्बन्धी सब प्रकारके संपूर्ण पापों को अपना विषय करने वाला समझना चाहिये। उन सब पापोंका इस फलश्रवण से उपशम या क्षयोपशम होना नहीं कहा गया बल्कि एकदम प्रलय (क्षय) होजाना बतलाया गया है और इसलिये इस कथनका साफ़ फलितार्थ यह निकलता है कि ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनोय, अन्तराय, असातावेदनीय अशुभ नाम, अशुभ आयु, और अशुभ गोत्र नामकी जो भी पापप्रकृतियाँ हैं वे सब इस व्रतके फलश्रवण. मात्रसे क्षयको प्राप्त हो जाती हैं ! फिर तो मुक्तिको उसी जन्म में गारण्टी अथवा रजिस्टरी समझिये ! पाठकजन ! देखा, कितना सस्ता और सरल यह उपाय भगवानने सब पापोंसे छूटने और मुक्तिको प्राप्तिका बतलाया है !! पाप-क्षयका इससे अधिक सुगम उपाय आपको अन्यत्र कहींसे भी देखने को नहीं मिला होगा। इस गुह्य रहस्यका ग्रंथकार परही अवतार भगवानकी खास मेहरबानीका फल जान पड़ता है !!! अच्छा होता, यदि भगवान दि० तेरहपंथियों और दूढियोंको इस व्रतका फल पहलेही सुना देते, जिससे वे बेचारे सर्व पापोंसे मुक्त हो जाते और फिर भगवान् को उनके साथ लड़ने झगड़ने तथा उनपर गालियोंकी वर्षा करने की ज़रूरतही न रहती! शायद कोई तार्किक महाशय यहां यह कह बैठे कि चूंकि भगवान्को ख़ास तौरसे अपने अभिषेक Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७७ ] पूजनादिके लिये उन्हें प्रेरित करना था वे इस व्रतका फल उन्हें पहलेही कैसे सुना देते ! परन्तु तब तो उन्हें व्रतफल सुनने का ऐसा माहात्म्य बतलानाही नहीं चाहिये था। इसे मालूम करके तो लोगोंको प्रवृत्ति उस कर्मदहनवतके अनुष्ठान की भी नहीं रह सकती, जिसमें अनेक प्रकारसे अपने अभिमत पंचामृताभिषेक, जिन चरणों पर गन्धलेपन और सचित्त द्रव्यों से पूजन की प्रेरणा अथवा पुष्टि को गई है। क्योंकि उसकी उत्कृष्ट विधिका - और इसलिये अधिक से अधिक -- फल तो अगले जन्म में विदेहक्षेत्रका सम्राट होकर, जिनदीक्षा लेकर और अनेक तप तप कर मुक्तिका होना लिखा है, और इस धूत फलके श्रवणसे बिना किसी परिश्रमके ही सब पापका नाश होकर उसी जन्म में मुक्ति हो जाती है। इससे घूत करने की अपेक्षा उसका फल सुननाही अच्छा रहा ! फिर ऐसा कौन बुद्धिमान है जो सिद्धिके सरलसे सरल एवं लघु मार्गको छोड़कर कष्टकर और लम्बे मार्गको अपनाए ? ग्रंथकारकी इस मार्मिक शिक्षा और कर्मफलके नूतन आविष्कार पर तो लोगोंको सारे धर्म-कर्मको छोड़कर एक मात्र कर्मदहनवतके फलको ही सुन लेना चाहिये ! बस, बेड़ा पार है !! इससे सस्ता और सुगम उपाय दूसरा और कौन हो सकता है ? ग्रंथ में एक स्थान पर उन मनुष्योंको जो सारे जन्म पापमें हो मग्न रहते हैं, इसो घूतके कारण शिवपद्की प्राप्ति होना लिखा है : आजन्मपापमद्मा हि नरा: यास्यन्ति निश्चयात् । अस्यैव कारणात् भूप ! शिवास्पदे च शाश्वते ॥१२॥ - पृष्ठ २५४ परन्तु हमारे ख़याल से तो, उक्त श्लोक नं० १७८ की Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७८ ] मोजूदगी में, ऐसे महापापी मनुष्यों को भी घूतको उत्कृष्ट विधि के अनुष्ठानरूप इस द्राविडी प्राणायामकी ज़रूरत नहीं है-वे इस व्रत फलको सुनकर सहज ही में सब पापोंसे छूट कर मुकिको प्राप्त कर सकते हैं ! यहां पर मुझे यह प्रगट करते हुए बड़ा ही खेद होता है कि जो गुप्त रहस्यकी बात किसी तरह भगवान्के मुखसे अथवा ग्रंथकार के कलम से भव्यजीवोंके कल्याणार्थ निकल गई थी उसका प्रगट होना अनुवादक महाशय पं० नन्दनलाल (ब्र० ज्ञानचन्द्र) जी - वर्तमान क्षुल्लक ज्ञानसागरजी - को सहन नहीं हुआ और इसलिए उन्होंने उसे छिपाने की चेष्टा करते हुए उक्त श्लोक नं० १७८ का अर्थ हो नहीं दिया !! संभव है कि उन्हें इसमें भगवान् की या ग्रन्थकार की भूल मालूम पड़ी हो अथवा अपनी अभीष्ट पंचामृताभिषेकादि क्रियाओंको बाधा पहुँचनेका कुछ भय उपस्थित हुआ हो और इसीसे उन्होंने उसपर पर्दा डालना उचित समझा हो !!! परन्तु कुछ भी हो, सत्यको प्रतिज्ञा को लिए हुए व्रती श्रावक होकर और एक अच्छे अनुवादकको हैसियत से उन्हें ऐसा कूटलेखन तथा कपटाचरण करना उचित नहीं था ! कोई भी सहृदय धार्मिक पुरुष उनको इस निरंकुशता और कपट कलाका अभिनन्दन नहीं कर सकता । २ धर्म और धनकी विचित्र तुलना ! कर्मदहनतकी विधि, और व्रतके फलको सुनकर राजा श्रेणिकने भगवान् से पूछा कि - 'आपने तो पंचमकालके मनुष्यों को निर्धन बतलाया है, फिर वे बिनाधनके व्रत कैसे करेंगे ? तब तो व्रतका वह फल उनके लिये नहीं बनता ।' उत्तरमें भगवान ने कहा- 'राजन् ! यदि पूर्वपापोंके उदयसे घर में दरिद्र हो तो कायसे प्रोषधसहित दुगुना व्रत करना चाहिये ।' यथाः - Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७९ ] भवद्भिः कथिता मयां नि:स्वा हि पंचमोद्भवाः । करिष्यन्ति कथं वृत्तं तद्ऋते नास्ति तत्फलम् ॥३०॥ गृहे यदि दरिद्रः स्यात्पूर्वपापो दयात् नृप । कायेन द्विगुणं कार्य व्रतं पोषधसंयुतम् ॥३१॥ यहां पर इतना और भी जानलेना चाहिये कि इस प्रश्नोतरसे पहले, प्रथमें व्रतकीजो उत्कृष्टविधि बतलाई गई है और जिसका संक्षिप्त परिचय नम्बर १ में दिया जाचुका है उसके अनुसार धनके खर्च का काम सिर्फ़ अभिषेकपुरस्सर पूजनके करने और पारणाके दिन एकपात्रको भोजन कराने में ही होता है, जिसका औसत अनुमान २००) रु० के करीब बैठता हैअर्थात् १५६ परणाओं के दिन पात्रोंका भोजन खर्च ४० रु० और १५७ दिनका अभिषेक-पूजन-खर्च १६०) रुपये । और इसलिये उक्त व्यवस्थासे यह स्पष्ट है कि यदि कोई मनुष्य यह सब खर्च न उठाकर शुद्ध प्रासुकजलसे हो भगवानका अभिषेक कर लिया करे और "वचो विग्रहसंकोचो द्रव्य पूजा निगद्यते । तत्र मानससंकोचो भावपूजा पुरातनः ॥" इस पुरातनविधिके अनुसार शरीर तथा बचनको परमात्माके प्रति एकाप करके हाथजोड़ने, शिरोनति करने, तथा स्तुतिपाठ पढ़नेरुप द्रव्यपूजा और ध्यानादि रूपसे मनको एकाग्र करके भगवानकी भावपूजा करलिया करे; साथ ही अपने भोजनमें से एक प्रास ही पहिले दानार्थ निकाल दिया करे तो इस प्रकारके पूजनादिके साथ १५६ प्रोषधोपवास और १५७ एकाशन करने तथा विकणदिके त्यागरूप उस सारे संयमका अनुष्ठान करनेपर भी, जिसका पोछे एक फुटनोटमें उल्लेख किया गया है, वह इस व्रतके फल को नहीं पासकेगा! फल-प्राप्तिके लिये उसे ३१३ दिनका उतना Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ८० ] ही धर्माचरण फिरसे करना होगा !! अर्थात् उसके इस फिरसे किये जानेवाले ३१३ दिनके धर्माचरणका मूल्य २००) के करीब है !!! पाठकजन ! देखा, धर्माचरणके साथ धनकी यह कैसी विचित्र तुलना है ! निम्रन्थ मुनियों के पास तो धन होता ही नहींभले हो भट्टारकलोग धन रक्खा करें और उनके लिये भी इस व्रतका विधान किया गया है, तब उन निर्धन महात्माओंको भी दुगुना व्रत करना पड़ेगा !!-उनकी ३१३ दिन तक महाबतरूप परिणति भी उस फलको सिद्ध नहीं करसकेगो !!! बड़ो. ही विचित्र कल्पना है ! समझमें नहीं आता, इस व्यवस्थाको व्रतविधान कहा जाय या दण्डविधान अथवा एक प्रकारको दुकानदारी!! धनको इतना महत्व दिया जाना जैनधर्मकी शिक्षाके नितान्त बाहर है। __ भगवान महावीरके शासनमें तो आकिंचिन्यधर्म अथवा अपरिग्रहत्वको खास महत्व प्राप्त है और सिद्धिका जो कार्य पेसे त्यागी धर्मात्माओंसे सहजहोमें बन सकता है वह धनाढ्योंसे लाखों रुपये दानपूजामें खर्च करनेपर भी नहीं बनता । मालूम होता है इस सब व्यवस्थाके नोचेउसकी तहमें-पंचामृतादिकके अभिषेक, जिनप्रतिमापर गन्ध. लेपन, सचित्तादिद्रन्योंसे पूजन और भट्टारकों को कुछ प्राप्ति करानेकी मनोवृत्तिही काम कर रहीहै । इसीसे प्रथमें धनाढ्यों को प्रकारान्तरसे कुछ डांटाभी गया है-कहा गया कि 'येलोग व्रतको उत्थापना करेंगे, ऐसे पापियोंका धन पुत्र-पुत्रियोंके विवाहों और मृतकादि की क्रियाओंमें तो खर्च होगा, पापकार्यों में तो लगेगा परन्तु धर्मकार्यों में व्यय नहीं होगा, धर्मकार्योंसे ये लोग परान्मुख रहेंगे । बुधजनों को सदा चाहिये कि वे पूजा और पात्रदानादिकमें, जोकि जिनेन्द्र भगवान्के कार्य Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ८१ ] हैं (!) कृपणताको धारण न करें-वह अनेक दुःखोकी दाता है । पिछली बातका सूचक वाक्य इस प्रकार है : भो बुधाः ! जिनकार्येषु इज्यापात्रादिषु सदा। कृपणत्वं भजध्वं मा ह्यनेकदुःखदायकम् ॥ ४०॥ आगे चलकर इस मनोवृत्तिने और भी विशेष रूप धारण किया है। प्रन्थकारको उद्यापनकी बात याद आ गई और इसलिये उसने व्रतको सारी विधि तथा फलकी बात हो चुकने के बाद और यहाँ तक कहे जाने के बाद भी कि-"कर्मदहन व्रतस्य विधिश्च कथितो मया । करिष्यति सुभावेन इदं यास्यति सोऽव्यये ॥" (४३) उद्यापनकी तान छेड्दी है ! और उसके विषयमें भगवानसे कहला दिया है कि-'व्रतको पूर्णता पर वतियोंको व्रतफलको सिद्धिके लिये हर्षक साथ श्रीखिनेन्द्रकी ® एक स्थानपर इसी प्रकरणमे पूजा तथा पात्रको भोजनदान न करके भोजन करनेवाले गृहस्थको निश्चयसे नरकके दुःखों का भोगने वाला लिखा है ! (पृ० २२०) अनुवादक महाशय इस विषयमें ग्रन्थकारसे भी दो कदम आगे जान पड़ते हैं। क्योंकि उन्होंने इससे भी पहले ग्रन्थमें उद्यापनकी बात छेडी है-अर्थात् ३१ वें श्लोकका अर्थ देते हुए 'गृहे यदि दरिद्रः स्यात्' का अर्थ "यदि दरिद्रताके कारण व्रतका उद्यापन करनेकी शक्ति न हो" ऐसा कर दिया है ! जब कि वहां उद्यापनका कोई प्रसंग ही नहीं था !! यदि ज्यापनके बिना व्रतफलकी सिद्धि ही नहीं होती तो ग्रन्थकारको बतफलका विधान उद्यापन-विधानके बाद करना चाहिये था, परन्तु ऐसा नहीं किया गया और इसलिये यह कहना ठीक होगा कि ग्रन्थकारको उद्यापनकी बात बादको याद आगई है और वह व्रतविधिके अतिरिक्त है। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ८२] प्रतिष्ठा करानी चाहिये, चतुर्विध संघको शिवप्राप्तिके लिये यथायोग्य दान देने चाहिये और नगरों तथा प्रामोंक जिनमन्दिरोंमें मनोहर छत्र, चंवर, घंटे तथा ध्वजादिक स्थापित करने चाहिये। राजन् ! यह इस व्रतके उद्यापनको उत्कृष्ट विधि आगममें शिवमुखके देने वाली मानो गई है."यथाशक्ति वतका उद्यापन करनाही चाहिये । यदि दारिदके योगसे ऐसी भो उद्यापनकी शक्ति न हो तो फिर कायसे दुगुना व्रत करना चाहिये, उससे उद्यापनके समान हो फलको प्राप्ति होती है: पूर्णे याते हि व्रतस्य प्रतिष्ठा श्रीजिनेशिना । करणीया समोदेन व्रतस्य फलसिद्धये ॥४४॥ चतुर्विधाय संघाय, यथायोग्यानि मोदतः । सन्देयानि शिवाप्त्यर्थ दानानि व्रतिभिः खलु ॥४५॥ परेष नगरेषु वै स्थापनीया मनोहराः । छत्राश्च चामराः घंटाः ध्वजाद्याः जिनसद्मसु ॥४६॥ उत्कृष्टोऽयं विधिप ! शिवशर्मप्रदायकः । व्रतस्योद्यापनस्यास्य स्यात्खल आगमे मतः ॥४७॥ यथाशक्त्या करणीयो व्रतस्योद्यापनो नृप ! एतादृश्यपि नास्त्येव शक्तिदारिद्रयोगतः ॥४६॥ अतो हि कायतो भव्याः कुरुवं द्विगुणमिदं । तत्समं हि फलाप्तिश्च भवतामपि संभवेत् ॥५०॥ वस्तुतः उद्यापनादिकी ये सब बातें भट्टारकीय शासन से सम्बन्ध रखती है । भट्टारकोंको उद्यापनोंसे बहुत कुछ प्राप्ति Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ८३ ] हो जाती थी और उनके अधिकृत मन्दिरों में बहुतसा सामान पहुँच जाता था, जिसके आधार पर वे खूब आनन्दके तार बजाते थे। इसीलिये उन्होंने अनेक व्रतोंके साथ उद्यापनकी बातको जोड़ दिया है । दुगुने व्रतके भयसे समर्थ लोग उद्यापन करने लगे; धनाढ्य स्त्री पुरुषोंसे तो थोड़ेसे व्रतोंका बनना भी मुशकिल होता है, फिर दुगुने व्रतोंकी तो बात ही दूर है, और इसलिये उनके द्वारा, अपनी मानमर्यादाको रक्षा करते हुए, अच्छी बड़ी स्केल (बड़े परिमाण) में उद्यापन होने लगे और उनसे भट्टारकों तथा उनके आश्रितोंका कितना ही काम सधने लगा। इस तरह उद्यापनको बातका प्रचार हुआ। अन्यथा, व्रतोंके साथ अनिवार्य रूपसे उद्यापन करने, और न करने पर दण्डस्वरूप दुगुने व्रत करनेकी बातको भगवान महावीरके शासनमें कोई स्थान नहीं है और न प्राचीन आगममंथों में ही उसका कहीं उल्लेख पाया जाता है। अपने व्रतकी समाप्ति पर उद्यापनादि रूपसे कोई उत्सव करना या न करना यह सब व्रतियोंकी इच्छा एवं शक्ति पर निर्भर है-व्रतविधान और उसके फलके साथ उसका कोई खास सम्बन्ध नहीं है। इसी तरह अभिषेक पूजनकी ग़रज़ अथवा उद्देश्यसिद्धिके लिये पंचा. मृतादिक अभिषेकको अपनाना और केला अंगूर अनार तथा लड्डू-फेनो-पकवान जैसे द्रव्योंसे पूजन करनाभी कोई लाज़िमी बात नहीं है। पूजनादिकी उद्देश्यपूर्ति दूसरे प्रकारसे भी की जा सकती है और कहीं अधिक अच्छे रूपमें की जा सकती है, जिसकी कुछ सूचना ऊपर की जा चुको है। अतः पूजनादिक और उद्यापनमें धन न खर्च करने वालोंके लिये दुगुने व्रतकी इस व्यवस्थाको भट्टारकीय लीलाका ही एक परिणाम समझना चाहिये। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ८४] ३ ध्यान और तपका करना वृथा ! व्रतप्रकरणके बाद ग्रन्थमें 'सम्मेदाचल' नामका एक प्र. करण दिया है और उसमें श्रीसम्मेदशिखरको यात्राका अद्भुत माहात्म्य बतलाते हुए ध्यान और तपकी बुरी तरहसे अवगणना की गई है !-'श्मशान भूमियों और पर्वतोंको गुफादिकोंमें करोड़ पूर्व वर्ष पर्यन्त किये हुए ध्यानसे भी अधिक फल सम्मेदशिखर के दर्शनसे होता है। इतना ही नहीं कहा गया, बल्कि 'पंचमकालमें तप और ध्यानकी सिद्धि नहीं होती अतः सम्मेदशिखर को यात्रा हो सर्वसिद्धिको करने वाली है' यहाँ तक भी कह डाला है !! और इस तरह आजकल के लिये ध्यान और तपका करना बिलकुल हो वृथा ठहरा दिया है !!! दो कदम आगे चल कर तो स्पष्ट शब्दों में इन दोनोंका निषेध हो कर दिया है और भव्यजनों के नाम यह आज्ञा जारो करदी है कि 'तपोंके समूहको और ध्यानोंके समूहको मत करो किन्तु जीवनभर यार बार सम्मेदशिखरका दर्शन किया करो !! उसोके एक मात्र पुण्यसे दूसरे हो भवमें निःसन्देह शिवपदको प्राप्ति होगी। यथाः कोटिपूर्वकृतं ध्यानं श्मशानाद्रिगुहादिषु । तदधिकं भवत्येव फलं तदर्शनात् नृणाम् ॥१३॥ नैवसिद्धिः तपस्योः (!) ध्यानस्यैव कदाचन । तस्मिन्काले ह्यतो भूप ! सा यात्रा सर्वसिद्धिदा ॥१४॥ मा कुरुध्वं तपोवृन्दं भो भव्याः ! ध्यानसंहतिम् । xxx समं प्रत्येकवारं च आमृत्यु तस्य दशनम् ॥१७॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ८५ ] भजध्वं तेन पुण्येन केवलेन शिवास्पदे । यास्यथ नात्र संदेहो द्वितीये हि भवेऽव्यये ॥१८॥ यह सब कथन जैनधर्मकी शिक्षासे कितना बाहर है, इसे बतलानेको ज़रूरत नहीं । सहृदय पाठक सहज हो में इसकी निःसारताका अनुभव कर सकते हैं । खेद है कि ग्रंथकारने इसे भो भगवानके मुखसे ही कहलाया है ! उसे यह ध्यान नहीं रहा कि मैं इस ग्रंथ में अन्यत्र कितनी ही बार इन दोनोंके करने की प्रेरणा तथा इनके सफल अनुष्ठानका उल्लेख भोकर आया हूं !! और न यहो ख़याल आया कि जिस ध्यान और तपके माहात्म्य से सम्मेद शिखर पूज्यताको प्राप्त हुआ है, उसीकी मैं इस तरह अवगणना तथा निषेध कर रहा हूँ !! अथवा प्रकारान्तरसं मुनिधर्मको भी उठा रहा हूं !!! हो, इस प्रकारको शिक्षा भट्टारकोंके खूब अनुकूल है -- उन्हें राजसी ठाठके साथ मौजमज़ा उड़ाना है, ध्यानादिके विशेष चक्करमें पड़ना नहीं है । ४ मुक्तिका दूसरा कोई उपाय नहीं ! प्रथमें, सम्मेदशिखरके दर्शनमाहात्म्य का वर्णन करते हुए, एक श्लोक निम्न प्रकारसे दिया है, जिसमें राजा श्रेणिक को सम्बोधन करते हुए कहा है कि 'इस (पाँचवें ) कालमें मानवों के लिये सम्मेद शिखरके (उसके दर्शन के) सिवाय शिव का - मुक्तिका - दूसरा और कोई उपाय नहीं है:अस्मिन्काले नराणां च मतो भो मगधाधिप ! श्रीमच्छिखर सम्मेदान्नान्योपायः शिवस्य वै ॥ २६॥ यह कथन जैन सिद्धान्तो के बिलकुल विरुद्ध है; क्योंकि तत्त्वार्थ सूत्रादि सभी प्राचीन जैनमन्थोंमें, जो पंचमकालके Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८६ 1 मनुष्यों के लिये ही लिखे गये हैं, सम्यग्दर्शन-शान चारित्रको मुक्तिका उपाय (मार्ग) बतलाया है-सम्मेदशिखरको यात्रा अथवा उसके दर्शनको किसी भी सिद्धान्तग्रंथमें मुक्तिका उपाय नहीं लिखा। दूसरे, खुद इस ग्रंथके भी यह विरुद्ध है; क्योंकि इसी प्रथमें मुक्तिके दूसरे उपाय भी बतलाये हैं। उदाहरणके तौर पर कर्मदहन आदि व्रतोंको ही लीजिये, जिनसे द्वितीयादि भवमें मुक्तिका प्राप्त होना लिखा है-इस यात्रासे भी द्वितीयादि भवमें हो मुक्तिको प्राप्ति होना बतलाया है। फिर पंथकारका यहां भगवानके मुखसे यह कहलाना कि 'मुक्तिका दूसरा कोई उपाय नहीं कितनी अधिक नासमझो तथा अवि. वेकसे सम्बन्ध रखता है, इसे पाठक स्वयं समझ सकते हैं । यदि शिवका-मुक्ति अथवा कल्याणका-दूसरा कोई उपाय नहीं है-सम्यग्दर्शनादिक भी नहीं-तब समझमें नहीं आता कि इस प्रथके उपासक मुनिजन भी क्यों व्यर्थके तप, जप, ध्यान, संयम और उपवासादिका कष्ट उठा रहे हैं ! उन्हे तो सब कुछ छोड़-छाड़कर एक मात्र सम्मेदशिखरका दर्शनही करते रहना चाहिये !! ५ भव्यत्वकी अपूर्व कसौटी ! कोई जीव भव्य है या अभव्य, इसका पहचानना बड़ा हो मुशकिल काम है; क्योंकि कभी कभी कोई जीव प्रकटरूपमें ऊंचे दर्जे के आचारका पालन करते हुए भी अन्तरंग सम्यत्तव की योग्यता न रखनेके कारण अभव्य होता है और दूसरा महा पापाचारमें लिप्त रहने पर भी आत्मामें सम्यक्त्वके व्यक्त होने की योग्यताको रखने के कारण भव्य कहा जाता है। बहुत बड़े विशेष ज्ञानी ही जीवोंके इस भेदको पहचान सकते हैं। परन्तु पाठकोंको यह जान कर बड़ा ही कौतुक होगा कि Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ८७ } इस प्रथमें उन सब जीवोंको 'भव्य' बतला दिया गया है जो सम्मेदशिखर पर स्थित हों अथवा जिन्हें उसका दर्शन हो सके, चाहे वे भोल- चाण्डाल- म्लेच्छादि मनुष्य, सिंहसर्पादि पशु, कीड़े मकोड़े आदि क्षुद्र जन्तु और वनस्पति आदि किसी भी पर्याय में क्यों न हो और साथ ही यह भी लिख दिया है कि वहां अभव्य जीवों को उत्पत्ति हो नहीं होती और न अभव्योंको उक्त गिरिराजका दर्शन ही प्राप्त होता हे ! यथा: "यत्रत्या सकला जीवाः सिंहसर्पादिका नराः । भव्याः स्युः इतरेषां च उत्पत्तिर्नैव तत्र वै ||२८||" " कलौ तद्दर्शनेनैव तरिष्यन्ति घना जनाः । भव्यराशिसमुत्पन्ना नोऽभव्याः तस्य दर्शकाः ||३३|| " पाठकजन ! देखा, भव्यत्वकी यह कैसी अपूर्व कसोटी बतलाई गई है। बड़े बड़े सिद्धान्तशास्त्रों का मथन करने पर भी आपको ऐसे गूढ रहस्य का पता न चला होगा !! यह सब भट्टारकीय शासनकी महिमा है, जिसके प्रतापसे ऐसे गुप्त तत्व प्रकाशमें आए हैं !!! इन यात्राओंके द्वारा भट्टारकों तथा उनके आश्रित पंडेपुजारियोंका बड़ा ही स्वार्थ सघता थातार्थस्थान महतोको गद्दियां बन गये थे-इसीसे लोगोको यात्राकी प्रेरणा करने के लिये उन्होंने गंगा यमुनादि हिन्दूतार्थोके माहात्म्यको तरह कितने ही माहात्म्य बना डाले है । इनमें वास्तविकता बहुत कम पाई जाती है- अतिशयोकिया भरी हुई है । सम्मेदशिखर के माहात्म्यादि विषयमें जो कुछ विस्तारके साथ इस प्रथमें कहा गया है उसकी पूरी जाँच और आलोचना को प्रकट करने के लिए एक अच्छा ख़ासा ग्रंथ लिखा जा सकता है। मालूम होता है, आचार्य शान्तिसागरजीका जो विशाल Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ८ ] संघ सम्मेदशिखरकी यात्राको कुछ वर्ष पहले निकला था वह प्रायः इस प्रथमें दी हुई बड़ी यात्राविधिको सामने रखकर ही निकला था और उसके द्वारा संघपति सेठजीको अगले ही जन्म मैं मुक्तिकी प्राप्तिका सर्टिफिकेट मिल गया है । आश्चर्य नहीं जो भावी निश्चित सिद्धों (तीर्थङ्करों ) को तरह उनकी अभी से पूजा प्रारम्भ होजाय !! अब वे स्वच्छन्द हैं, चाहे जो करें !!! ६ सम्यग्दर्शनका विचित्र लक्षण | इस प्रथमें, तेरहपंथियोंसे भगवान की झड़पके समय, सम्यग्दर्शन अथवा सम्यग्दृष्टिका जो लक्षण दिया है वह इस प्रकार है: -- सम्यग्दृष्टेरिदं लक्ष्म यदुक्तं ग्रन्थकारकैः । वाक्यं तदेव मान्यं स्यात् ग्रन्थवाक्यं न लंघयेत् ॥ ६१५|| अर्थात्-थकाने ( ग्रंथोंमें) जो भी वाक्य कहा है उसे ही मान्य करना और ग्रंथोके किसी वाक्यका उल्लंघन नहीं करना, सम्यग्दर्शनका लक्षण है-जिसकी ऐसी मान्यता अथवा श्रद्धा हो वह सम्यग्दृष्टि है । जिन पाठकोंने जैनधर्मके प्राचीन ग्रंथोंका अध्ययन किया है, अथवा कमसे कम तत्त्वार्थसूत्र, रत्नकरण्ड श्रावकाचार * " इत्यादि शुभविधिना सो वन्दितः सन् द्वितीये हि भवे तं पुरुषं मोक्षसुखं दातु क्षमः । नात्र संशयः ।” इस वाक्य के अनुसार । ↑ 'सम्यग्दृष्टि' शब्द सम्यग्दर्शन और सम्यग्दर्शनवान् दोनोंके अर्थमे आता है । इसीसे मूलमें प्रयुक्त हुए इस शब्दका अर्थ यहाँ उभय रूपसे किया गया है। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ८९ ] और पंचाध्यायो जैसे ग्रंथोंको हो देखा है उन्हें यह बतलानेकी ज़रूरत नहीं कि यह लक्षण कितना विचित्र और विलक्षण है। वे सहज ही में समझ सकते हैं कि इसमें समीचीन लक्षणके अंगरूप न तो तत्वार्थश्रद्धानका कोई उल्लेख है, न परमार्थ आप्त-आगम-गुरुके त्रिमूढतादिरहित और अष्टअंगसहित श्रद्धानका ही कहीं दर्शन है, न म्वानुभूतिका कुछ पता है, और न प्रशमसंवेगादि गुणोंका हो कोई चिन्ह दिखाई पड़ता है ! सच पूछिये तो यह लक्षण बड़ाही रहस्यमय है, जाली सिक्कोंको चलानेकी मनोवृत्ति हो इसकी तहमें काम करती हुई नज़र आती है, और इसलिए इसे भट्टारकीय शासनके प्रचारका मूलमंत्र समझना चाहिये। इसी पर्देको ओटमें भट्टारक लोग और उनके अनुयायोजन सब कुछ करना चाहते हैं। प्राचीन ग्रन्थों में अपनी इष्टसिद्धि के लिये चाहे जो कुछ मिला दिया जाय और चाहे जिन बातोंको चलानेके लिये प्राचीन ऋषियों अथवा तीर्थंकरोंके नाम पर नये प्रन्थोंका निर्माण कर दिया जाय; परन्तु उसमें कोई भी 'चरा' अथवा आपत्ति न करेबिना परीक्षा और बिना तत्वको जांच किये ही सब लोग उन बातोंको आगमकथितके रूप में आंख मोचकर मान ले, इसी मन्तव्यकी रक्षाके लिये बिना किसी विशेषणके सामान्यरूपसे प्रन्थकार, प्रन्थ और वाक्य शब्दोंका प्रयोग करके सम्यग्दर्शन अथवा सम्यग्दृष्टिके लक्षणका यह विचित्र कोट तय्यार किया गया है !! अन्यथा इसमें कुछ भी सार नहीं है। प्रन्थकारोंमें अच्छे बुरे, योग्य अयोग्य सभी प्रकारके ग्रंथकार होते हैंउनमें आचार्य, भट्टारक, गृहस्थ और प्रस्तुत ग्रंथकार तथा त्रिवर्णाचारोंके कर्ताओं जैसे धूर्तभी शामिल हैं-और ग्रंथोंमें मो अनेक कारणोंके वश सच्ची झूठी सभी प्रकारको बातें लिखी जा सकती हैं और लिखी गई हैं। फिर बिना परीक्षा और सत्य Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ९० ] की जाँच किये महज प्रन्यवाक्य होनेसे ही किसी बातको कैसे मान्य किया जा सकता है ? यदि योही मान्य किया जाय तो फिर सम्यक-मिथ्याका विवेक ही क्या रह सकता है ? और बिना उसके सम्यग्दृष्टि-मिथ्याष्टिका भंद भो कैसे बन सकता है ? अतः यह सब भट्टारकीय मायाजाल और उनको लोलाका दुष्परिणाम है ! और उसीने ऐसे बहुतसे झूठे तथा जालो ग्रंथों को जन्म दिया है, जिनमें अनेक त्रिवर्णाचार, श्रावकाचार, संहिताशास्त्र और चर्चासागर जैसे ग्रन्थ भी शामिल हैं। और जिनमेसे कितनों ही की परीक्षा होकर उनका स्पष्ट झूठ तथा मालीपन पबलिकके सामने आ चुका है। ___ यहां पर मैं इतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि अनुवादक महाशयने उक्त श्लोकका अर्थ देते हुए लिखा है कि-"सम्यग्दृष्टीका यही एक लक्षण है कि जिसको जिनेन्द्र के आगमका श्रद्धान है।" अर्थात् आपने 'यदुक्तं ग्रन्थकारक: वाक्यं तदेव मान्यं स्यात्' का अर्थ "जिसको श्री जिनेन्द्रके आगमका श्रद्धान है" ऐसा किया है ! और इस तरह प्रस्तुत प्रन्थकी स्पष्ट बात पर कुछ पर्दा डालने हुए हिन्दी पाठकोंको आंखों में धूल डालनेका यत्न किया है !! मूलमें 'श्री जिनेन्द्र देव' और उनके 'आगम' का नामोल्लेख तकभी नहीं है, बल्कि सामान्यरूपसे बहुवचनान्त 'ग्रन्थकारक' पदके साथ 'यदुक्त" पदका प्रयोग करके सभी प्रन्थकारोंके कथनका समावेश किया गया है । अतः यह सब भट्टारकीय शासनके अनुयायी और उसे प्रचार देनेके उत्कट इच्छुक अनुवादक महाशय (वर्त० क्षुल्लक शानसागरजी) की निरंकुशता है ! और उनकी ऐसी निरंकुशताओंसे यह सारा ग्रन्थ भरा पड़ा है !! ७ कुन्दकुन्दकी अनोखी श्रद्धाका उल्लेख! श्रीकुन्दकुन्द मुनिराजकी विदेहक्षेत्र-यात्राका वर्णन करते Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ९१ ] हुए, एक स्थान पर लिखा है कि विदेहक्षेत्रके चक्रवर्तीने एक दिन मुनिजीसे आहारक लिये विहारको प्रार्थना की, जिसके उत्तरमें उन्होंने कहा-'तुम्हें क्या मालूम नहीं कि इस क्षेत्रमें मेरे आहारको योग्यता नहीं है ?' इस पर चक्रवर्तीने योग्यता न होनेका कारण पूछा, तब कुन्दकुन्दने उत्तर दिया: मक्षेत्रे ह्यधना रात्रिः त्वत्क्षेत्रे ह्यधना दिवा । भारतजोऽप्यहं न्यादं कथं कुर्वेऽत्र दोषदम् ॥२३॥ अर्थात्-मैं मारनमें उत्पन्न हुआ हूँ, तुम्हारे क्षेत्रमें इस समय दिन होने पर भी मेरे क्षेत्र में इस वक्त रात्रि है, तब मैं इस समय (जब कि मेरे हिसाबले गत्रि है) यहां भोजन कैसे करूं ? वह दोषकारी है-रात्रि भोजनके दोषको लिये पाठकजन ! देखा, देशकालादिके अनुसार वर्तन करने वाले एक महामुनिके द्वारा दिया हुआ यह कैसा विचित्र उत्तर है और इसमें कुन्दकुन्दकी कैसी अनोखी श्रदाका उल्लेख किया गया है ! जबकि विदेह क्षेत्र में खूब दिन खिल रहा था, सूर्यका यथेष्ट प्रकाश हो रहा था, शुद्ध एवं निर्दोष भोजनकी सब व्यवस्था मौजूद थी और दूसरे महान् मुनिजन भी आहार के लिये जा रहे थे तथा भोजन कर रहे थे, तब कुन्दकुन्दका उस समयको रात्रि बतला कर भोजन करनेसे इनकार करना और उस भोजनको सदोष मानना अथवा महज़ इस वजहसे भोजन न करना कि उस समय भारतमें रात्रि है-भोजन करनेसे रात्रिभोजनका दोष लगेगा, कितना हास्यास्पद है, इसे पाठक स्वयं समझ सकते हैं । इससे तो वहाँ रात्रिके समय, जब कि भारत में दिन था, कुन्दकुन्दका भोजन कर लेना निर्दोष ठहरता है ! फिर, उसे उन्होंने क्यों नहीं अपनाया और क्यों Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ९२ ] सात दिन तक वे भूखे रहे ? इसका ग्रंथ परसे कुछभी समाधान नहीं होता ! इसके सिवाय, यदि यह मान लिया जाय कि भारतको रात्रि दिनकी चर्याके हिसाब से ही कुन्दकुन्द बँधे हुए थे तो उन्हें उस वक्त चक्रवर्तीसे वार्तालाप भी नहीं करना चाहिये था और न वहा दिनके समय सीमंधर स्वामी तथा उनके गणधरोंसे ही प्रश्नादिक करने चाहियें थे; क्योंकि उस समय भारतमें रात्रि थी और रात्रिको मुनिजन बोलते नहीं हैं - खुद कुन्दकुन्दभी इसीलिये उन देवोंसे नहीं बोले थे जो रात्रि के समय उन्हें लेने के लिये गये थे और जिसका उल्लेख प्रथम "ब्रूयुर्नैव रात्रौ च" इत्यादि वाक्यके द्वारा किया गया है । फिर कुन्दकुन्द ने अपने उस रात्रि में मोनके नियमको वहाँ जाकर क्यों भुला दिया ? यह देशकालानुसार वर्तन नहीं था तो और क्या था ? फिर भोजनने ही कोनसी ख़ता को थी ? यदि वहां उन्हें भोजन कराना हो ग्रंथकारको दृष्ट नहीं था तो अच्छा होता यदि कुन्दकुन्दके द्वारा ऐसा कुछ उत्तर दिला दिया जाता कि 'भारतीयों द्वारा दिया हुआ भारतका अन्नजल ही मेरे लिये प्राह्य है ।' परन्तु ग्रंथकारको इतनी समझ होती तब न ! उसने तो अपनी मूर्खतावश कुन्दकुन्द जैसे महान् आचार्य को भी अच्छा ख़ासा मूर्ख बना डाला है !! ८ आगमका अद्भुत विधान ग्रंथ में एक स्थान पर आगमका जो विधान दिया गया है वह इस प्रकार है : जिनबिम्बं नराः ये हि दृष्ट्वा कुर्वन्ति भोजनम् । ते मता ह्यागमे मर्त्याः पशुतल्याश्च तद्ऋते ॥ पृ० २०६ ।। अर्थात् आगम में वे लोग हो निश्चयसे मनुष्य माने Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ९३ j गये हैं जो जिनबिम्बका - जिनेन्द्रको मूर्तिका - दर्शन करके भोजन करते हैं। जो लोग जिनबिम्बका दर्शन किये बिना भोजन कर लेते हैं उन्हें 'पशुतुल्य' समझना चाहिये । 1 आगमकी इस व्यवस्था के अनुसार - (१) वे सब निग्रंथ जैनमुनि पशुतुल्य ठहरते हैं जिनके जिनबिम्बके दर्शनपूर्वक भोजनका तो क्या, जिनबिम्बके दर्शनका भी कोई नियम नहीं होता -- वैसे ही चर्यादिकको जाते समय यदि कोई जैन मन्दिर अचानक रास्ते में आ जाता है तो वे दर्शन कर लेते हैं अन्यथा नहीं ! (२) वे सब सज्जन भी पशुओंको कोटिमें आते हैं जो अप यहांने जैनमन्दिरके न होने या सफ़र में रहने आदि किसी कारण वश बिना जिनबिम्बका दर्शन किये ही भोजन कर लेते हैं अथवा कुछ खा-पोकर दर्शन करते हैं- भलेही वे कैसे हो सभ्य, शिष्ट, धर्मात्मा एवं मनुष्योचित कार्योंके करने वाले क्यों न हों ! (३) सारे अजैनजन भी पशुतुल्य क़रार पाते हैं, जिनमें बड़े बड़े सन्तमहन्त, सत्पुरुष त्यागमूर्ति, परोपकारी, पूज्य देशनेता और गाँधीजी जैसे महात्मा भी शामिल हैं ! क्योंकि वे लोग बिना जिनबिम्बका दर्शन किये हो भोजन किया करते हैं !! (४) उन सब दुष्टों, धूर्तो तथा पापात्माओं को भो मनुष्यत्वका सर्टिफिकेट मिल जाता है जो किसी तरह भोजन से पहले जिनबिम्बका दर्शन तो कर लेते हैं परन्तु अन्य प्रकार से जिनके पास धर्माचार या विवेक जैसी कोई वस्तु नहीं होती और जो मनुष्य हत्याएँ तक कर डालते हैं ! मालूम नहीं यह कौनसे आगमका अद्भुत विधान है ! जैनागमका तो ऐसा कोई विधान है नहीं और न हो सकता I है । संभवतः यह ग्रंथकारके उस कलुषित हृदयागमका हो विधान जान पड़ता है जो ढूंढिया भाइयों पर गालियोंकी वर्षा करते समय उसके सामने खुला हुआ था । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ९४ ] इसी तरहका एक अत्यन्त संकीर्ण हृदयोद्गार ग्रंथकार ने और भी निकाला है और वह इस प्रकार है पश्यन्ति नैव ये मूढाः जिनबिम्बं जगन्नतम् । कदापि तन्मुखो नैव दर्शनीयो बधोत्तमैः ॥पृ० १६१॥ इसमें बतलाया गया है कि 'जो लोग जिनयिम्बका दर्शन नहीं करते हैं उन मूढोका कदापि मंह नहीं देखना चाहिये!' इस व्यवस्थाके अनुसार देशकी प्रायः सारी महाविभू. तियाँ-पूज्यव्यक्तियाँ-भी जैनियोंके लिये, नहीं नहीं इस प्रन्थके मानने वालों के लिये, अदर्शनीय हो जातो हैं ! उन्हें देशके दूसरे पूज्य नेताओं, राजाओं, हाकिमोंसे नहीं मिलना चाहिये! अन्य व्यापारियों, सेवकों तथा शिल्पकारोंसे भी बात नहीं करनी चाहिये !! और रास्ता चलते हुए आँखें बन्द करके अथवा अपने मुंह पर पल्ला डाल कर चलना चाहिये, क्योकि चारों तरफ ऐसे ही लोग भरे पड़े हैं जो जिनबिम्बका दर्शन नहीं करते-कहीं उनका मुख न दिखलाई पड़ जाय !!! कैसी अद्भुत व्यवस्था और कैसी हृदयहीनता है !! इस व्यवस्था पर दृढताके साथ अमल करने (चलने) वाले क्या संसारमें कुछ अधिक समय तक जीवित रह सकते हैं या अपनी कुछ उन्नति कर सकते हैं ? कदापि नहीं। फिर उनके द्वारा अपने धर्मका प्रचार अथवा लोगोंको जिनबिम्बके दर्शनकी ओर लगानेका कार्य तो बन ही कैसे सकता है ? निःसन्देह, इस प्रकारको शिक्षाओंने जैनसमाजको बहुत बड़ी हानि पहुँचाई है और जैनियोंको पतनके खुले मार्ग पर लगाया है !! अन्यथा, हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों आदिने तो पतितसे पतित मनुष्यों, भोलचाण्डालों और म्लेच्छों तकको, उनकी बाँह पकड़ कर, सन्मार्ग Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ९५] पर लगाया है। वे यदि उनका मुँह ही न देखते तो उनका उद्धार कैसे कर पाते ? परन्तु खेद है कि आज आचार्य कहे जाने वाले शान्तिसागरजी और उनके गणधर क्षुल्लक शानसागरजी ऐसी विषैली शिक्षाओसे परिपूर्ण प्रन्थका भी अनमोदन तथा प्रचार करते हैं और जैनसमाज उनसे कुछभी जवाबतलब नहीं करता-उन्हें बराबर आचार्य तथा क्षुल्लक मानता चला जाता है ! इससे अधिक जैनसमाजका पतन और क्या हो सकता है? ६ कर्मसिद्धान्तकी नई ईजाद ! भगवानसे राजा श्रेणिकके कुछ प्रश्नोंका उत्तर दिलाते हुए, एक स्थान पर लिखा है कि 'म्लेच्छोंसे उत्पन्न हुए स्त्री-पुरुष मरकर व्रतहीन मनुष्य ( स्त्री-पुरुष ) होते हैं।' यथा: म्लेच्छोत्पन्ना नरा नार्यः मृत्वा हि मगधेश्वर ! भवन्ति व्रतहीनाश्च इमे वामाश्च मानवाः ॥पृ० ३७७॥ इस विधानके द्वारा प्रन्थकारने कर्मसिद्धान्तको एक बिलकुल ही नई ईजाद कर डाली है ! क्योंकि जैनधर्मके कर्मसिदान्तानुसार म्लेच्छ सन्तानोंके लिये न तो मनुष्यगतिमें जानेका हो कोई नियम है, जिसे सूचित करने के लिये ही यहाँ 'मानवाः' पदका खास तौरसे प्रयोग किया गया है-वे दूसरी गतियों में भी जा सकते हैं और जाते हैं और न अगले जन्ममें व्रतहीन होना ही उनके लिये लाज़िमी है। व्रतहीन होनेके लिये चारित्रमोहनीयका एक भेद अप्रत्याख्यानावरण कषायका उदय कारण माना गया है और चारित्र-मोहनीयके Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ९६ ] आस्रवका कारण "कषायोदयात् तीव्रपरिणामश्चारित्रमोहस्य" इस सूत्रके अनुसार कषायके उदयसे तीव्रपरिणामका होना कहा गया है न कि किसी म्लेच्छको सन्तान होना । म्लेच्छ को सन्ताने तो अपने उसी जन्ममें व्रतोका पालन कर सकती हैं और महाव्रती मुनि तक हो सकती हैं, जिसके अनेक उदाहरण तथा विधान जैनशास्त्रोंमें पाये जाते हैं*, तब उनके लिये अगले जन्ममें लाज़िमी तौरसे व्रतहीन होनेको कोई वजह ही नहीं हो सकती। इसके सिवाय, इसी ग्रंथमें एक स्थान पर लिखा है कि जैनधर्मको धारण करता हुआ श्वपच (म्लेच्छ-विशेष भी) 'श्रावकोत्तम' माना गया है, कुत्ता भी व्रतके योगसे देवता हो जाता है और एक कीड़ा भी लेशमात्र व्रतके प्रसादसे उत्तम गतिको प्राप्त होता है। तथा दूसरे स्थान पर लिखा है कि * देखो, हरिवंशपुराणादि ग्रन्थ, जिनमे अनेक भीलों, चाण्डालों, म्लेच्छोंके व्रत पालनादिका उल्लेख है। 'जरा' नामकी म्लेच्छ कन्याले उत्पन्न हुए 'जरत्कुमार' ने भी अन्तको मुनिदीक्षा ली थी. जिसका उल्लेख भी जिनमेनके हरिवंशपुराणमे है । इसके सिवाय, लब्धिसारकी टीकाके निम्न अशसे साफ़ प्रकट है कि म्लेच्छ देशोंसे आये हुए म्लेच्छ तथा म्लेच्छ कन्याओंसे चक्रवादिकके वैवाहिक सम्बन्ध द्वारा उत्पन्न पुत्र जैनमुनिदीक्षाके अधिकारी हैं:-"म्लेक्षभूमिजमनुष्याणां सकलसंयमग्रहणं कथ भवतीति नाशंकितव्य। दिग्विजयकाले चक्रवर्तिना सह आर्यखण्डमागताना म्लेच्छराजानां चकवादिभिः सहजातवैवाहिकसम्बन्धानां सयमप्रतिपत्तरविरोधात् । अथवा चक्रवर्त्यादिपरिणीतानां गर्भेषत्पन्नस्य मातृपक्षापेक्षया म्लेच्छव्यपदेशभाजः संयमसंभवात् तथाजातीयकानां दीक्षाईत्वे प्रतिषेधाभावात् ।" (गाथा नं. १९३) Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ९७ ] मातङ्ग (म्लेच्छ-विशेष) आदि मनुष्योंने शुद्ध एक (कर्मदहन) व्रतका पालन करनेसे सुखको प्राप्त किया है । यथा: "श्वपचो जिनधर्मेण कथितः श्रावकोत्तमः।"... "ह्यलको वृतयोगेन देवत्वे जायते खलु ।"... "कीटोऽपि व्रतलेशेन भजते गतिमुत्तमाम् ॥१० ३७॥" "मातंगाद्याश्च ये माः शुद्धैकव्रतपालनात् । सुखमाप्ताः ..... ॥पृ० ३८१॥" जब इसी प्रन्थ के कथनानुसार श्वपच-मातंग ही नहीं किन्तु कुत्ता और कोड़ा भी व्रतका पालन कर सकता है तब एक म्लेच्छ-पुत्र या पुत्री व्रतका अनुष्ठान करते हुए मर कर मनुष्य होने पर भी व्रतका पालन न कर सके-सर्वथा व्रतहीन हो रहे-यह कैसे बन सकता है ? अतः ग्रंथकारकी यह नई ईजाद अथवा व्यवस्था बिलकुल उसकी नासमझी पर अवलम्बित है, वास्तविकतामे उसका कोई सम्बन्ध नहीं और उसे एक उन्मत्त प्रलापसे अधिक कुछभो महत्व नहीं दिया जा सकता। इसी तरहको और भी कितनी ही बाते कर्मसिद्धान्त की विडम्बनाको लिये हुए पाई जाती हैं, जिन्हें यहाँ छोड़ा जाता है। १० स्त्रीजातिका घोर अपमान ! प्रन्थके शुरूमें भगवान्के मुंहसे पंचमकालके भविष्यका वर्णन कराते हुए एक स्थान पर लिखा है: शीलहीना भविष्यन्ति वामास्तस्मिन्मदोद्धताः। त्यक्त्वा च स्वपति दासं मोक्ष्यन्ति कालदोषतः ॥१०॥ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ९८ ] लक्षकोटिषु शीलाढ्या नारी ह्येका नराधिराट् ! शुद्धशीलधरा नापि भविष्यन्ति न संशयः ॥१०१॥ अर्थात्-पंचमकालमें स्त्रियां शोलरहित तथा मदोद्धत होगी और कालदोषसे अपने पतिको छोड़ कर नौकरसे भोग फरेंगी। हे राजन् ! लाखों करोड़ों स्त्रियों में कोई एक स्त्री शीलवती होगी और शुद्धशीलका पालन करने वालो तो कोई होगी ही नहीं! इस भविष्यकथनके अनुसार भारतवर्ष में इस वक्त मन. वचन-कायसे प्रसन्नतापूर्वक शुद्ध शीलवतका पालन करने वाली तो कोई स्त्री होनी हो न चाहिये ! जो किसी मजबूरी आदिके कारण कायसे शोलवतका पालन करती हो, उनकी संख्या भी ५० या ज्यादासे ज्यादा १०० के करीब होनी चाहिये-जैनसमाजकी स्त्रो संख्या छह लाखके करीब है, इस लिये उनमें तो कोई एकाध स्त्री हो वैसीशीलवती होनी चाहिये। बाकी सब स्त्रियों को व्यभिचारिणी समझना चाहिये !! ___ यह कथन प्रत्यक्ष के कितना विरुद्ध और विपरीत है, उले बतलानेकी ज़रूरत नहीं-देशकालका थोड़ा सा भी व्यापकशान रखने वाले इसे सहज ही में समझ सकते हैं। हां, इतना ज़रूर कहना होगा कि इसके द्वारा स्त्रियोंकी पवित्रता पर जो व्यर्थका निरर्गल आक्रमण और अविवेकपूर्ण भारो दोषारोपण किया गया है वह स्त्री जातिका घोर अपमान है और एक ऐसा अपराध है जो क्षमा नहीं किया जा सकता। वास्तवमें भगवान महावीरके बाद से आज तक देशमें हज़ारोंलाखों देवियां पूर्णरूपसे पतिव्रत धर्मका पालन करने वाली परम सुशीला, पतिपरायणा और देशकी गौरवरूपिणी हो चुकी हैं। उनकी यह अवश किसी तरह भी सहन नहीं की जा Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ९९ ] सकती। इस समय भी पुरुषोंको अपेक्षा स्त्रियां अधिक शोल. सम्पन्न तथा अधिक पवित्र जीवन बिताने वाली हैं और जो पतित भी होती हैं वे प्रायः पुरुषोंके द्वारा हो पतनके मार्गमें लगाई जाती हैं। फिर भी पुरुषोंके शोलविहीन होनेकी बाबत ऐसा कुछ नहीं कहा गया, यह आश्चर्य है ! और वह ग्रंथकार के पूर्ण अविचार तथा उसके किसी स्वार्थ को सूचित करता है। ११ शद्र-जलादिके त्यागका अजीब विधान ! इस ग्रंथमें कुछ स्थानों पर शूद्र-स्पर्शित जल-घृतादिको त्याज्य बतलाते हुए लिखा हैः "निन्धं स्यात्सर्वमासेषु न्यादपानादिकं खलु । शूद्रकरण संस्पृश्यं सदाचारविनाशकम् ॥१३३॥ मद्यमांसमधूनां यदशनादोषो जायते । वै स्यात्तद्धस्तसंपर्क-वस्तुमक्षणतो बुधाः ॥१३४॥ ये पुनः शूद्रहस्तस्य भाद्रमासे व्रतेषु च । चूर्णोदकाज्यं खादन्ति ते नरास्तत्समा मताः ॥१३॥" "शूद्रस्पृश्यं जलं चूर्ण घृतं ग्राह्यं व्रताप्तये । नैव गृह्णन्ति ये मूर्खास्तत्समास्ते बुधर्मताः ॥१६०॥" -पृ० ३६, ३७, २१४ अर्थात्-शूद्रका हाथ लगा हुआ भोजन-पानादिक निश्चयसे सदाचारका विनाशक है, सभी महीनोंमें निन्ध है (खाने के योग्य नहीं)। हे बन्धुजनों ! जो दोष मद्य-मांस मधुके खानेसे लगता है वही शूद्रका हाथ लगी वस्तु के खाने में Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १००] लगता है । जो लोग भादोंके महीनेमें तथा व्रतोंमें शूद्रके हाथका जल, घृत और आटा खाते हैं वे शूद्रोंके समान माने गये हैं । व्रतकी ( कर्मदहनवतकी) सिद्धि के लिये शुद्रस्पर्शित जल, घृत और आटा प्रहण नहीं करना चाहिये, जो मूर्ख ग्रहण करते हैं वे शूद्रोंक समान हो माने गये हैं। एक स्थान पर तो यहां तक भी लिखा है कि जो लोग खानपानादि-सम्बन्धी कामों के लिये-उनको तय्यारोमें सहायता पहुँचाने आदिके लिये*-शूद्रांको अपने घर पर (नाकर) रखते हैं वे श्रावक कैसे हो सकते है ? उन्हे निश्चयस शूद्रोंके समान समझना चाहिये ।' यथाः शूद्रलोकस्य ये धाम्नि रक्षन्ति ते कथं मताः । खानपानादिकार्थ श्रावकास्तत्समाः खल ॥पृ० ३२॥ मालूम नहीं ये सब विधान कौनसी कमाफलासोफ्नो अथवा धर्मशास्त्रको किस आज्ञास सम्बन्ध रखत हैं ! और न यही कुछ समझम आता है कि मात्र शूद्रक हाथका स्पर्श होने से ही भोजन-पानको कोई सामग्रो निन्द्य (सदोष) क्यांकर हो जातो है ? कैसे सदाचारको विनाशक बन जाती है ? और उसके भक्षणसे मद्य-मांस मधुके भक्षणका दोष (पाप) किस प्रकार लगता है १ कोई मनुष्य महज़ भादो अथवा व्रतके दिनों में शूद्रस्पर्शित जल, घृत और आटके लनसं ही-बिना शूद्रका कर्म किये अथवा शूद्रकी वृत्तिको अपनाये ही-शूद्र कैसे बन जाता है ? शूद्र बना देने की वह विशेषता जल, घृत और आटको * जैसे वर्तन मांजना, चौकाचूल्हा करना, पानी भरना, दुग्धादि गर्म करना तथा लाकर देना, भाटा छानना और शाकादि ठीक करना जैसे कामों के लिये। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १०१ ही क्यों प्राप्त है ?, दूध, दही, गुड़, शक्कर, बूरा, खांड, दाल, चावल, तिल, तेल, गेहूं, चना आदि सालिम अनाज और फल शाकादिकको वह क्यों प्राप्त नहीं है ? यदि प्राप्त है तो फिर दोनों में से किसी भी श्लोकमें उनका उल्लेख क्यों नहीं किया गया ? 'आदि' शब्द तक भी क्यों साथमें नहीं लगाया गया ? और प्राप्त होने पर कोई भी मनुष्य शूद्रको पदवी पाने से वंचित कैसे रह सकता है ? इसी तरह वर्तन मांजने, चौका. चूल्हा करने, पानी भरने, दुग्धादि गर्म करने तथा लाकर देने, आटा छानने और शाकादि ठोक करने जैसे कामोंके लिये घर पर सत् शूद्रकी योजना हानेस ही घरके लोग शद्र कैसे बन जाते हैं ? बड़ा ही अजीब विधान है !!! क्या ग्रंथकारको दृष्टिमें सारे हो शूद्र असदाचारी तथा मद्यमासादिकके खाने वाले होते हैं और ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्योंमें से कोई भी असदाचारी तथा मद्य-मांस-मधुका सेवन करने वाला नहीं होता है ? यदि ऐसा नहीं, बल्कि प्रत्यक्षम हज़ारों शूद्र बड़े सदाचारी, ईमानदार तथा सफाईके साथ रहने वाले देखे जाते हैं आर उनकी कितनो हो जातियां मद्य-मांसका स्पर्श तक नहीं करतीं; प्रत्युत इसके, लाखों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य दुराचारी पाये जाते है, मद्य मांसादिकका खुला संवन करते है और कितनेही जैनो भो महादुराचारो तथा कुछ मद्य-मांसादिकका सेवन करने वाले भी नज़र आते हैं, तब फिर शूद्रांके विषयमें हो ऐसा नियम क्या ? उनके प्रति यह अन्याय क्यों? और ब्राह्मण-क्षत्रिय वैश्योंके साथ अनुचित पक्षपात क्यों ? क्यों ऐसा नियम नहीं किया गया कि जो लोग दुरावारी तथा मद्य-मांसादिकका सेवन करने वाले हो उनके हाथ का भोजनपान नहीं करना-भले ही वे जैनी क्यों न हो? यदि ऐसा नियम किया जाता तो वह कुछ समुचित एवं Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०२] न्यायानुमोदित भी जान पड़ता और दिलको भी लगता । प्रत्युत इसके, ऊपरका विधान बिलकुल जैनधर्मकी शिक्षाके बाहर है-शूद्रों के प्रति घृणा, तिरस्कार एवं दूपित मनोवृत्तिका घोतक है । जैनधर्ममें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद ये भेद वृत्ति (आजीविका) के आश्रित हैं और इन सभीको जैनधर्मके पालनका अधिकारी बतलाया है सभी लोग वर्णानुसार अपनी अपनी आजीविका करते हुए जैनधर्मका यथायोग्य पालन कर सकते हैं और जैनी हो सकते हैं। शूद्र तो शूद्र, भोलो चाण्डालों एवं म्लेच्छों तकके, जैनधर्मको धारण करके जैन. व्रतोंका पालन करनेके, उदाहरणों और विधानों से जैनग्रंथ भरे पड़े हैं, जिनका कुछ थोड़ा सा परिचय लेखकको 'जैनी कौन हो सकता है' इस नामकी पुस्तकसे भी मिल सकता है । खुद इस प्रथमें भी एक स्थान पर 'व्रतपालनात् शूद्रोऽपि श्रावको ज्ञेयः' जैसे वाक्यके द्वारा व्रतपालन करते हुए शूद्रको श्रावक लिखा है; एक दूसरे स्थान पर श्वपच (चाण्डाल) के श्रावकोत्तम होनेका उल्लेख किया है और तीसरे स्थान पर मातंगादिकने कर्मदहनवतका पालन कर सुख पाया ऐसी सूचना की गई है। क्या एक शूद्र या मातंग (चाण्डाल), कर्मदहनव्रतका अनुष्ठान करता हुआ और इसलिये व्रतविधिक साथ अनुगत भगवानका अभिषेक पूजनादि करता हुआ भी, खुद अपने हाथका भोजन न करके किसी ब्राह्मणादिके हाथका भोजन करता फिरेगा ? कैसी अजीब विडम्बना होगी! प्रथकारको इन सब पूर्वापरसम्बन्धों आदिको कुछ भी ख़बर नहीं पड़ी और उसने यो हो बिना सोचे समझे उन्मत्तोंकी तरह जो जीमें आया लिख मारा !! और साथमें भगवान महावीरको भी घसीट मारा; क्योंकि ये सब वाक्य Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०३] भी उन्होंके मुखसे और उन्हींके शासनके विरुद्ध कहलाये गये हैं !!! जिन भगवान् महावीरने शूद्रोंकासंकट दूर किया, उन पर होते हुए ब्राह्मणोंके अत्याचारोंका तोत्र विरोध कर उन्हें हटाया और उन्हें सब प्रकारको धार्मिक स्वतन्त्रता प्रदान की, उन्होंके मुखसे शूद्रोंके प्रति ऐसे अन्याय तथा तिरस्कारमय शब्दों का निकलना कब संभव हो सकता है और कौन सहृदय उसपर विश्वास कर सकता है ? कोई भी नहीं, और कभी भी नहीं । १२ भगवानकी मिट्टी खराब ! इस प्रन्थमें भगवान महावीर के मुखसे बहुतसा असम्बद्ध प्रलाप कराकर और अनेक आपत्तिके योग्य, पूर्वापरविरुद्ध, इतिहासविरुद्ध, सत्यविरुद्ध तथा अपने ही शासनके विरुद्ध कितनी ही बेढंगी बाते कहलाकर और भगवान्को अच्छा खासा मूर्ख, अविवेकी, अनुदार, साम्प्रदायिक कट्टर, विक्षिप्तचित्त, असभ्य, अशिष्ट, कषायवशवर्ती और कलुषित हृदय क्षुद्रव्यक्ति चित्रित करके उनकी कैसो मिट्टो खराब को गई है, इसका कितना ही परिचय पाठकोंको अबतकके उल्लेखों द्वारा प्राप्त हो चुका है। यहां पर दो तीन बातें और भी इसो विषयको प्रकट की जाती हैं : (क) सम्मेदाचलके प्रकरण में, कूटोंके नामादिसम्बन्धी राजा श्रेणिकके प्रश्नको लेकर, भगवान् महावीरसे सम्मेदशिखरका स्तोत्र * कराया गया है और उसमें उनसे "अहं नमामि शिरसा त्रिशुद्ध्या तं तीर्थराज शिवदायकं च", "इंडे ॐ इस स्तोत्रमें राजा श्रीणिकको सम्बोधन करने के लिये नप, नृपते, मगधाधीश, नराधीश और बेलनापते जैसे पदोंका प्रयोग किया गया है। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १०४ ] तं सदा शिवदायकं च" जैसे वाक्योंके द्वारा सिर झुकाकर पर्वतराजकी पूजा बन्दना तक कराई गई है ! इतना ही नहीं, बल्कि इस स्तोत्र की प्रतिज्ञाके अवसरपर भगवान्को गणधरों, सर्वमुनियों तथा जिनवाणीके भी आगे नतमस्तक किया गया है - अर्थात् उन्हें भी नमस्कार कराकर स्तोत्र की प्रतिज्ञा कराई गई है !! यथा : नत्वा श्रीजिननायकान् गणधरान्देवेन्द्रवृन्दार्चितान् मौनीन्द्रान् सकलान् तथा च सुखदां जैनेन्द्रवक्त्रोद्भवाम् । arfi पापप्रणाशिकi मुनिनुतां सद्बुद्धिदां पावनीं सम्मेदाभिधपर्वतस्य शिवदं स्तोत्र करोमि शुभम् ॥ पृ० २६५ मालूम नहीं जिनेन्द्रपदवी और परम आर्हन्त्य दशाको प्राप्त भगवान् महावोरका अपने हो उपासक गणधरों तथा मुनियों और अपनी ही वाणीके-अपने ही शास्त्रोंके-आगे सिर झुकानेका तथा पर्वतकी स्तुति बन्दनाका क्या अभिप्राय और उद्देश्य हो सकता है ! वास्तव में तो इस प्रकारकी स्तुति तथा पूजा वन्दना जिनेन्द्रपदको एकमात्र विडम्बना है अथवा कहिये कि ये सब भगवान् महावीरको उस स्थिति तथा पोजीशन के विरुद्ध है जिसे लिये हुए वे केवलज्ञानके पश्चात् समवसरण में स्थित थे । वे इन मुनियों आदि की वन्दना और पर्वतों की स्तुतिपूजा के भावसे बहुत ऊँचे उठ चुके थे - उपा कोंकी इस श्रेणीसे ही निकल चुके थे, और इसलिये उन से इस प्रकारकी क्रियाएँ कराना सचमुच ही उनकी मिट्टी ख़राब करना है !! उन्हें एक तरहसे ज़लील ( अपमानित ) करना है !!! Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०५ (ख) कर्मदहनवतके फलकथनमें-जो राजा श्रेणिकको सुनाया गया है-मोक्षस्थानादिका वर्णन करते हुए, "दिशे मगधाधीश मोक्षस्थाने मनोहरे" इत्यादि श्लोकसे पहले एक हो श्लोकके अंतरपर-निम्न दलोक दिया है और उसके द्वारा भगवान् महावीरसेमुक्त जीवोंके प्रति यह प्रार्थना और याचना कराई गई है कि वे उसे बोधि और समाधि प्रदान करें: ते मया संस्तुताः सर्वे चिन्मयाः कायवर्जिताः । मे समाधि सुबोधि च यच्छन्तु नोपरा इह ॥११॥ इससे मालूम होता है कि समवसरण-स्थित भगवान् महावीर बोधि और समाधिसे विहोन थे ! उन्हें दोनोंको ज़रूरत थी और इसलिये स्तुतिके अनंतर उन्होंने उनके लिये याचना को है !! और शायद इसीलिये उन्होंने, स्तुतिका प्रारंभ करते हुए, "किंचित् बुद्धिलवेन भव्यवचसा तेषां च कुर्वे स्तवं" इस वाक्यके द्वारा अपनेको थोडीसी वुद्धिका धारक भी सूचित किया है !!! 'बोधि' अर्हद्धर्मको प्राप्तिको, सम्यग्दर्शन (सम्य. पत्व) को तथा पूर्ण ज्ञान ( Perfect wisdom) को भी कहते हैं, और 'समाधि' स्वरूपमै चित्तको स्थिरताका नाम है अथवा “प्रशस्तं ध्यानं शुक्लं धम्य वा समाधिः" इस श्री विद्यानन्दके वाक्यानुसार धर्म्य और शुक्ल नामके प्रशस्त ध्यानों को भी समाधि कहते हैं । अब पाठकजन सोचिये, कि क्या केवलबान और केवलसम्यक्त्व आदि क्षायिक गुणोंको पाकर अथवा परम आर्हन्त्य पदको प्राप्त होकर भी भगवान् महावीर बोधिसमाधिसे विहीन थे ?- उन्हें पूर्णशान नहीं था ? स्वरूपमें उनका चित्त स्थिर नहीं था? और वे प्रशस्त ध्यानी नहीं थे ? यदि ऐसा कुछ नहीं है तो फिर ऐसे आतपुरुषोंसे Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०६] बोधि-समाधिको याचना कराना और उन्हें थोड़ी सी बुद्धिका धारक प्रकट कराना उनको तथा अर्हत्पदकी मिट्टी खराब करना नहीं तो और क्या है ? अर्हन्तोंसे तो दूसरे लोग 'दितु समाहिं च मे वोहिं' जैसे शब्दोंके द्वारा बोधिसमाधिको प्रार्थना किया करते हैं; वे यदि खुद ही बोधिसमाधिसे विहीन हो तो उनकी उपासनासे इस विषयमें लाभ भी क्या उठाया जा सकता है ? और उनकी अहन्तता अथवा आप्तताका महत्व भी क्या हो सकता है ? कुछभी नहीं। (ग) दिगम्बर तेरहपंथियोंसे भगवान्को झड़पके समय निम्न वाक्य भी भगवान्के मुखसे कहलाये गये हैं: "अधुना पंचमे काले नो सन्ति भो बुधोत्तमाः । तीर्थकराः सुरैः पूज्याः केवलज्ञानमडिताः ॥८॥ "प्रत्यक्षं केवली नास्ति अतस्तत्स्थापना मता । स्थापनायां मताः सर्वाः क्रिया: वै स्नपनादिकाः॥१०३॥ "कालेऽस्मिंश्चलचित्तकरे मिथ्यात्वपूरिते । नैव दृश्यन्ते योगीन्द्रा महाव्रतधरा वराः॥११३॥ इनके द्वारा भगवान् महावीर कहते हैं-'हे उत्तम बुध. जनों! इस वक्त (अधुना)पंचमकालमें निश्चयसे केवलशानमंडित और देवोंसे पूज्य तीर्थङ्कर नहीं हैं । प्रत्यक्षमें कोई केवली नहीं है, इसलिये केवलीको स्थापना मानी गई है और स्थापनामें निश्चयसे अभिषेकादि सारी क्रियाएं स्वीकार की गई हैं। इस चलचित्तकारी और मिथ्यात्वसे पूरित (पंचम) कालमें महाव्रतो को धरने वाले श्रेष्ठ योगीन्द्र दिखलाई ही नहीं देते।' ___ भगवान् महावोर चतुर्थकालमें हुए हैं, वे खुद तोर्थङ्कर थे, केवली थे और उनके समयमें बहुतसे महावतधारी गौतमा Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०७] दि योगीन्द्र मौजूद थे और बादको पाँचवे कालमें भी भद्रबाह, धरसेन, कुन्दकुन्द, समन्तभद्र और जिनसेनादि कितने हो धेष्ठ योगीन्द्र हो चुके हैं जिन्हें इस ग्रंथमें भी 'इत्याद्या वर. योगीन्द्राः' जैसे शब्दोके द्वारा 'वरयोगोन्द्र' प्रकट किया गया है*; तब भगवान्का पंचमकाल के साथ 'अधुना' शब्द जोड़कर अपने समयको पंचमकाल बतलाना, खुद तोर्थङ्कर तथा केवली होते हुए भी उस समय तीर्थकर तथा केवलोका अभाव प्रकट करना और अपने सामने गौतमादि गणधरों जैसे महायोगीन्द्रों के मौजूद होते हुएभी 'इस समय कोई महाव्रतधारी योगीन्द्र दिखलाई नहीं देते' ऐसा कहना कितना हास्यास्पद तथा आश्चर्यजनक है और उसके द्वारा भगवानका कितना गहलापन तथा उन्मत्तप्रलाप पाया जाता है, इसे पाठक स्वयं समझ सकते है। भगवानके मुंहसे इन वाक्योंको कहला कर ग्रंथकार ने निःसन्देह भगवानको बड़ोही मिट्टी ख़राब की है और उन्हें कोरा बुद्धृ ठहराया है !! यदि भगवान कहीं इस समय सजीव देहधारी होते या देहधारण कर यहाँ आते और इस प्रथको देख पाते तो आश्चर्य नहीं जो वे यों कह उठते 'जौहर थे खास मुझमें प्राप्तस्वरूप के । यों स्वांग बना क्यों मेरी मिट्टी खराब की !!' सचमुच हो इस सारे ग्रंथमे भगवान महावीरका स्वाँग बनाकर और उससे अटकलपच्चू यद्वातद्वा कहलाकर उनकी खूब अच्छी तरहसे मिट्टी खराब की गई है। उनके ज्ञान,श्रद्धान, विवेक, अकषायभाव, समता, उदारता, सत्यवादिता, सभ्यता, * इसके लिये देखो, पृष्ठ २७ पर उद्धृत श्लोक नं. १५४ से १५६ । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०८] शिष्टता, पदस्थ ओर पोजीशन आदि सब पर पानी फेरा गया है और उन्हें कठपुतलीकी तरह नचाते हुए विद्वानोंकी इष्टिमें ही नहीं, किन्तु साधारण जनों की दृष्टिमें भी बहुत कुछ नीचे गिराया गया है !! यह सब ग्रंथकार पंडित नेमिचन्द्रको धूर्तता, मूढता, अविवेक परिणति, कषायवर्तिता, साम्प्रदायिक कट्टरता, स्वार्थसाधुता, क्षुद्रता और उस अहंकतिका ही एक परिणाम जान पड़ता है जिसने उससे यह गर्योति तक कराई थो कि 'इस ग्रंथके श्रवणमात्रसे प्रतिपक्षोजन मंत्रकीलित नागोंकी तरह मूकवत् स्थिर होजायंगे-उन्हें इसके विरुद्ध बोलतक नहीं आएगा ! वह अपनी अज्ञानता, विक्षिप्तचित्तता और अहंकारादिके वश हुवा भगवान् महावीर के पार्टको इस ग्रंथमें ज़रा भी ठोक तौरसे अदा नहीं कर सकाखेल नहीं सका !! उसने व्यर्थ ही अपने हृदय, अपने अज्ञान, अपने संस्कारों, अपनो कपाय-वासनाओं, अपनी बातों और अपने कहने के ढंग को भगवान् महावीरके ऊपर लादा है !!! और इस लिये इस ग्रंथको रचकर उसने जो घोर अपराध किया है वह किसी तरह भी क्षमा किये जानेके योग्य नहीं है। ऐसे महाजाली, झूठे, निःसार, अनुदार, प्रपंची और असम्बद्ध. प्रलापी एवं विरुद्ध कथनोंसे परिपूर्ण प्रथको किसी तरह भी जैन प्रन्थ नहीं कहा जा सकता। इसे जैनमन्थोंका भारी कलंक समझना चाहिये और इसलिये जितनाभो शोघ्र होसके इसका जैनसमाजसे बहिष्कार किया जाना चाहिये। यह तो हुई प्रायःमूल प्रथको जांच और परीक्षा ® इस गर्वोक्ति का घोतक मूलवाक्य पृष्ठ २६ पर उद्धत किया जा चुका है। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०९] अथवा विशेष आलोचना * । अब ग्रन्थके अनुवादको भो लीजिये। अनुवादककी निरंकुशता और अर्थका अनर्थ ! उस प्रंशके अनुवादमें अनुवादक पं० नन्दनलालजीने, जो अनुवादक समय ब्रह्मचारो ज्ञानचन्द्रजो महाराज' थे और अब 'क्षुल्लक ज्ञानसागरजी महाराज' के रूपमें शांतिसागरसंघमें विराजमान हैं, जिस स्वच्छंदता एवं निरंकुशतासे काम लिया है और उसके द्वारा जो अनर्थ घटित किया है उसका यदि पूरा परिचय कराया जाय और ठोक ठोक आलोचना को जाय तो एक अच्छा खासा बड़ा ग्रंथ बनजाब-अब तकके लेख परिमाण से उसका परिमाण बहुत बढ़जाय । परन्तु मैं अब इस निबन्ध को अधिक बढ़ाना नहीं चाहता हूं, अनुवादक को इस निरंकुशता आदिका कितना हो परिचय पिछले पृष्ठों में भो प्रसंग पाकर दिया जाचुका है और उसके द्वारा प्रन्थ तथा ग्रंथकारादिका जो स्वरूप प्रकट किया गया है उसे देखते हुए बहुत अधिक लिखनेको कुछ ज़रूरत भो मालूम नहीं होती। अतः प्रकृत ग्रंथके अनुवाद-सम्बन्धमें संक्षेपरूपसे कुछ थोडासा * इसमे ग्रन्थके भाषासाहित्यकी आलोचनाको जान बूझकर अनावश्यक समझते हुए शामिल नहीं किया गया, जो कि व्याकरणादि सम्बन्धी बहुत कुछ त्रुटियों तथा दोषों से परिपूर्ण है और जिसके लिये प्रकाशकको ही, उसके कुछ अशुद्ध प्रयोगोंको देखकर, यहां तक लिखनापड़ा कि वह "प्रचलित संस्कृत व्याकरण तथा कोषके अनुसार नहीं है"। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [११०] विशेष परिचय और करादेना चाहता हूं, जिससे पाठकोंको अनुवादकी असलियत, निःसारता और अनुवादककी प्रकृति, प्रवृत्ति एवं चित्तवृत्तिके समझनेमें विशेष मदद मिले और वे उन सबका यथेष्ट अनुभव करसकें। अनुवादस्थितिका सामान्य परिचय इस ग्रंथके सारे अनुवादमें अनुवादक महाशय को उत्तर दायित्वशून्य प्रवृत्ति (निरंकुशता ) के साथ साथ प्रायः यह मनोवृत्ति काम करती हुई दिखलाई देतोहै कि-अपने मन्तव्योंको पुष्ट करनेवालीभट्टारकीय शासनकी बातोका प्रचार किया जाय; भट्टारकीय मार्गकी पुनः प्रतिष्ठाकी जाय; शास्त्रको ओट में अपने युक्तिशून्य विचारोंको चलाया जाय; लोग परीक्षाप्रधानो न रहें, न धने, किन्तु अन्धश्रद्धालु बनें; भट्टारक मुनियों, नग्न भट्टारकों और उनके गणधरों एवं पृष्ठपोषकों को किसी भी प्रवृत्तिके विरुद्ध कोई अंगुली न उठावे-आलोचना न करें; सब लोग उनकी भरपेट पूजा-उपासना, सेवा सुश्रूषा किया करें अथवा सब प्रकारकी उनको आवश्यकताओं को पूरा करते हुए उनके पूर्ण भक्त बनें; उनकी आशामें चले; उनके साहित्यको, ग्रंथोंको. क्रियाकाण्डको पूरा मान देघे, अपना और उनके इशारों पर नाचा करें । और इस तरह सर्वत्र उन्होंकी एक सत्ता कायम हो जाय ! इसीलिये उन्होंने अपने तथा अपने गुरुओंके मार्गकण्टको, सुधारको, तेरहपन्थियों एवं परोक्षाप्रधानियों पर जगह जगह बात बिनबात व्यर्थक भाक्रमण किये हैं उन्हें बिना हो किसो हेतुके मिथ्यादृष्टि, अश्रद्धानो, ढोंगी, आगमादि-लोपक एवं अधार्मिक आदि बतलाया है। और मुनिभट्टारकों आदि की आलोचनाओं, उनकी असत्प्रवृत्तियोंको निन्दाओं तथा उनके कुत्सित साहित्यको अथवा प्रथमात्रकी परीक्षाओं-समीक्षाओं Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१९१] को यों ही धुरा बतला दिया है !! साथ ही विधवा-विवाहकी, विजातीय विवाहकी, जातिपाँतिलोपकी, भङ्गी चमारोंकी, समुद्रयात्राको और शूद्रोंके व्रत न पाल सकने आदिको ऐसी हो कुछ बातें उठाकर अथवा साथ में जोड़कर, जिनका मूल ग्रंथ में कहीं नाम-निशान तक भी नहीं है, जनताके ऊपर अपने विचारोंको लादा गया है तथा अपने मार्गकण्टकों एवं सुधारकों आदिके विरुद्ध उसे भड़काकर अपना रास्ता साफ करने, अपने दोषों पर पर्दा डालने और अपना रंग जमानेका दूषित यत्न किया गया है। और इस सबके लिये अथवा यो कहिये कि अपनी तथा प्रन्थको बातोंको चलाने और अपने दोषोंको छिपाते हुए, अपना सिक्का जमानेके लिये, अनुवादकको कितनी ही चालाको मायाचारी एवं कपटकलासे काम लेना पड़ा है और प्रायः उस चोरको नीतिका भी अनुसरण करना पड़ा है जो भागता हुआ यह कहता जाता है कि 'चोर ! चोर !! पकड़ो! पकड़ो !! वह जाता है ! इधरको भागा ! बड़ा अनर्थ होगया !! इत्यादि' और इस कहने में उसका एक मात्र आशय अपनी तथा अपने मार्ग की रक्षा और दूसरों को धोखेमें डालना हो होता है !! सबसे पहले अनुवादकने प्रन्थकार पं० नेमिचन्द्रको आचार्यके आसन पर बिठलाया है, जिससे यह प्रन्थ आचार्यप्रणीत एवं आर्षवाक्यके रूपमें समझ लिया जाय ! जैसाकि ग्रंथ के पृष्ठ १८१ पर दिये हुए “आचार्य महाराज कहते हैं इस निराधार वाक्यसे तथा पृष्ठ ४०० पर "वंद्या नेमीन्दुनाना" के अर्थ रूपमें दिये हुए निम्न वाक्यखण्ड से प्रकट है:"नेमिचन्द्र (प्रंथकर्ताका नाम) आचार्य से बंदनीक" परन्तु ग्रंथकार नेमिचन्द्र कोई आचार्य नहीं था, बल्कि एक साधारण तथा धूर्त पंडित था । पं० शिवजीराम नामके Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [११२] एक गृहस्थका शिष्यथा और उसने ग्रंथको प्रशस्तिमें खुद अपनी गुरुपरम्पराका उल्लेख किया है, जिसका परिचय शुरू में (१०१४ पर) कराया जा चुका है। __इसके बाद अनुवादकको यह चिन्ता पैदा हुई कि ग्रंथकारको आचार्य तो बना दिया परन्तु ग्रंथम दिया हुआ ग्रंथका निर्माण समय संवत् १९०९ यदि प्रकट किया गया तो यह सारा खेल बिगड़ जायगा, ग्रंथ बहुत ही आधुनिक हो जायगा और तब ग्रंथकारके आचार्यपदका कुछभो महत्व अथवा मूल्य नहीं रहेगा, और इसलिये उसने इतनी चालाकी एवं माया. चारोसे काम लिया कि पृष्ठ ४११ पर दिये हुए उस समयसूचक श्लोक नं० ३४३ का अर्थ ही नहीं दिया, जिसे अर्थसहित शुरूमें पृ० ११ पर प्रकट किया जा चुका है-उस स्थान पर यह ज़ाहिर तक नहीं होने दिया कि हम उसका अर्थ छोड़ रहे हैं !! अथवा उसका अर्थ नहीं हो सका !!! इसके सिवाय, ग्रंथकी जो बाते अनुवादकको इष्ट मालूम नहीं दी उनका या तो उसने अर्थ ही नहीं दिया और या अपने मनोऽनुकूल अन्यथा एवं विपरीत अर्थ कर दिया है ! और जो बातें मूलग्रन्थमें नहीं थों और जिन्हें घह मूलके नाम पर प्रकट करना अथवा चलाना चाहता था उन्हे उसने प्रायः चुपकेसे मूलघाक्योंके अर्थके साथमें इस तरहसे शामिल कर दिया है जिससे हिन्दी पाठकों द्वारा वे भी मुलग्रंथकी ही बातें समझ ली जायं और उन्हें पढ़ते समय यही मालूम होता रहे कि यह सब प्रन्यकार प्राचार्य महाराज ही कह रहे हैं !! इस तरह अनुवादकको निरंकुशता और उसको उक्त मनोवृत्तिके कारण इस प्रन्यके अनुषादमें बहुत कुछ अर्थका अनर्थ हुआ है ! और यह अनुवाद उच्छृङ्खलता, असावधानी एवं बेडंगेपन के साथ साथ अर्थको हीनता-न्यूनता, अर्थको अधिकता Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [११३] अतिरिक्तता (मूलवाहता) और अर्थक अन्यथापन (वैपरीत्य) को एक बड़ीही विचित्र मूर्ति बन गया है !! और इसलिये इसे बहुत ही विकृत तथा सदोष अनुवाद कहना चाहिये। अस्तु। विशेष परिचय अथवा स्पष्टीकरण अब मैं कुछ नमनों अथवा उदाहरणाके द्वारा अनुवादको इस स्थितिको स्पष्ट कर देना चाहता हूं, जिससे पाठकोंको इस विषयमें कुछभी सन्देह न रहे: (१) पृष्ठ ९८वे पर एक श्लोक निम्न प्रकारसे अर्थसहित दिया है: केवलाभिधयुक्तानां यतीनां सर्वदेवताः । पलायिताश्च तस्माद्भ तत्प्रभावाच श्वानवत् ॥४२८॥ "अर्थ-श्वेताम्बर यतियोंके आराधन किये हुए समस्त देवतागण सरस्वतीके प्रभावसे पलायमान हो गये जिससे उनका समस्त अभिमान मिट्टी में मिल गया ॥४२८॥" इस अनुवादमें 'श्वानवत्' पदका कोई अर्थ नहीं दिया गया, जोकि पलायमानसे पहले 'कुत्तोंकी तरह ऐसे रूपमें दिया जाना चाहिये था। जान पड़ता है अनुवादकजी को देवताओंके लिये प्रन्थकारकी यह कुत्तोंकी उपमा पसंद नहीं आई और इसलिये उन्होंने इस पदका अर्थ ही छोड़ दिया है ! साथ ही, 'जिससे उनका समस्त अभिमान मिट्टोमें मिल गया' यह वाक्य अपनी तरफसे जोड़ दिया है, जिसे अनुवादककी चित्तवृत्तिका एक रूप कहना चाहिये ! मूलमें इस अर्थका घोतक कोई भी शब्द नहीं है ! इसो तरहका एक मूलबाह्यवाक्य पृष्ठ ९५ पर श्लोक नं०४१२ के अर्थ में भी जोड़ा गया है, जो इस प्रकार है: Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [११४] "और श्वेताम्बर यतियोंके वस्त्र आकाश में उड़ा देनेसे (मंत्रद्वारा भगवान् कुन्दकुन्द स्वामोके उड़ा देनेसे) उनको बड़ा हो नीचा देखना पड़ा।" इसके सिवाय, 'केवलाभिधयुक्तानां ' पदका जो अर्थ 'श्वेताम्बर' किया गया है वह मूलकी ('नाममात्रके' की) स्पिरिटसे बहुत कुछ हीन है-प्रन्थकारने जिस विशेषणके साथ उन यतियोंका उल्लेख किया है उसका ठोक द्योतन नहीं करता! और इसलिये उक्त अर्थ त्रिदोषयुक्त है। (२) पृष्ट २१६ परके प्रथम सात श्लोकोंमें से जिस प्रकार अनुवादक महाशयने 'कर्मदहनवतस्य फलं शृणु समा. धिना' इत्यादि श्लोक नं० १७८ का अर्थ बिलकुल ही नहीं दिया है, और जिसका परिचय 'कुछ विलक्षण और विरुद्ध बाते' नामक प्रकरणमें नं०१ पर दिया जा चुका है, उसो प्रकार निम्न श्लोकका भो अर्थ नहीं दिया है: प्राप्स्यति कां गतिं सैव तत्सर्व कथयाम्यहं । द्वादशानां गणानां तु दृढश्रद्धाय केवलम् ॥१८०॥ यह श्लोक इतना सरल है कि इसका अर्थ देने में कुछ भी दिक्कत नहीं हो सकती थी; परन्तु जान पड़ता है अनु. वादकजीके सामने इसके 'द्वादशानां गणानां' इन पदोंने कुछ उलझन पैदा करदी है; क्योंकि उनक परममान्य पं० चम्पालाल जोने चर्चासागरकी १६ वी चर्चा में 'गण' का अर्थ 'गणधर' सूचित किया है और उनके भाई पं० लालारामजीने उसको टिप्पणो 'गणान्प्रति का अर्थ 'गणधरोंके प्रति' करके उसको पुष्ट किया है, इसलिये यदि वहाँ 'गणानां' का अर्थ वही 'गणधरोंका' किया जाता और कहा जाता कि 'वह (कर्मदहनव्रतका अनुष्ठान करने वाला) किस गतिको प्राप्त होगा उस Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२१५] सबका मैं बारह गणधरों को केवल हदश्रद्धाके लिये कथन करता हूँ' तो वह जैनशास्त्रोंके विरुद्ध पडता; क्योंकि जैनशास्त्रोंमें भगवान् महावोरके ग्यारह गणधर माने गये हैं-बारह नहीं। और यदि 'समूहोंका' अर्थ किया जाता और उसका आशय द्वादशसभास्थित जीवोंका लिया जाता तो वह उनके भाई तथा मान्य पं० चम्पालालजोके ही विरुद्ध नहीं बल्कि खुद उनके भी विरुद्ध पड़ता; क्योंकि उन्होंने भी इस प्रथम पृष्ठ ३७८ पर 'गणाः' का अर्थ 'गणधरदेव' किया है ! इसी उलझनके कारण शायद आपने इस श्लोकका अर्थ छोड़ दिया है ! यह कितनी निरंकुशता और मायाचारी है !! (३) पृष्ट २५१ पर प्रन्थकारने सिद्धोंका वर्णन करते हुए उनका एक विशेषण 'पंचवर्णविराजिता दिया है, अनुवादकने इसका भी कोई अर्थ नहीं दिया ! इसी तरह 'निरागमाः' आदि और भी कई विशेषणपदों का अर्थ छोडदिया है ! इस पृष्ठपरके श्लोकोका अर्थ कितना वेढंगा और बेसिलसिले किया गया है वह सब देखने से ही सम्बन्ध रखता है । इस प्रकारकी निरंकुशता न्यूनाधिकरूपमें प्रायः सर्वत्र पाई जाती है। (४) पृष्ठ ३२ पर एक श्लोक निम्नप्रकार से दिया है:धनान्धास्ते गृहे स्वस्य दासीदासान्कुलोज्झितान् । रक्षयिष्यक्ति पानार्थ न्यादार्थ च खलाशयाः ॥१२३॥ इसका सीधा सादा अर्थ इतना ही होता है कि वे धनसे अन्धे हुए दुष्टाशय लोग अपने घर पर भोजनपानके लिये अकु. लीन दासीदासोको रक्खेंगे । परन्तु अनुवादकजीने जो अर्थ दिया है वह इस प्रकार है: "अर्थ:-हे राजन्, पंचमकालमें धनिक लोग अपने धन के मदमें अन्धे होकर विचाररहित होजायंगे, जिससे वे अपने Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ११६ ] गृहमें नीच और अकुलीन नौकर चाकरोंको रक्खेंगे और उनके हाथसे भोजनपान करेंगे । जिस समय कुसंगति या कुशिक्षासे धनवान लोगोंकी बुद्धि भ्रष्ट होजाती है उस समय उनका विचार भी गंदा होजाता है । उन्हें हिताहितका विवेक नहीं रहता जिससे धर्म और सदाचारको पवित्र मर्यादा का विचार न कर अपने घर में नींव मनुष्योंको ( दासदासी) रखकर उनके हाथका भोजन करने लगजाते हैं। नीच मनुष्योंके हाथका भोजनपान करना धर्मशास्त्र की पवित्र आशासे विरुद्ध है और सदाचारका लोपकरनेवाला है । जो लोग नीच मनुष्यों के हाथका भोजनपान करते हैं वे जैन नहीं हैं। उनके धर्मकी श्रद्धा नहीं है । अतपत्र वे नाममात्रके ही जैन हैं ॥ १२३ ॥ " पाठकजन ! देखा, कितना मूलबाह्य यह अर्थ किया गया है ! इसमें 'हे राजन्, पंचमकालमें' ये शब्द तथा 'जिस समय' से लेकर 'जैन हैं' तकका सारा कथन अपनी तरफ़ से बढ़ाया गया है और उसे श्लोक नं० १२३ का अर्थ सूचित किया गया है !! इतने परसे भी अनुवादककी तृप्ति नहीं हुई तब इसी लोक में नीचेके अर्थकी औरभी वृद्धि की गई है, और इसलिये १२३ नम्बर निम्न अर्थके बाद दिया जाना चाहिये था - ऊपर ग़लती से देदिया गया है । "जो लोग अपवित्र साधनोंके साथ समुद्रयात्रा कर नीच लोगोंके हाथका अपवित्र और अभक्ष्य भोजन कर अपनेको सम्यग्दृष्टि बतलाते हैं वे श्री जिनेन्द्रदेवके आगमके श्रद्धानी नहीं हैं। तथा जो लोग ऐसे नोच पुरुषोंके हाथका भोजन कर अपनेको पंचअणुव्रतधारी बतलाते हैं वे बनावटी जैनी हैं ।" इस अंशकी समुद्रयात्रा आदि बातोंका मूलमें कहीं भी कुछ पता नहीं है । यह अंश बैरिस्टर चम्पतरायजी जैसों को Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ११७] लक्ष्य करके लिखा गया है, जिन्होंने पंचअणुव्रत धारण किये थे और जो समुद्रयात्रा कर विलायत जाते हैं !! मूल के नामपर कितना बेहूदा और नोच यह आक्रमण है !!! इसके बाद भोजनपानादिसम्बन्धी कार्योंके लिये शूद्रो को घरपर रखनेवाले श्रावकोंको श्रावक न बताकर शुद्रसमान बतानेवाले श्लोक नं० १२४ * का अर्थ थोड़ी सी गड़बड़को लिए हुए देकर अगले पूरे एक पेजपर उसका 'भावार्थ' दिया है और उसमें बहुतसी गड़बड़ मचाई गई है-जैनसिद्धान्तके विरुद्ध मुनियोंको भोजनपानके समय सातवां गुणस्थान बतलाया है ! शूद्रों के हाथकाभोजन करनेवालोंको 'जैनधर्मसे रहित' करारदिया है, जब कि खुद शूद्र लोग व्रतों का पालन ओर क्षुल्लकादि पदको धारणकर उत्तम धर्मात्मा बनते हैं !! और मुसलमान भंगी चमार तथा न्लेच्छादिको जैनो बनाकर उनके साथ भोजन तथा विवाह करने वालोंको जैनमतको आशासे पराङ्मुख बतलाया है और इस विधानके द्वारा उन जैन चक्रवर्तीराजाओंको, जिनमें तीर्थङ्कर भी शामिल हैं, तथा वसुदेवजी और सम्राट चन्द्रगुप्त जैसोंको जैनधर्मसे बहिर्भूत ठहराया है जिन्होंने म्लेच्छ कन्याओंसे विवाह किये थे!!! (५) पृष्ठ ३७ पर दिया हुआ एक श्लोक इस प्रकार है: शूद्रश्रावकभेदो हि दृश्यते व्रतपालनात् । शूद्रोऽपि श्रावको ज्ञेयो निर्वतः सोऽपि तत्समः॥१३६॥ * यह श्लोक पिछले लेखमें 'शव जलादिके त्यागका अजीब विधान' इस उपशीर्षकके नीचे दिया गया है और वहीं पर इसके मूलविषयका विचार किया गया है। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [११८] इसका खुला अर्थ यह है कि 'शूद्र और श्रावक का भेद व्रतपालन से स्पष्ट होता है. व्रतोंका पालन करता हुआ शूद्रभी श्रावक है और व्रतरहित श्रावक को भो शू द्रसमान समझना चाहिये। इस सीधेसाधे और स्पष्ट अर्थको भो अपने मायाजालके भीतर छिपाकर लोगोंको आंखोंमें धूल डालने का अनुवादक महाशयने कैसा जघन्य प्रयत्न किया है वह उनके निम्न अनुवाद (अर्थ) परसे सहज ही में समझा जासकता है। "अर्थ-शूद्र और श्रावक में यदि भेद है तो इतना हो है कि शूद्र के सोलह संस्कार के अभावसे व्रतोंका पालन-भोजन पान आदि धार्मिक क्रियाओं का पालन नहीं होता है और श्रावकों में होता है। जो श्रावक अपने भोजनपान आदि धार्मिक प्रतक्रियाओं को भूलजावे-नहीं करे--तो वह शूद्रके समान हो है ॥ १३६ ॥" इसमें शूद्रके सोलहसंस्कारके अभाव आदि को बातको अनुवादकजीने बिलकुल अपनी तरफ़से जोड़ा है और 'व्रतपालनात शूद्रोऽपि श्रावकोशेयो' इन शब्दोंके आशयको आपबिलकुल हो उड़ा गये हैं !! अपने इस अर्थके द्वारा आप यह प्रतिपादन करना चाहते हैं कि शूद्र व्रती नहीं हो सकता! परन्तु यह जैनशास्त्रोंकी आशा और शिक्षाके बिलकुल विरुद्ध है-जैनशास्त्र शूद्रोंके श्रावकीय व्रतपालनके उदाहरणों से भरे पड़े है और उनमें शूद्रोंके लिये क्षुल्लकादि रूपसे उत्कृष्ट श्रावक होनेका ही विधान नहीं है बल्कि सोमदेवसूरिके निम्न वाक्यानुसार मुनिदीक्षा तकका विधान पाया जाता है: दीक्षायोग्यास्त्रयो वर्णाश्चतुर्थश्च विधोचितः । मनोवाकायधर्माय मताः सर्वेऽपिजन्तवः॥-यशास्तलक ॥ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [११९ ] इसके सिवाय सागारधर्मामृतमें भी 'शूद्रोऽप्युपस्कराचारवपुः शूद्ध्याऽस्तु तादृश:' इत्यादि वाक्य के द्वारा शूद्रोंको ब्राह्मणादिकी तरह धार्मिक क्रियाओं का पूरा अधिकार दिया गया है और उक्त वाक्यकी निम्न प्रस्तावनामै उनके आहारादिकी शुद्धिका भी स्पष्ट विधान किया गया है "अथ शूद्रस्याप्याहारशुद्धिमतो ब्राह्मणादिवद धर्मक्रियाकारित्वं यथोचितमनुमन्यमानः प्राह - " फिर ब्रह्मचारीजी अथवा क्षुल्लकजी महाराजका यह कहना कैसे ठीक होसकता है कि "शूद्रके व्रतोंका पालन-भोजनपान आदि धार्मिक क्रियाओंका पालन नहीं होता है" ? उन्होंने तो स्वयं पृष्ठ ३८० पर लिखा है कि- “ नगरके समस्त नरनगणने इस कर्मदनव्रतको यथोक्त विधिले धारण किया ।" नगरके समस्त नरनारोगणमें शूद्र भी आगये । जब शूद्रोंने यथोक्तविधि से कर्मदहनयतका पालन किया तब फिर व्रतोंके पालन और भोजनशुद्धिकी वह बात ही कौनसी रह जाती है जिसका अनुष्ठान शूद्र न कर सकता हो ! सत शूद्र तो मुनियों को आहार तक दे सकता है और खुद मुनि भी हो सकता है। * खुद प्रन्थकारने तो उक्त श्लोकके अनन्तर हो यहां तक लिखा है कि जैनधर्मको पालन करता हुआ चपच ( चाण्डाल) भी श्रावकोत्तम (लक आदि) माना गया है, फुत्ता भी व्रतके योगसे देवता हो जाता है तथा एक कीड़ा भी लेशमात्र व्रतके प्रसादसे उत्तम गतिको प्राप्त होता है, और एक दूसरे स्थान * प्रवचनसारकी जयसेनाचार्यकृत टीकामें सत्शूद्रके जिनदीक्षा लेनेका विधान इस तरहसे किया गया है- "एवं गुणविशिष्टपुरुषो जिनदीक्षा ग्रहणे योग्यो भवति । यथायोग्यं सच्छूद्राद्यपि । " Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२०] पर मातादिकके कर्मदहन व्रतफे अनुष्टानसे सुख पानेका उल्लेख किया है* तब क्या क्षुल्लकजी के न्यायालयमें शूद्रकी पोजीशन श्वपच, मातङ्ग, कुत्ते और कोड़ेसे भी गई बोती है जो ये सब तो व्रतका पालन कर सके परन्तु शूद्र न कर सकें ? शूद्रोंके प्रति घृणा और द्वेषकी भी हद हो गई !! खेद है कि प्रन्थकारने तो शूद्रोंके साथ इतना ही अन्याय किया था कि उनके व्रती एवं शुद्धाचरणो होने पर भी उनके हाथके भोजन. पानको निषिद्ध ठहराया था परन्तु अनुवादकजीने चार कदम आगे बढ़कर मिथ्या और विपरीत अनुवादके द्वारा उनके व्रतपालन अथवा धार्मिक क्रियापालनके अधिकारको हो हडपना चाहा है !! इस मायाचारी और कपटकलाका भी कुछ ठिकाना है !!! ऐसे ही प्रपञ्चमय अनुवादोंके कारण मैंने इस प्रन्थको 'एक तो करेला और दूसरे नीम चढ़ा' को कहावतको चरितार्थ करने वाला बतलाया है। अनुवादकजीकी नसोंमें जातिभेद और जातिमदका कुछ ऐसा विषम विष समाया है कि एक स्थान पर तो ( पृष्ठ ६ के फुटनोटमें ) वे यहाँ तक लिख गये हैं कि-"जाति, कुल अनादिनिधन हैं, और उनका सम्बन्ध नीच ऊंच गोत्रसे है। ऐसा नहीं है कि जिसका रोज़गार (धन्धा) ऊंचा वह ऊंच और जिसका धन्धा नीचा वह नीच हो।" और इसके द्वारा वे अनजानमें अथवा मर्छित अवस्थामें यह सुझा गये हैं कि एक वैश्यादि ऊंच जातिका जैनी यदि भङ्गी, चमार, खटीक, चाण्डाल अथवा कसाईका भी धन्धा करने लगे तो भो वह ऊच ही रहेगा-नीच नहीं होने पायेगा। और एक सतशूद्र * इन कथनोंके सूचक वाक्य 'कर्मसिद्धान्तकी नई ईजाद' नामक उपशीर्षकके नीचे उद्धृत किये जा चुके हैं। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२१] जैनी बारह व्रतोंका उत्तम रीतिसे पालन करता हुआ तथा क्षुल्लकके पद पर विराजमान होता हुआ भो 'अपने शरीरको स्थितिपयंत' नोच ही रहेगा---ऊंच नहीं हो सकेगा !! धन्य है आपके इस ऊंच-नीचके सिद्धान्तको !!! जैनाचार्योने तो "चातुर्वण्र्य तथान्यच्च चाण्डालादिविशेषणं । सर्वमाचारभेदेन प्रसिद्धं भुवने गतम् ॥ "अनार्यमाचरन् किचिज्जायते नीचगोचरः। -पनचरिते, रविषेणः । "प्राचारमात्रभेदेन जातीनां भदकल्पनम् । न जातिब्राह्मणीयास्ति नियता कापि तात्विकी ॥ "गुणः सम्पद्यते जातिगुणध्वंसर्विपद्यते । -धर्मपरीक्षायां, अमितगतिः । "वृत्तिभेदा हि तभेदाच्चातुर्विध्यमिहाश्नुते।। -आदिपुराणे, जिनसेनः। इत्यादि वाक्योंके द्वारा आचारभेद,गुणभेद अथवा वृत्ति (धंधा) भेदके कारण जातिभेदको कल्पित माना है और नीच उसे बतलाया है जिसका आचरण अनार्य हो। और स्वामी समन्तभद्रने तो "यो लोके त्वा नतः सोऽतिहीनोऽप्यति गुरुर्यतः" इत्यादि वाक्यके द्वारा यहां तक सूचित और घोषित किया है कि 'नीचसे नीच कहा जाने वाला मनुष्य भी जैनधर्मको धारण करके इसी लोकमें अति उच्च बन सकता है*'। तब अनुवादकजी जाति और कुलको अनादिनिधनताके स्वप्न देख * विशेष जाननेके लिये देखो, 'अनेकान्त' किरण १ की, २ री पृष्ठ ११,१२ तथा ११५ आदि Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १२२ ] रहे हैं ! और शूद्रमात्रका घोर तिरस्कार कर रहे हैं !! इससे पाठक समझ सकते हैं कि वे जैनाचार्यों के वाक्योंको अवहेलना करते हुए जैनधर्मके दायरे से कितने अधिक बाहर जा रहे हैं !!! (६) पृष्ठ ३७७ पर एक श्लोक निम्न प्रकारले दिया है, जिसके मूल अर्थका विचार 'कर्म सिद्धान्तको नई ईजाद' नामक उपशीर्षक के नीचे किया जा चुका है: म्लेच्छोत्पन्ना नरा नार्यः मृत्वाहि मगधेश्वर ! भवन्ति व्रतहीना हमे वामाश्च मानवाः ॥ १७५ ॥ इसमें साफ़ तौरपर यह कहा गया है कि 'हे मगधेश्वर ! म्लेच्छों से उत्पन्न हुए स्त्री-पुरुष मरकर निश्चयसे व्रतहीन मनुष्य स्त्री-पुरुष होते हैं'। इस सीधे सादे स्पष्ट अर्थके विरुद्ध अनुवादकजीने जो अद्भुत लीला रची है और जो प्रपंचमय अर्थ किया है, अब उसे भी देखिये ! वह इस प्रकार है ''अर्थ - जिनके यहां पुनर्विवाहादि मलिन आचरण है, जिनको उत्तम व्रत धारण करनेको योग्यता हो नहीं प्राप्त होतो है उनको म्लेच्छ व शुद्र कहते हैं। शूद्रोको शीलवत किसी तरह भी पालन नहीं हो सकता है। क्योंकि उनके यहां उनकी जाति में पुनर्विवाह होता है । पुनर्विवाह व्यभिचार है । व्यभि• चार करने वालोंके शीलवत हो हो नहीं सकता है। शोलवतके अभाव से अन्य व्रत का पालन भी परिपूर्ण नहीं होता है । अतएव ऐसे जोव मरकर व्रतविहीन होते हैं । " पाठकजन ! देखा, कितना मूलबाह्य यह सब अर्थ है ! और कैसी निरंकुशता से काम लिया गया है !! इस सारे अर्थ में "मरकर व्रतविदोन होते हैं" इन अन्तिम शब्दोंके सिवाय और Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२३ ] कोई भी बात मूलके शब्दोंस सम्बन्ध नहीं रखतो !!! और इस लिये इसे अनुवादकजोंके विचित्र अथवा विकत मस्तिष्ककी हो एक उपज कहना चाहिये ! उन्हें इतनो भी समझ नहीं पड़ी कि लोग मेरे इस साक्षात् झूठ पर कितना हंसगे और मेरे इस ब्रह्मचारी वेष तथा सत्यवतका कितना मखौल उड़ाएंगे! क्या मस्तिष्कविकारके कारण उन्होंने यह समझ लिया था कि मेरे इस अनुवादको कोई संस्कृत जानने वाला पढ़ेगा ही नहीं ? परन्तु संस्कृत जानने वालको छोड़िये, साधारण हिन्दी जानने वाला भी यदि मूलके साथ इस अर्थको पढ़े तो वह इतना तो समझ सकता है कि मूलमें पुनर्विवाह, शूद्र, शोलवत और व्यभिचार जैसी बातोंका कोई उल्लेख नहीं हैउनका नाम, निशान और पता तक भी नहीं है । धन्य है आप के इस अद्भुत साहसको! 'चे मर्दाना अस्त दुज़दे कि बकन चिराग़ दारद * !!' ___इस अर्थ तथा पिछले नम्बरमें दिये हुए अर्थ परसे शूद्रों के प्रति अनुवादकजीकी चित्तवृत्तिका अच्छा खासा परिचय मिल जाता है और यह मालूम हो जाता है कि वे किस तरह को खींचातानी करके और कपटजाल रचकर अपने विचारोंको जनताके ऊपर लादना चाहते हैं । परन्तु जो लोग जैन शास्त्रों का थोड़ासा भो बोध रखते हैं वे ग्लेच्छ और शूद्रके भेदको खूब समझते हैं, शूद्रको आर्य जानते हैं-म्लेच्छोत्पन्न नहींऔर दोनोंको हो श्रावककं बारह व्रतोंके पालनका अधिकारी मानते हैं । उनके गले यह बात नहीं उतर सकतो कि शूद्र बारह व्रतोंका पालन करता हुआ भो शोलवतका पालन नहीं कर सकता-वह तो उन्हीं व्रतोंमें एक व्रत है । और न यही गले उतर सकती है कि व्यभिचार करने वाला कमी शीलवती * क्या ही मर्दाना चोर है कि हाथमें चिराग़ लिये हुए है !! Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२४] हो ही नहीं सकता। चारुदत्तादि कितने हो महाव्यभिचारियों का तो पोछेसे इतना सुधार हुआ है और वे इतने पूरे ब्रह्मचारी एवं धर्मात्मा बने हैं कि बड़े बड़े आचार्यों को भी उनकी प्रशंसा में अपनी लेखनोको मुक्त करना पड़ा है। फिरभी यहां अनुवादकजीकी आँख खोलने के लिये दा ऐसे स्पष्ट प्रमाण उपस्थित किये जाते हैं जिनमें पूजकके दो भेदोमं से आधभेद नित्यपूजक का स्वरूप बतलाते हुए और उसमें शूद्रका भी समावेश करने हुए शूद्रको भी 'शोलवान' तथा 'शोलतान्वित होना लिखा है-बाको दृढ़पती, दृढ़ाचारी और शोचसमन्वित होनको बात अलग रही: ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः शूद्रोवाऽऽधः सुशीलवान् । दृव्रतो दृढाचारः सत्यशोचसमन्धितः ॥१७॥ -पूजासार । ब्राह्मणादिचतुर्वण्य प्रायः शीलवतान्वितः । सत्यशौचदृढाचारो हिंसाधनतदूरगः ॥६-१४३॥ -धर्मसंग्रहश्रावकाचार | यहां पर मुझ अनुवादकजो के प्रतिपाद्य विषयकी कोई विशेष आलोचना करना इष्ट नहीं है-उनकी निरंकुशता और उसके द्वारा घटित अनर्थका ही कुछ दिग्दर्शन कराना है। इसलिये इस विषयमें अधिक कुछ लिखना नहीं चाहता। हाँ, इतना ज़रूर कहना चाहता हूं कि अनुवादकजोने यह लिख कर कि जिनकी जातिमें पुनर्विवाह होता है उनके शोलवतका किसी तरह भो पालन नहीं हो सकता, एक बड़ा ही अनर्थ घटित किया है, और वह यह कि इससे उन्होंने अपने गुरु आचार्य शांतिसागर जोक ब्रह्मचर्यको भी सशंकित बना दिया है। क्योंकि उनको जातिमें विधवाविवाह होता है । तब शिष्य Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १२५ ] को दृष्टिमें आचार्य महाराज शीलवती भी नहीं ठहर सकते !! पूर्णब्रह्मचारी होने को तो बात ही दूर है !!! वाह ! शिष्यको यह कैसी विचित्र लोला है जिस पर आचार्य महाराज मुग्ध हैं !!! (७) तेरहपंथियों से झड़पके समय भगवानके मुखले एक वाक्य निम्न प्रकार कहलाया गया है, जिसमें लिखा है कि- 'हे मगधेश्वर ! प्रन्थोंका लोप करनेके पाप से वे सब श्रावक निश्चय हो नरकमे जायेंगे : -- ग्रन्थलोपजपापेन ते च श्राद्धानिकाः खलु । नरकावनौ च यास्यन्ति सर्वे हि मगधेश्वर ॥ ६८३॥ इस वाक्यके द्वारा शुद्धाम्नायके संरक्षकों एवं तेरहपन्थ के प्रसिद्ध विद्वान पं० टोडरमलजी आदिके विरुद्ध ( जिन्होंने भट्टारकीय साहित्य के कुछ दूषित प्रन्थोंको अप्रमाण ठहराया था ) नरकका फ़तवा निकाल कर अथवा उन प्रन्थोंको न मानने वाले सभी तरहपन्थियोंके नाम नरकका नर्मान जारी करके ग्रन्थकारने अपने संतप्त हृदयका बुख़ार निकाला था । अन्यथा, किसी प्रथको सदोष जानकर उसके मानने से इन्कार करनेमें नरकका क्या सम्बन्ध १ नरकायुकं आस्रवका कारण तो बहुआरम्भ और बहुपरिग्रहको बतलाया गया है । परन्तु अनुवादकजोको उन्हें केवल नरक भेजना कालो मालूम नहीं दिया और इसलिये उन्होंने अर्थ देते हुए उसके साथमें उनके निगोद जानेको बात और जोड़ दो है ! और फिर इतने परसे भी तृप्त न होकर इसपर जो मग़ज़ी बढ़ाई है - इसके 'प्रन्थलोपजपापेन' पद पर जो नोट रूप गोट लगाई है - वह इस प्रकार है: "प्रन्थोंको असत्य ठहराना मानो है । इसके समान संसार में अन्य पाप ग्रंथोंका लोप करना नहीं है । आगमको Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १२६ ] सत्यता व प्रामाणिकता सर्वज्ञ प्रभुको सत्यता पर निर्भर है । सर्वज्ञ प्रभु वीतराग, त्रिकालमें उनकी प्रामाणिकता स्वतः सिद्ध है। जो मनुष्य सर्वज्ञके वचनोंमें अपनो दुष्ट बुद्धिकी कल्पना से असत्यता प्रकट कर प्रामाणिकता नष्ट करे तो वह आगम का या ग्रंथका लोपो है। उसके न तो आगमकी श्रद्धा है और न सर्वश प्रभुकी । ऐसी अवस्थानें वह अपनी इंद्रियजनित बुद्धिको हो कुत्सित तर्क और अनुमानजनित विचारसे स्थिर रखकर शास्त्रों की मिथ्या आलोचना कर पापका भागी बनता है। कितने दो दोंगो - जिनधर्मको श्रद्धा रहित जैन सुधारक - मिथ्यात्व के उदयसे शास्त्र और गुरुऑकी मिथ्या समालोचना करते हैं, सत्य शास्त्रों में अवर्णवाद लगाकर सर्वज्ञ प्रभुके आगमको असत्य ठहराना चाहते हैं । उनको संस्कृतप्राकृतका ज्ञान नहीं है, आगमका श्रद्धान नहीं है । अपने आप भावक बन कर ब्रह्मदत्त के समान प्रत्यक्ष में पतित होते हैं ।" पाठकजन ! देखा, मंथसामान्य अथवा ग्रन्थ मात्रको आगमके साथ और सर्वश के साथ जोड़कर अनुवादक महाशय ने यह कैसा गोलमाल करना चाहा है, कैसा मायाजाल रचा है और उसमें भोले भाइयोंको फंसाकर उन्हें अंधश्रद्धालु बनाने का कैसा जघन्य यत्न किया है ! क्या त्रिवर्णाचारों जैसे ग्रंथ, भद्रबाहु संहिता जैसे ग्रंथ, उमास्वामि श्रावकाचार जैसे ग्रंथ, चर्चासागर जैसे ग्रंथ और सूर्यप्रकाश जैसे ग्रंथ आगम ग्रंथ हैं ? सर्वश भगवान्के कहे हुए हैं? यदि नहीं, तो फिर ऐसे ग्रंथोंकी आलोचना से और उनके अप्रामाणिक ठहराये जानेसे विचलित होनेकी क्या ज़रूरत है ? क्या ख़ास सर्वज्ञकी मुहर लगे हुए कोई ग्रंथ हैं, जिनकी परीक्षा अथवा आलोचना न होनो चाहिये ? यदि नहीं -- प्रत्युत इसके ऐसे उल्लेख भी मिलते हैं Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२७ ] कि 'भ्रष्टचारित्र पंडितों और वठरसाधुआने (धूर्त मुनियोंने) निर्मल जैनशासनको मलिन कर दिया है' * तो फिर जिज्ञासु सत्पुरुषों के लिये परीक्षाके सिवाय और दूसरा चारा (उपाय) हो क्या हो सकता है ? अथवा क्या ऐसी नकली मुहर भी सर्वशकी मुहर होती है जैसो कि इस सूर्यप्रकाश पर लगाई गई है ? और सर्पशने कहा हो कब है कि मेरे वचनोंको जांच अथवा परोक्षा न की जाय ? सर्पोंका शासन कोई अन्धश्रया का शासन नहीं होता। उसमें तो परोक्षकोंके लिये खुला चैलेञ्ज रहता है कि वे आएं और परीक्षा करें। इसमें उनका और उनके शासनका महत्व है । समन्तभद्र जैसे महान आचायौं ने तो खुद सवज्ञको भी परीक्षा की है, फिर उनके नाम की मुहर लगे प्रन्थोंकी तो बात हो क्या है ? परीक्षा और समालोचनाका मार्ग सनातनसे चला आया है। जिस समय दिगम्बर और श्वेताम्बर संघभेद हुआ था उस समय दिगम्बर महर्षियोंने श्वेताम्बराचार्यों द्वारा संकलित आगम ग्रन्थोंको अप्रामाणिक और अमान्य ठहराया था। इस अप्रामाणिकता और अमान्यता के द्वारा उन्होंने जो आगम ग्रंथोंके लोपका प्रयत्न किया तो क्या इससे वे महर्षिगण नरक निगोदके पात्र होगये ? और उन ग्रंथोंको अमान्य करार देनेवाला सारा दिगम्बरसमाज भी क्या नरकनिगोदमें पड़ेगा? इसपर भी अनुवादक जीने कुछ विचार किया है या योंही अनाप सनाप लिख गये? इसके सिवाय. इसो प्रथमें तेरहपन्योप्रन्थों के विरुद्ध कितनाहो जहर उगला गया है-उनमें जो पञ्चामृत अभिषेक आदिका निषेध किया गया है, उसको असभ्यतापूर्ण कड़ी आलोचना की गई है * पंडितैघ्रष्टचारित्र: वठरैश्चतपोधनः । शासनं जिनचन्द्रस्य निर्मलं मलिनीकृतम् ॥ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १२८] और इसतरह उन ग्रन्थों के लोपका प्रयत्न किया है, तब क्या अनुवादकजी इस प्रन्यलोपज पापके कारण ग्रंथकारको और खुद अपनेको भी नरक निगोद भेजनेके लिए तैयार हैं । यदि नहीं, तो फिर इस व्यर्थफे शब्दजालसे क्या नतीजा है ? __ क्या असत्य-ग्रंथोंको असत्य ठहराने में भी कोई पाप है ? झूठे, जाली, मिथ्यात्वरित एवं धूतों के रचे हुए विषमिश्रित भोजनके समान धर्मप्राणोंका हरण करनेवाले इन त्रिवर्णाचारादि जैसे अहितकारी ग्रंथोंका तो जितना भी शीघ्र लोप हो जाय उतना ही अच्छा है । जैनसाहित्यके कलंकरूप ऐसे ग्रंथों का वास्तविक स्वरूप प्रकट करके उनके लोपमें जो कोई भी मदद करता है वह तो जैनशासनकी, जैनागमकी, जैनाचार्यों को अथवा यो कहिये कि सत्यार्थ आप्त-आगम-गुरुओं की सच्ची सेवा करता है । सत्यके लिए आलोचना और परोक्षा को कोई चिन्ता नहीं होती। जिसके पास शुद्ध और खालिस सुवर्ण है वह इस बातसे कभी नहीं घबराता कि उसके सुवर्णको कोई घिसकर, छेदकर अथवा तपाकर देखता है । प्रत्युत इसके, जिसके पास खोटा माल है अथवा जालो सिक्का है वह सदा उसके विषय में सशंकित रहता है और कभी उसे खुली परीक्षाके लिए देना नहीं चाहता। यही वजह है जो प्राचीन एवं महान् आचार्योंने कमी परोक्षाका विरोध नहीं किया, बे बराबर डंकेकी चोट यही कहते रहे कि खूब अच्छी तरहसे परीक्षा करके धर्मको ग्रहण कये, अन्धश्रद्धालु मत बनो; क्योंकि उन्हें अपने धर्मसिद्धान्तों की असलियत पषं सत्यता पर पूरा विश्वास था और वे समझते थे कि जो बात परीक्षापूर्वक प्रहण की जाती है उसमें दृढ़ता एवं स्थिरता आती है और उसके द्वारा विशेषरूपसे कल्याण सघ सकता है। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२९] परन्तु भ्रष्ट एवं शिथिलाचारी भट्टारकों और उनके पंडे. पोपों अथवा अनुयायियोंने चूंकि अपने लौकिक स्वार्थोकी सिद्धि के लिये ग्रंथों में बहुत कुछ मिलावट की है और अपने जाली सिक्कोंको तीथंकरों तथा प्राचीन ऋषियोंके नामसे चलाना चाहा है, इसलिये “पापा: सर्वत्र शंकिता:" की नीतिके अनु. सार उन्हें बराबर इस बात की चिन्ता और भय रहा है कि कहीं उनका यह कपट-प्रबन्ध किसी पर खुल न जाय, और इसीसे वे अनेक प्रकार के उपदेशों आदि द्वारा ऐसी रोकथाम करते आये हैं, जिससे लोग तुलनात्मक पद्धतिसे अध्ययनकर ग्रंथोंकी परीक्षा प्रवृत्त न हों, उनपर कुछ आपत्ति न करें और जो कुछ उनमें लिख दिया गया है उसे घिना 'चूंचरा' किये अथवा कान हिलाये चुपचाप मानलिया करे! और शायद यही वजह थी जो वे आमतौर पर गृहस्थोंको ग्रंथ पढ़ने के लिये प्रायः नहीं देते थे, उन्हें पढ़नेका अधिकारी नहीं बतलाते थे और खुद ही अपनी इच्छानुसार उन्हें ग्रंथोंकी कुछ बातें सुनाया करते थे-यह सब तेरहपन्थके उदयका ही माहात्म्य है जो सबके लिये प्रन्थोंका मिलना इतना सुलभ होगया है । इस प्रन्थमें भी भट्टारक गुरुओं (जिनात्तपुरुषो) के मुखसे ग्रंथोके सुननेकी प्रेरणाकी गई है, जिसकी सीमाको बढ़ाते हुए अनु. वादकजीने यहाँ तक लिख दिया है कि "प्रन्थों का स्वाध्याय गुरु मुखसे ही श्रवण करना चाहिये !!" और उक्त श्लोक नं० ६८३ से ११ श्लोक आगेही सम्यग्दर्शनका विचित्र लक्षण वाला वह श्लोकभी दिया है जिसमें प्रन्थकारोंने प्रन्थों में जो कुछ लिख दिया है उसीके माननेको सम्यग्दर्शन बतलाया है ! और जिसकी आलोचना 'कुछ विलक्षण और विरुद्ध बाते' नामक प्रकरणमें नं०६ परकी जा चुकी है। खुद अनुवादकजीने जानबूझ कर इस ग्रंथके अनुवादमें Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१३०] बात कुछ अर्थका अनर्थ कियाहै और कितनीही झूठी तथा निम्सार बातें अपनी तरफसे मिलाई है, जैसाकि अब तककी और आगेकी भी आलोचनाओंसे प्रकट है। फिर वे इस बात को कैसे पसन्द कर सकते हैं कि कोई इस प्रस्थको समालोचना करे और उनके दोषोको दिखलाए । इन सब बातोंको लेकर ही बेसमालोचनाके विरोधी बने हुए हैं ! अपने उन वर्तमान गुरुओंकी मानमर्यादाका भी उन्हें खयाल है जिन्हें वे अपनी स्वार्थ-सिद्धिका साधन बनाये हुए हैं-उनकी समालोचनाको भी वे नहीं चाहते । इसीलिये प्रन्थोंको समालोचनाके प्रसंग पर गुरुओंको समालोचनाको भी उन्होंने साथ जोड़ दिया है। चूंकि इन दोनोंकी समालोचनाका भय उन्हें सुधारकोंकी तरफ से ही है, इसीसे वे सुधारकों के विरुद्ध उधार खाये बैठे हैं और उन्होंने सुधारकोंको "ढोंगी, जिनधर्मको श्रद्धासे रहित" आदि कहकर उनके विरुद्ध कितनीहो बेतुकी बातें लिख डाली हैं ! अन्यथा, उनके इस लिखने में कुछभी सार नहींहै। और उनका यह सारा नोट बिलकुल नासमझो, अविचार, द्वेषभाव और अनुचित पक्षपातको लिये हुए है। (८) पृष्ठ १७१ पर एक श्लोक निम्न अर्थ के साथ दिया है :दिव्यध्वनिमयो वाणी वीतरागमुखोद्भवा । साप्यस्मिन्नास्ति भो भन्याः सर्वद्वापरखंडका ॥ १०९ ॥ "अर्थ-साक्षात् तीर्थङ्कर केवलोका अभाव होनेसे साक्षात् दिव्यध्वनिका भी अभाव है जिससे सर्व सन्देह दूर होता था। परन्तु पंचमकालमें जिनागम प्रन्यों में वह दिव्यध्वनि आचार्योंकी परम्परासे प्रथितकी है। जिनागम ग्रंथों में केवली भगवानको दिव्यध्वनिके सिवाय एक अक्षरमात्रभी स्वकल्पित नहीं है। न राग द्वष या प्रतिष्ठा कोर्ति आदिके गौरवसे वीत Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१३१] राग योगियोंने उस दिव्यध्वनिमें व्यतिक्रम किया है। इसलिए परमागमके शास्त्र सब दिव्यध्वनि कप ही हैं। जो प्रामाणिकता. सत्यता और निर्दोषता दिन्यध्वनिकी है वही प्रामाणिकता सत्यता-निर्दोषता और अबाधता ग्रंथोंको है।" इस अर्थ में पहला वाक्य तो मूल के अधिकांश आशयको लिये हुए है, बाकी 'परन्तु' से प्रारम्भ होकर अन्त तकका सारा अर्थ मूलके साथ कोई खास सम्बन्ध नहीं रखता-यह सब अनुवादकजीके द्वारा कल्पित किया और बढ़ाया गया है ! इस बढ़े हुए अंशके द्वारा भी अनुवादकजीने भोले भक्तोंको फंसाने के लिये वही मायाजाल रचा है जिसका उल्लेख पिछले नम्बर (७) में किया जाचुका है। आप इसके द्वारा भोले भाइयोंको जिनागम परमागमके भुलावे में डालकर और अन्तको जैन कहे जानेवाले लय प्रन्योको एक आसनपर बिठलाकर उनके हृदयों पर यह सिक्का जमाना चाहते हैं कि भट्टारकीय साहित्यके इन त्रिवर्णाचारों तथा सूर्यप्रकाश जैसे प्रन्थोंमें भी जो कुछ लिखा हुआ है वह सब भगवानकी दिव्यध्वनिमें ही प्रकट हुआ है-एक अक्षरभी उससे बाहरका नहीं है, और इसलिए इन प्रन्योको सब बातोंको मानना चाहिए । पाठकजन ! देखा, अनुवादकजोका यह कितना असत्साहस, खोटा अभिप्राय तथा छलपूर्ण व्यवहार है और इसके द्वारा वे कैसी ठमविद्या चलाना चाहते हैं ! इस ग्रंथमें, जिसे खुद अनुवादकजीने "प्रथराज" (पृष्ठ ४०३) तथा "जिनागमस्वरूप" (४०८) लिखा है और ऐसी जिनवाणी प्रकट किया है जो भगवान् महावीरके समयसे अबतक "वैसी ही अविच्छिन्न धाराप्रवाह रूप चली आई है" (४०३), भगवान महावीर और उनको वाणीकी कैसी मिट्टी खराबकी गई है, यह बात अब पाठकोले छिपी नहीं रही और इसलिये वे अनुवादकजीके उक्त शब्दोंका Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१३२] मूल्य भले प्रकार समझ सकते हैं और उनकी लोलाको अच्छी तरह पहचान सकते हैं । इस विषयके विशेष अनुभवके लिये उन्हें 'ग्रंथपरोक्षा' के तीनों भाग और 'जैनाचार्योंका शासन भेद' नामको पुस्तकको भी देख जाना चाहिये * | फिर उनके सामने अनुवादकजी जैसोका ऐसा मायाकोट क्षणभर भी खड़ा नहीं रह सकेगा। (९) पृष्ठ १३७, १३८ पर जैनधर्मका महत्व गिर जाने और उसकी न्यूनताका कारण बतलाते हुए तीन श्लोक निम्न प्रकारसे दिये हैं: "हस्त्यनन्तश्च संसारे पक्षः स्यात् यस्य दृश्यते । महत्वत्वं च तस्यैव तद्ऋते अमहत्वता ॥६३८॥ "मित्रकाले च तस्यैव पालका धारका नृपाः । प्रजाःसर्वा द्विजा:सर्वेश्रत: सर्वेषु भो बुधाः ॥६३६॥ "उत्तमता च यस्यैव अन्यस्य न्यूनता खलु । तद् ऋते ननु विज्ञेयं विपरीतस्य कारणम् ॥६४०॥ इनमें सिर्फ इतनाही कहा गया है कि-'संसारमें जिस धर्मका पक्ष अनन्त है-बहुत अधिक जनता जिसके पक्ष में होती है-उसीका महत्व दिखलाई पड़ता है। प्रत्युत इसकेअधिक जनता पक्ष में न होनेपर--महत्व गिर जाताहै । चतुर्थ कालमें इसी जैनधर्मके पालक-धारक-राजा थे, सारी प्रजा थी और सारे द्विज (घ्रामण, क्षत्रिय, वैश्य ) थे । इसीलिये हे बुध जनों ! सब धर्मों में इसोको उत्तमता थी--दूसरोंकी न्यूनता * लेखकको लिखी हुई सब पुस्तकें “जैनमन्थरत्नाकर कार्यालय होराबाग, पो. गिरगाँव, बम्बई" से मिलती हैं । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१३३] थी। उन सब राजा, प्रजा और द्विजों का जैन न रहना ही इस धर्मकी न्यूनताका कारण है। __इस सीधे सादे स्पष्ट अर्थके विरुद्ध अनुवादकजीने जो अर्थ दिया है वह इसप्रकार है :' "अर्थ-हे राजन् , कलिकालमें इस संसारमें जिसके पक्षमें बहुतसी संख्या है वह अपना बल प्रकट करेगा, उसका महत्व प्रकट होगा । और जिनके पक्षमें संख्या स्वल्प है धे सर्वांग शक्तिशाली होनेपर भी अपना महत्व प्रकट नहीं कर सकेंगे । अपना जैनधर्म यद्यपि संसारमै सर्वोत्कृष्ट है, सर्वोत्तम है, पवित्र है, सदाचारसे परिपूर्ण है, परन्तु राजाओंका पक्ष न रहनेसे कमज़ोर होगया है। इसी प्रकार मुनिवर्गका पक्ष जब से कम होने लगा है तबसे उसका महत्व छुपता जाता है । इसलिये जो लोग धर्मका महत्व प्रकट करना चाहते हैं उनको धर्मगुरुओंको आज्ञा शिरोधार्य कर धर्मके रहस्य जाननेवाले सच्चे विद्वान त्यागियोंकी पक्षमें रहकर अपने धर्मको रक्षा और वृद्धि करनी चाहिये । जो सुधारक मुनिगण और विद्वानोंकी सत्य और आगमोचित पक्षको छोड़कर धर्म के बहाने अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहते हैं और धर्मकी पवित्रता, विधवाविवाह, जाति-पांति लोप और विजातीयविवाह आदि धर्मविरुव कारणोंसे नष्ट करना चाहते हैं उनको विचार करना चाहिये कि इस प्रकार पक्षभेद करदेनेसे धर्मका सत्यानाश ही होगा, समुन्नति नहीं। ६३८॥" "-"चतुर्थकालमें इस जैनधर्मके प्रतिपालक राजा और ब्राह्मणादि सभी प्राणी थे। इसलिये इसका डंका सर्वत्र अविच्छिन्नरूपसे बजता था ॥६३९ ॥" । ___ -यह धर्म सर्वोत्कृष्ट है । त्रिलोक पूजित है। और सर्वमान्य है। और धर्म इस (जैनधर्म) से सब बातों में अधम Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २३४ ] हैं | परन्तु जैनधर्मका पक्ष मुनियोंके सदुपदेश के बिना समस्त जीवोंको मिलना कठिन है । इसलिये इस जैनधर्मके पालन करने बालोंकी संख्या कम हो गई है। इसलिये मुनिधर्म और सच्चे आगमके जानकार विद्वानोंकी पक्षको एकदम मज़बूत बना देना चाहिये जिससे धर्मकी विपरीतता नष्ट हो जाय ॥ ६४० ॥ " यह सब अर्थ (अनुवाद) मूलसे कितना बाह्य और विपरीत है उसे बतलाने की ज़रूरत नहीं ! सहृदय पाठक सहज ही में तुलना करके उसे जान सकते हैं। ऐसे अनुवादको अनु वाद नहीं कहा जासकता- ये तो पूर्वोल्लेखित अनुवादोंकी तरह अनुवादकजीकी निरंकुशताके जीते जागते उदाहरण हैं ! यहां पर मैं अपने पाठकों को सिर्फ इतना हो बतला देना चाहता हूं कि अनुवादकजोने जैनियों अथवा पाक्षिक श्रावकों को संख्यावृद्धि की बातको गौण करके तथा राजा प्रजा और द्विजों को जैनी बनानेकी बातको भुलाकर इन श्लोकोंके अर्थक बहाने धर्मगुरुओं (भट्टारकमुनियों) की आशाको शिरोधार्य करने, उनकी तथा उनके आश्रित अपने जैसे स्यागी विद्वानों की पक्ष में रहने और उस पक्षको मज़बूत बना देनेकी प्रेरणारूप जो यह अप्रासंगिक तान छेड़ी है और सुधारकोंपर बिना बात ही व्यर्थका आक्रमण किया है वह सब भट्टारकीय मार्गको निष्कंटक बनानेकी उनकी एक मात्र धुन और चिन्ताके सिवाय और कुछ भी नहीं है- वे लुप्तप्राय भट्टारकीय मार्गको पुनः प्रतिष्ठित कराकर उसे चलाना चाहते हैं ! इसीसे वे शान्तिसागर जैसे मुनियोंके पीछे लगे हैं, उन्हें पक्ष पक्षों की दलदल तथा सामाजिक रागद्वेषको कोचमें फंसा रहे हैं और उनके सहयोग से इस 'सूर्यप्रकाश' जैसे भट्टारकीय साहित्यके प्रन्थों का प्रचार कर रहे हैं !! फिर बेप्रसंग- बिना प्रसंग ( मौके मी ) - ऐसी बेहयाईकी बातें न करें तो क्या करें ? Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१३५] खेद है कि अपनी धुनमें अनुवादकजी यह तो लिख गये कि “मुनिधर्मका पक्ष जबसे कम होने लगा तबसे उसका महत्व छुपता जाता है परन्तु उन्हें यह समझ नहीं पड़ा कि मुनियों का पक्ष कम क्यों होने लगा! क्या मुनियोंका पक्ष कम होने और उनका महत्व गिर जानेका उत्तरदायित्व भी गृहस्थों के ऊपर है ?~-मुनियों के ऊपर नहीं कदापि नहीं। मुनियों में शिथिलाचार आजाने और उनका आचरण मुनियोंके योग्य न रहनेके कारण हो उनका पक्ष एवं महत्व गिय है । "निजैरेव गुणैलोके पुरुषो याति पूज्यताम्" को नोतिके अनुसार हरएक मनुष्य अपने गुणों के कारण ही लोकमें पूजा-प्रतिष्ठाको प्राप्त होता है और जनताको अपने पक्ष में कर लेता है। एक महात्मा गांधीने अपने महान् गुणों के कारण हो संसारको हिला दिया और असंख्य जनता को अपने पक्षमें कर लिया। इससे स्पष्ट है कि मुनियोंके पक्षका गिरना और उनके महत्वका लुप्त हो जाना खुद उन्होंको त्रुटियों तथा दोषों पर अवलम्बित है। ऐसी हालतमें अनुवादकजीका, मुनियों को अपनी त्रुटियों तथा दोषों को सुधारनेका उपदेश न देकर गृहस्थोंको ही उनको आशाको शिरोधारण करने और उनको पक्षको मजबूत बनानेका उपदेश देना कहाँ का न्याय है ! सिंहवृत्तिके धारक और स्वावलम्बी कहे जानेवाले मुनि तो अकर्मण्य बने रहें और गृहस्थ लोग उनके पक्षको मजबूत करते फिरें, यह कैसी विड. म्बना जान पड़ती है ! ऐसो विडम्बनाका एक नमूना यह भी देखने में आता है कि मुनिलोग गृहस्थोंसे 'आचार्यपद' लेने लगे हैं !! जान पड़ता है, अनुवादकजीको मुनियोंका सुधार इष्ट नहीं है, क्योंकि वे शिथिलाचारको पुष्ट करनेवाली भट्टारकी चलाना चाहते हैं और इसीलिये उन्होंने मुनियोंको उनकी त्रुटियों तथा दोषोंके सुधार का उपदेश नहीं दिया !! इसी Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१३६] तरहकी एक बात उन्होंने पृष्ठ १३५ के फुटनोटमें भी जोड़ी है-लिखा है कि "कालदोषसे अपने धर्मभाई ही मुनियोंकी निन्दा कर मुनिधर्मके उठानेका प्रयत्न करेगे । मुनियों में मिथ्या अवर्णवाद लगावेगे।" मानो मुनिलोग बिलकुल निर्दोष होंगे; और यह सब कालका ही दोष होगा जो लोग यों ही उनकी निन्दा करने लगेंगे तथा उनमें दोष लगाने लगेंगे ! वाह ! कैसी अच्छी वकालत है ! इससे भी अधिक बढ़िया वकालत पृष्ठ ४१ को 'टोप' में की गई है और वह इस प्रकार है __ "वीतराग सर्वथा निरपेक्ष परम पवित्र सर्व प्रकारके दोषसे रहित और सब प्रकारको आशाको छोड़कर शानध्यानमें लीन रहनेवाले धर्मगुरु ( मुनि-आचार्य-ऐल्लक-आर्यिका ) को ये व्रत और चारित्रविहीन श्रावक निन्दा करेंगे। तथा निर्लज्जताके साथ निन्दा करते हैं । ये लोग स्वयं पापी, सदावाररहित कुशिक्षासे विषयोंका पोषण करने वाले और क्रिया हीन पापिष्ठ होंगे, सच्चे धर्मात्मा और धर्मगुरुका चारित्रविचार एवं मनको भावना अत्यन्त पवित्र और उत्तम होगी उसको भी ये लोग सहन नहीं कर सकेंगे।' इत्यादि इस प्रकारके अनुचित पक्षसे तो यह और भी स्पष्ट हो जाता है कि आप मुनियोंका सुधार और उनका उत्थान बिलकुल नहीं चाहते । यही वजह है कि आप क्षुल्लक महाराज जिस शांतिसागर संघके मुख्य गणधर बने हुए हैं उसकी दिनों दिन भइ उड़ रही है, जगह जगह निन्दा होती है और यह प्रसिद्ध हो चली है कि जहाँ जहाँ यह संघ जाता है, वहां वहां कलह के बीज बोता है और अनेक प्रकारके झगड़े टंटे कराकर लोगोंकी शांति भंग करता है ! (शायद टीपमें वर्णित गुणोंका हो यह सब प्रताप हो!!) परन्तु इससे आपको क्या ? आपका उल्लू तो बराबर सीधा हो रहा है ! मुनियों के Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १३७] सुधार पर फिर यह स्वार्थसिद्धि, निरंकुशता और गणधरी भो कैसे सकती है, जिसकी आपको विशेष चिन्ता जान पड़ती है ? यहां पर मैं इतना और भी प्रकट कर देना चाहता हूँ कि अनुवादकजीने विजातीय विवाह जैसे युक्ति-शास्त्र सम्मत कार्यको भी 'धर्मविरुद्ध' तथा 'धर्मको पवित्रताको नष्ट करने वाला ' बतलाकर अपने उन पूर्वजों तथा पूज्य पुरुषोंको भी, जिनमें तीर्थङ्कर तक शामिल हैं, अधार्मिक और धर्मकी पवित्रता को नष्ट करनेवाले ठहराया है, जिन्होंने अपने वर्ण अथवा जाति से भिन्न दूसरे वर्ण जातियोंको कन्याओं से विवाद किये थे तथा म्लेच्छ जातियों तक की कन्याएँ विवाही थीं और जिन सबकी कथाओं से जैनमंथ भरे पड़े हैं ! और यह आपकी feart बड़ी धृष्टता है !! विजातीयविवाहको चर्चा बहुत अर्से तक समाज के पत्रों में होती रही है और उसे कोई भी विद्वान् अशास्त्रसम्मत सिद्ध नहीं कर सका । अन्त में विरोधियोंको चुप ही होना पड़ा और उसके फल स्वरूप अनेक विजातीय विवाह डंके की चोट हो रहे हैं। ऐसी हालत में भी अपने कदाग्रहको न छोड़ना और वही बेसुरा राग अलापते हुए उसके विरोधको चुपके से प्रन्थोंमें रखकर और उसे जिनवाणी तथा भगवान महावीरकी आज्ञा कहकर चलाना कितनो भारी नीचता और धृष्टता है, इसे पाठक स्वयं समझ सकते हैं !! एक दूसरे स्थान पर तो छठे पृष्ठके फुटनोट में - आपने ऐसे विवाह करने वालोको - और इसलिये अपने पूर्वजों तथा पूज्यपुरुषों को भी'अनार्य' (म्लेच्छ) बतलाया है !! इस धृष्टताकाभी कोई ठिकाना है !!! (१०) पृष्ठ २२३ पर " वह राजकुमार राजा हो कर प्रजाका न्यायमार्ग से पालन करेगा" यह वाक्य दिया हुआ है । और इसके 'वह' शब्द पर अंक १ डाल कर नीचे एक फुटनोट लगाया गया है, जो इस प्रकार है: - Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१३८] "इस प्रकरण में विवाहविधि विदेहक्षेत्रमें भी आगमकी मर्यादासे बतलाई है। यह नहीं है कि कन्या स्वयं वरण करे या बालक अपने आपही अपनी इच्छानुसार जिस तिस (जाति कुजाति, योग्य अयोग्य, नीच ऊँच आदि सबको) को स्वीकार कर विवाह कर लेवे । ऐसा करना मर्यादाके बाहर है। विवाह धर्मका अङ्ग है, उसकी पूर्ति गुरुजन ही योग्य रीति से सम्पादन करते हैं । इसमें बालक बालिकाओं को स्वतन्त्रता यह नोट 'वह' शब्दसे अथवा उससे प्रारम्भ होनेवाले उक्त वाक्यसे कोई सम्बन्ध नहीं रखता, यह तो स्पष्ट है । परंतु इसे छोड़िये और इस नोट के विषय पर विचार कीजिये । इस में स्वयंवर विवाहका निषेध किया गया है और उसके लिये 'आगमकी मर्यादा' तथा इस प्रकरणमें वर्णित 'विदेहक्षेत्रकी विवाहविधि' की दुहाई दी गई है। परन्तु इस प्रकरणमें विदेह क्षेत्रमें होनेवाले विवाहोंको कोई खास विधियाँ निर्दिष्ट नहीं की गई और न यही कहा गया कि वहाँ अमुक एक विधिसे ही सारे विवाह होते हैं, बल्कि भविष्य कथन के रूप में कर्मदहनवत के फलको प्राप्त एक राजकुमारके विवाहका साधारणतौर पर उल्लेख करते हुए केवल इतना ही कहा गया है कि-'उस राजकुमारका पिता पुत्रको गुणोंसे उज्वल अथवा अपने ही समान गुणवाला और यौवनसम्पन्न देखकर प्रसन्न होगा । उस पुत्रके विवाहार्य बड़े कुलोको ऐसी सुशीला राजपुत्रियोंकी याचना करेगा जो रूपमें अप्सराओंको मात करनेवाली होगी। ऐसी सुन्दराकार और मनोहर स्वरवाली कन्याएँ उस नेत्रानन्दकारी और यौवनसम्पन्न पुत्रको, सज्जनोंको आनन्द देने घाले दानों तथा सुमङ्गलोंको मंगल प्राप्तिके लिये करते हुए, बाजे गाजेके साथ विवाही जायंगी। यथा: Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १३९ ] 6 " तत्पिता यौवनाढ्यं च दृष्ट्वा सूनु गुणोज्वलं । गुणेन स्वात्मतुल्यं वा मुदमाप्स्यति भूमिराट् ॥१२७॥ तदात्मविवाहार्थ याचयित्वा नृपांगजाः । महत्कुलोद्धवाः शुद्धाः रूपात्तर्जित - अप्सराः ॥ २२८ ॥ ईदृशाः सुन्दराकारा: सुस्वना शं प्रदायते (१) । सूनवे यौवनाढ्याय नेत्रानन्दकराय वै ॥२२६॥ नेष्यन्ति वाद्यद्योपौघान् दानोत्करसुमंगलान् । कुर्वन् वै मंगलाप्त्यर्थ सज्जनानन्ददायकान् ॥२३०॥ - पृष्ठ २२२ इन श्लोकोमें न तो आगमको किसी मर्यादाका उल्लेख -आगम या शास्त्रका नाम तक भी नहीं- -न विवादको कोई ख़ास विधि हो स्पष्ट है और न यहो पाया जाता है कि विदेहों में स्वयंवर विधिका अथवा दूसरी किसी विवाहविधिका निषेध है। मालूम नहीं फिर अनुवादकजीने इन श्लोकोंके आधार पर कैसे उक्त नोट देने का साहस किया है ! इनसे भिन्न और कोई भी लोक विवाहविधिसे सम्बन्ध रखनेवाले इस प्रकरणमें नहीं है । जान पड़ता है इन श्लोकोंके अर्थ में जो जालसाज़ी की गई है उसीकी तरफ इस नोटका इशारा है अथवा उसीको लक्ष्य में रखकर यह नोट लिखा गया है ! अनुवादकजीका वह बेहद स्वेच्छाचारको लिये हुए छलपरिपूर्ण अर्थ इस प्रकार है:"अर्थ - उसका पिता बालकको यौवन अवस्था में देख कर अपनी जातिकी गुणवालो अपने समान ऋद्धिकी धारक राजाओं की कन्याओंकी याचनाकर विधिपूर्वक विवाह (वाग्दान ) स्वीकार करेगा । पश्चात् कुलास्राय और धर्मशास्त्र की विधि से विवाह करेगा । ( इसके बाद कुल डेढ़ पंक्तिमें पाँच श्लोकों --- - Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४०] का अर्थ दिया है और उनकी बहुतसी बातें शायद अप्रयोजनभूत समझकर छोड़ दी गई हैं !)।" इस अर्थमें "अपनी जातिकी गुणवाली अपने समान ऋद्धिकी धारक" और "विधिपूर्वक विवाह (वाम्दान) स्वीकार करेगा । पश्चात् कुलाम्नाय और धर्मशास्त्र की विधिसे विवाह करेगा" ये बातें मूलसे घारहको हैं-मूलके किसीभी शब्दका अर्थ नहीं हैं-अपनी तरफसे जोड़ी गई हैं। इन्हें निकाल देने पर इस अर्थ में फिर क्या रह जाता है और क्या छूट जाता है, उसे पाठक स्वयं समझ सकते हैं !! खेद है कि अनुवादकजी इतनी धृष्टता धारण किये हुए है कि अपनी बातोंको भी ग्रंथकी बातें बतलाकर लोगोंको ठगना और उनकी आंखोमें स्पष्ट धूल डालना चाहते हैं ! इस निर्लज्जता और बेहयाईका भी कुछ ठिकाना है !!! मालूम नहीं भट्टारकोय साहित्यके त्रिवर्णाचारादि आधुनिक भ्रष्ट ग्रंथोंको छोड़कर भाप कौनसे आगम ग्रंथ को मर्यादाको दुहाई दे रहे हैं, जिसमें राजाओं (क्षत्रियों) के लिये एक मात्र अपनी हो जातिको कन्यासे विवाह करनेको व्यवस्था की गई हो और स्वयंवर विधिस विवाहका सर्वथा निषेध किया गया हो ? भगवजिनसेनाचार्यने तो आदिपुराणके १६ वे पर्व 'शूद्रा शूद्रेण वोढव्य' इत्यादि श्लोकके द्वारा अनुलोमक्रमसे विवाह की व्यवस्था को है-अर्थात् एक वर्ण (जाति) घाला अपने और अपनेसे नीचेके वर्ण (जाति) की कन्यासे विवाह कर सकता है और इसे युगकी आदिमें श्री आदिनाथ भगवान द्वारा प्रतिपादित बतलाया है । और ४४ पर्व में स्वयंवर विधिसे विवाह को 'सनातनमार्ग' लिखा है तथा संपूर्ण विवाहविधानों में सबसे अधिक श्रेष्ठ (वरिष्ठ) विधान प्रकट किया है। जैसा कि उसके निम्न श्लोकसे प्रकट है: Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४१] सनातनोऽस्ति मार्गोऽयं श्रुतिस्मृतिषु भाषितः । विवाहविधिभेदेषु वरिष्ठोहि स्वयंवरः ॥ ३२॥ साथही, ४५वे पर्वमें राजा अकम्पनके स्वयंधर विधान का जो अभिनन्दन भरतचक्रवर्तीने किया था उसकाभी उल्लेख दिया है । भरतचक्रवर्तीने भोगभूमिको प्रवृत्ति द्वारा लुप्त हुए ऐसे सनातन मार्गों के पुनरुद्धारकर्ताओंको सत्पुरुषों द्वारा पूज्यभी ठहराया था; जैसा कि निम्न वाक्योंसे प्रकट है: "तथा स्वयंवरस्यमे नाभूवन्यद्यकम्पना। कः प्रवर्तयितान्योऽस्य मार्गस्यैष सनातनः ॥ ४५ ॥ "मार्गाश्चिरंतनान्येऽत्र भोगभूमितिरोहितान् । . कर्वन्ति नूतनान्सन्तः सद्भिः पूज्यास्त एव हि ॥ १५ ॥ इसके मिवाय, उक्त आदिपुराणके १६वै पर्व में यह भी बतलाया गया है कि विदेहक्षेत्रोंमें वर्णाश्रमादिककी जैसी कुछ व्यवस्था थी उसोकोयुगकी आदिमें भगवान आदिनाथने इस भरत क्षेत्र में प्रवर्तित करना उचित समझा था और तदनुसार ही वह सब व्यवस्था प्रवर्तित की गई थी * । ऐसी हालतमें स्वयंवर विधि जो युगको आदिमें यहाँ प्रवर्तित की गई वह विदेहक्षेत्रोंकी व्यवस्था के अनुसार ही की गई है और इसलिये विदेहोंमें स्वयंवरविधि से विवाहोंका होना स्पष्ट है। * पूर्वापर विदेहेषु या स्थिति: समुपस्थिता । साऽद्य प्रवर्तनीयाऽत्र ततो जीवन्त्यमू प्रजाः ॥१४३॥ पट कर्माणि यथा तत्र यथा वर्णाश्रमस्थितिः। यथा ग्रामगृहादीनां संस्त्याश्च पृथग्विधाः ॥१४॥ तथाऽत्राप्युचिता वृत्तिरुपायैरेभिरंगिनाम् । नोपायान्तरमस्त्येषा प्राणिनां जीविका प्रति ॥१४५॥ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १४२ ] आदि पुराणसे पहिले शक संवत् ७०५ में बने हुए श्री जिनसेनाचार्य के हरिवंशपुराणमें भी स्वयंवरविवाहका तथा अन्य जातियोंकी कन्याओंसे अनुलोम प्रतिलोम रूप से विवाहों का बहुत कुछ उल्लेख है । और उसमें रोहिणीके स्वयंवरके प्रसंग पर निम्नवाक्य द्वारा स्वयंवरको नीतिका भी स्पष्ट उल्लेख किया गया है— अर्थात् बतलाया है कि 'स्वयंवरको प्राप्त हुई कन्या उस वरको धारण करती - स्वीकार करती है जो उसे पसन्द होता है, चाहे वह वर कुलोन हो या अकुलीन; क्योंकि स्वयंवर में वरके कुलीन या अकुलोन होने का कोई नियम नहीं होता' - स्वयंवरगता कन्या वृणीते रुचितं वरं । कुलीनमकुलीन वा न क्रमोऽस्ति स्वयंवरे ॥ ३१-५३ ॥ उक्त हरिवंशपुराण से भी कोई एक शताब्दी पहले के बने हुए रविषेणाचार्य के पद्मचरित ( पद्मपुराण) में भी सीता के स्वयंवरका घर्णन है । इन सब प्रन्थोंसे अधिक प्राचीन और अधिक मान्य ऐसा कोई भी जैन प्रन्थ नहीं है जिसमें स्वयंवरादिका निषेध किया गया हो । अतः अनुवादकजीका उक्त नोट बिलकुल निःसार छल से परिपूर्ण, दुःसाहसको लिये हुए और उनकी एकमात्र दूषित चित्तवृत्तिका द्योतक है। इसी तरह के अनेक निःसार नोट ग्रंथ मैं भिन्न भिन्न स्थानोंपर लगाये गये हैं, जिन सबका परिचय + इस ग्रंथ तथा अन्य ग्रन्थों सम्बन्धी विवाहविधियोंका विशेष परिचय पानेके लिये लेखककी 'विवाहक्षेत्र प्रकाश' नामकी पुस्तकको देखना चाहिये । यह पुस्तक ला० जौहरीमलजी जैन सर्राफ, दरीबाकला, देहली के पाससे मिलती है । Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १४३ ] और आलोचन अधिक विस्तारको अपेक्षा रखता है और इसलिये उन्हें छोड़ा गया है । लेख बहुत बढ़ गया है और इसलिये अब मैं आगे कुछ थोड़ोसो बातों की प्रायः सूचनाएँ हो और करदेना चाहता हूँ, जिससे पाठकों को इस ग्रन्थके अनुवाद विषयका और अनुवादककी चित्तवृत्ति एवं योग्यताका यथेष्ट व्यापक ज्ञान होजाय । ( ११ ) पृष्ट ३७ पर श्लोक नं० १३५ के 'चूर्णोदकाज्यं" पदके अर्थ में 'आटा, पानी और घो' के बाद 'आदि' शब्द बढ़ाया है और उसके द्वारा मूलको अर्थमर्यादाको बढ़ाते हुए शूद्रोंके प्रति होनेवाले अन्यायको सोमावृद्धि को है ! इसीतरह पृष्ठ २१४ पर श्लोक नं० १६० के 'शूद्रस्पृश्यं जलं चूर्णं घृतं ' पदोंके अर्थ में 'शूद्रके हाथका जल घृत और आटा' के बाद 'आदि' शब्द बढ़ाकर वही अनर्थ घटित किया हैं * !! 99 (१२) पृष्ठ ७२ पर श्लोक नं० ३०१ के अर्थ में 'तप' पद का अर्थ छोड़ दिया है और उसकी जगह " गुरु सेवा करना तथा " जैनधर्म के अन्तरंग : शत्रुओंका नाश करना" ये दो बातें पुण्य-कारणों में बढ़ाई गई हैं, जिनमेंसे पिछली बात का संकेत सुधारक के नाशकी ओर जान पड़ता है और उससे अनुवादक की एक ख़ास मनोवृत्तिका पता चलता है !! (१३) पृष्ठ ७८ पर श्लोक नं० ३३८ के अर्थ में 'श्रीमज्जि'नेन्द्र बिम्बकी प्रतिष्ठा' से पहले 'अपरिमित धनादिक के व्यय के द्वारा" और बादको “महान् उत्सव कराने लगे" तथा "रथोत्सव आदि विविध प्रकारके उत्सव करने लगे" ये तीन बातें बढ़ाई गई हैं ! (१४) पृष्ठ ८५ पर, कुन्दकुन्दके गिरनार यात्रासंघकी * ये दोनों श्लोक पहले 'शूद्रजलादिके त्यागका अजीब विधान' इस उपशीर्षकके नीचे उद्धृत किये जा चुके हैं। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४४] गणना देते हुए, श्लोक नं० ३६१ का अर्थ न देकर उसकी जगह निम्न वाक्य यो हो कल्पित करके दिया गया है :- "उन सबके साथ अपने २ नौकर चाकर सिपाई पयादे तथा सब प्रकारके साधन गाड़ी घोड़े आदि थे।" (१५) पृष्ठ ११२, ११३ पर, श्लोक नं० ५०१ से ५०६ का अर्थ मूलके अनुकूल न होकर बहुत कुछ स्वेच्छाचारको लिये हुए है। इसमें मूलके नाम पर बहुतसी बाते अपनी तरफसे बढ़ाई गई हैं, जैसे-"पूजनके पाँच अंगोंमें तीन अङ्ग तो अभिषेकके प्रारम्भमें हो करने पड़ते हैं", "सबसे पीछे कलशाभिषेक करना चाहिये", "गंधलेपन पुष्पवृष्टि आदि", "यदि इस क्रमसे पूजाकी जाय तो सर्वसंपत्ति प्राप्त होतो है" इत्यादि ! (१६) पृष्ठ १४० पर श्लोक नं० ६४७ के अर्थमें 'अभिषेकादि' से पहले "तीर्थङ्कर द्वारा प्रतिपादित" और बादको “पवित्र आगमोक्त" ये 'क्रिया' के विशेषण बढ़ाये गये हैं ! (१७) पृष्ठ १६८ पर श्लोक नं० ९१ के अर्थमे निम्न दो बातें मूलके नाम पर खास तौरसे बढ़ाई गई हैं: क-“भगवानकी मूर्तिको परोक्षपूजा प्रत्यक्षपूजासे भिन्न होती है। इसलिये परोक्षपूजा उस मूर्तिको" ( आगे पंचामृतके नामादिक देकर उनसे वह की जाती है ऐसा उल्लेख है।) . ख-"यह सनातनविधि श्रीजिनेन्द्रदेवने प्रतिपादन की है और इन्द्रादिकदेव इसी विधिसे नन्दीश्वरादि द्वीपमें अकृत्रिम जिनबिम्बोंका अभिषेक करते हैं।" (१८) पृष्ट १७२ पर श्लोक नं० ११५ के अर्थमें निम्न बाते अपनी तरफ़से मिलाई गई हैं: “धे मुनीश्वर कुमार्ग पर चलनेवालोंको सुमार्ग पर लाते थे। जिनराजकी आशा भंग करनेवालोंको सन्मार्ग पर लाते थे। Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१५] और मनमानी करनेवालोंको योग्य व्यवस्था कर सन्मार्ग पर लाते थे। संघमें बिना दण्डके कभी व्यवस्था नहीं होती है । राजदण्डसे जैसे अन्याय रुक जाता है इसी प्रकार पंचायती दण्ड धर्मविरुद्ध चलनेवालोंको अनोति मिट जाती है।" (१९) पृष्ठ १७५ पर श्लोक नं० १२४ के अर्थ में निम्न पाक्य मूल के शब्दोंसे कोई सम्बन्ध नहीं रखते-ऊपरसे मिलाये गये हैं: ___"परन्तु मूर्तिपूजा परमागममें सर्वत्र बतलाई है। बिना मूर्तिपूजाके आत्मस्वरूपकी प्राप्ति नहीं होती है । इसलिये केवल आत्माके श्रद्धानको मानकर देव, शास्त्र, गुरुका श्रद्धान नहीं करना सो मिथ्यात्व है।" (२०) पृष्ठ १७७ पर श्लोक नं० १३० के अर्थ में "गुरु बिना ज्ञान नहीं होता है, यह कहावत भी सर्वत्र प्रसिद्ध है" ये शब्द बढ़ाये गये हैं-मूलमें ऐसा कोई उल्लेख नहीं। (२१) पृष्ठ १८४, १८५ पर 'भो ढूंन्याः नामस्थापनाद्रव्यभावतश्चतुर्धा जिनेन्द्रस्य स्मरणं च पूजनं स्यात्' इस वाक्य के अर्थ निम्न बाते बढ़ाई गई हैं: "प्रत्येक वस्तुमें चारों निक्षेप नियमसे होते हैं परन्तु आप लोगोंने तीन निक्षेप (नाम द्रव्य भाव) तो स्वीकार किये हैं और बीचमें स्थापना निक्षेपको छोड़ दिया, सो क्यों?" ( इत्यादि पूरी छः पंक्तियों की बातें 'अशान है' तक)। (२२) पृष्ठ २०४ पर श्लोक नं० ९५ के अर्थ में यह बात बढ़ाई गई है "अन्यथा एक मुख पर पाटी बांधकर विशेष म्लेच्छा. चार क्यों फैलाते हो और जैनधर्मको घृणापूर्ण बनाकर निन्दा के पात्र होते हो। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३) पृष्ठ २११ पर श्लोक नं० १४२ के अर्थ में यह बात अपनी तरफ से मिलाई गई है, मूल में नहीं है "अपने घरसे उत्तमोत्तम भगवान्के पूजनको सामग्री तथा अभिषेककी सामग्रो ( इक्षुरस-दूध-दही-वृत-सर्वोषधि-- शर्करा फल-फूल-केशर-कपूर-दीपक आदि ) ले जावे।" (२४) पृष्ठ २६७ पर सम्मेदशिखर के आनन्दकूटसे मुक्ति जानेवालोंको संख्या और उस कूटको बन्दनाका फल बतलाने के अनन्तर जो बात मूलके नाम पर श्लोकोंके अर्थ में अपनी तरफसे बढ़ाई गई है वह इस प्रकार है: "सनत्कुमार चक्रवर्तीने चतुर्विध संघसहित यात्रा की। यह संघ सबसे भारी निकाला गया था। लाखोंको संख्यामें यात्री थे। सबकीवर्या संघमें होती थी।" इसी तरह आगे अविचलकूट आदिके वर्णनमें भी चतुर्विधसंघसहित वन्दना करनेवाले राजाओं के नामादिकका उल्लख मूलवाक्योंके अर्थों में बढ़ाया गया है, संघमें हज़ारों मनियों के होनेका भी कहीं कहीं उल्लेख किया गया है और किसी किसी कूटका माहात्म्यविशेष भी अपनी तरफसे जोड़ा गया है, जैसे प्रभासकूटके वर्णनमें (पृष्ठ २६८ पर ) लिखा है"इस कूटकी रज लगानेसे कुष्ठ रोग दूर होता है । विशेष एक बात यह भी है कि बोस कूटोंको यात्राके समान इसका फल है।" इस तरहको बहुतसी बातें इस सम्मेदशिखर प्रकरणमें चुपकेसे अर्थमें शामिल को गई हैं और इस तरह उन्हें मूलकी प्रकट किया गया है। (२५) पृष्ठ ३१८ पर तोत्रमोही होने के कारणों मे होंग, सज्जी, नमक, तेल आदि कई चीज़ोंके खरीदने बेचने (व्यापार) को बातको छोड़ दिया है । और "मशीनोंके द्वारा महान् हिंसक होनेवाले व्यापार" आदिकी बातोंको बढ़ाया गया Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १४७ ] है जो मूलमें नहीं है। इसी तरह की इस फलवर्णनके प्रकरण मे आगे पोछे बहुतसी बातें अर्थ करते समय छोड़ दी गई और बहुतसी बढ़ाई गई हैं। जैसे विधवा होने के कारणोंमें "पुनर्वि वाह" और "वैधव्यदोक्षानाश" आदिको बातें बढ़ाई गई हैं और कितना ही वर्णन मूलले बाहर दिया है। (पृष्ठ २७४ - २७६) (२६) पृष्ठ ३८० पर श्लोक नं० १९० के अर्थ में ये बातें बढ़ाई गई हैं: " वर्तमान में वर्णव्यवस्थालोप, विधवाविवाह स्पर्शास्पर्शलोप समानहक्क आदि समस्त धर्मविरुद्ध नीतिविरुद्ध मर्यादाविरुद्ध बातोंको धर्मनीति और कर्तव्य बतलाया जा रहा है । यह सब राजा और राजाकी ऐसी ही कुशिक्षाका फल है। यह बात सच है कि यथा राजा तथा प्रजा ।" (२७) पृ० ३८४ पर लोक नं० २११ के अर्थमें यह बात बढ़ाई गई है, जो उक्त श्लोक में नहीं है : "अगणित दोपको से दीपावली (दिवाली) को प्रकट किया। उसी दिवस से यह उत्सव दीपावली के नाम से दिवाली आजतक प्रचलित है ।" ( २८ ) पृ० ३८८ पर श्लोक नं० २३३ के अर्थमै राजा श्रेणिक द्वारा पावापुर में स्थापित वीर जिनालयको प्रतिष्ठा के साथ में "अतिशय धूमधाम से" ये शब्द जोड़े गये हैं और साथ ही यह बात बिलकुल अपनी तरफ़से कल्पित करके जोड़ी गई है कि राजाश्रेणिकने GOVIND "उस जिनालय में श्री वीरप्रभुके स्मरणार्थ वीरप्रभुकी चरणपादुका स्थापित की ।" (२९) पृ० ८० पर कुन्दकुन्दको मन्थरचना का उल्लेख करते हुए जो श्लोक नं० ३५२ दिया है उसका अनुवादकजी द्वारा निर्मित अर्थ अर्थकी वृद्धि, हानि तथा विपरीतता तीनोंको Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १४८ ] लिये हुए है। उसमें जहां कुछ 'वेलकांत' आदि पदोंका अर्थ छोड़ा है वहाँ “मुनिधर्म के प्रकाश करनेवाले ग्रंथ भी बनाये" यह अर्थ अपनी तरफ़ से जोड़ा है और 'सकलान् प्रन्थान् करिष्यति' ( संपूर्ण प्रन्थोंको बनाएगा ) का विपरीत अर्थ "बहुतसे प्रन्थ बनाये" दिया है। इसी तरह 'प्रभावार्थ जिनधर्मस्य' इन शब्दों का अर्थ जो 'जिनधर्मको प्रभावना के लिये' होता है उसको जगह यह अर्थ दिया है " जिससे जिनेन्द्रके धर्मकी अपूर्व महिमा प्रकट हुई । जैनधर्मकी प्रभावना हुई, तथा विद्वानों में जैनधर्मका चमत्कार हुआ और जगत्में जैनधर्मकी मान्यता बढ़ो ।” (३०) जिस प्रकार उक्त पृष्ठ ८० पर भविष्यकालको क्रिया' करिष्यति' का अर्थ भूतकालमें दिया है उसी प्रकार पृष्ठ २४० पर भी 'भोक्ष्यति' ( भोगेगा ) क्रियापद का अर्थ " भोगने लगा" देदिया है, जो प्रकरणको देखते हुए बहुतही बेढंगा जान पड़ता है ! साथ में 'समापन्वान्' पद जो यहां 'सः' का विशेषण था उसे क्रियापद समझकर उसका अर्थ " प्राप्त किया" देदिया है ! और पृष्ठ १४२ पर 'भवन्ति' का अर्थ 'होते हैं' की जगह " होगे" दिया गया है ! इसी तरह अन्यत्र भी अनेक क्रिया पदों के अर्थ विपरीत किये गये हैं !!! (३१) पृष्ठ १३५, पर एक श्लोक निम्न प्रकारसे दिया है :-- 1 तो मुनीपदस्यैव धारकाः पुरुषाः कलौ तुच्छा जानीहि त्वं भूप यथा भूपास्तथा प्रजा ॥ इसमें बतलाया गया है कि 'पूर्वोल्लेखित कारणोंसे--- अर्थात् प्रतिदिन मुनिमार्ग की दानिता, शरीरकी हीनता, हीन संहनन और ब्राह्मणों तथा राजाओंका जैनधर्म से पराङ्मुख Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२] होना आदि कारणों से-कलियुगमें मुनिपद के धारक तुच्छ पुरुषही होंगे, जैसे 'राजा वैसी प्रजा' । यहां जिन राजाओं, के साथ तुलना करते हुए उन्हें तुच्छ कहा है प्रथके शुरू में (पृ०२६, २७) उन राजाओंको 'नीचा हि राज्यभोक्तार!' 'न्यायहीनाश्च भूमिपाः' जैसे शब्दोंके द्वारा नीचादि प्रकट किया है, और साधुओंको भो 'साधुगुणविहीनांगा: आदि लिखा है, जिस का अर्थ खुद अनुवादकजी ने यह किया है कि-"पंचमकाल में ऐसे साधु और भेषधारी ब्रह्मचारी होंगे जिनमें अपने पद के योग्य गुणोंका अभाव होगा"। ऐसी हालत में प्रसंगानुसार यहाँ 'तुच्छ' का अर्थ होन या निकष्ट होना चाहिये था; परन्तु उसे न देकर स्वल्पसंख्यक अकिया गया है-लिखा है कि "मुनिपदके धारक वीर पुरुषोंकी संख्या स्वल्प होगी"। शायद अनुवादकजीको यह भय हुआ हो कि इस विशेषणपद परसे उनके वर्तमान गुरु कहीं तुच्छ (होन अथवा निकष्ट) न समझ लिये जायं!-भलेहो वे साधुगुणविहीनांग हो !! (३२) पृ० ११९ पर श्लोक नं० ५३८, ५३९ 'युग्म' रूपसे है-दोनोंको मिलाकर एक पूरा वाक्य बनता है और उनका सार (विशेषणों को छोड़कर) सिर्फ इतना ही है कि 'वह ब्राह्मणी उसी संठपुत्रोके वचनानुसार सहर्ष एक घड़ा पानीका लेकर (आधाय) और उसे अभिषेककेलिये (अभिषेकाय) जिनमंदिरमें धरकर (धृत्वा ) अपने घर चली आई (स्वस्थान चागात् )। परन्तु अनुवादकजीने यह सब कुछ न समझकर दोनोंका बड़ा ही विलक्षण अर्थ अलग अलग कर डाला है ! एकमे यह सूचित किया है कि 'वह ब्राह्मणी पानीका एक घड़ा नदीमें से भरकर और जिनमंदिर जाकर उसे श्री वीतराग अरहंत प्रभु पर चढ़ा आई और फिर अपने घर पर गई।' और Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१५०] दूसरेमें यह बतलाया है कि 'उस ब्राह्मणीने श्रीजिनमंदिरमें श्रीजिनदेवका अभिषेक किया और वह अतिशय हर्षको प्राप्त हुई।' यहां 'अभियेकाय धृत्वा' का अर्थ "अभिषेक किया" दिया है, जो बड़ा ही विचित्र जान पड़ता है ! इसी तरह अन्यत्र भी युग्म श्लोकोंको न समझकर उनके अर्थ में गड़बड़ की गई है !! (३३) पृष्ठ १६२ पर श्लोक नं. ५५ में प्रयुक्त हुए 'भवता यदि श्रद्धा स्यात् ग्रंथाना' इन शब्दोंका स्पष्ट अर्थ है-'यदि तुम्हारे ग्रंथोंकी श्रद्धाहो' । परन्तु अनुवादकजी ने "जिससे जिनागममें श्रद्धा हो" यह विलक्षण अर्थ किया है। 'यदि' का अर्थ "जिससे' बतलाना यहअनुवादकीय दिमागको खास उपज जान पड़ती है !! (३४) पृष्ठ २६४ पर संख्यावाचक पद 'चन्द्रपक्षप्रमः' का अर्थ १२ किया गया है, जब कि वह 'अंकानां वामोगतिः' के नियमानुसार '२१' होना चाहिये था। पृष्ठ २८३ पर 'हिमांशुनेत्र' का अर्थ भी '२१' की जगह १२ गलत किया गया है, जब कि इसी पष्ठ पर रंध्रवेदभवं' का अर्थ उक्तनियमानुसार *४९ भव" दिया है ! और इससे अनुवादक का खासा स्वेच्छाचार पाया जाता है ! और पृ०२६७ पर 'नेत्राद्रिप्रमलता.' पदका अर्थ '६२ लाख' दिया है, जब कि वह '७२ लाख' होना चाहिये था क्योंकि 'अद्रि' शब्द सातको संख्याका वाचक है ! इसी तरह अन्यत्र भी कितने ही संख्यावाचक शब्दों तथा पदो का अर्थ इसमें विपरीत किया गया है !!! ये सब (प्रायः नं०२९ से लेकर यहाँ तक) अनुवादकजीके उस संस्कृत-शानके खास नमूने हैं जिसके आधार पर वे सुधारकों तथा ग्रंथोंकी समालोचना करने वाले विद्वानोंको यह कहने बैठे हैं कि "उनको संस्कृत प्राकतका ज्ञान नहीं है।" Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १५१ ] परन्तु एक बढ़िया नमूना तो अभी बाकी हो रह गया है, और वह आगे दिया जाता है । (३५) श्र ेणिककी प्रश्नावलीको उत्तरसमाप्तिके बाद ग्रंथ में पृष्ठ ३७८ पर दो पथ निस्र प्रकारसे दिये हैं:भूतं भांतमभूतमेव ह्यखिलं संसारतापापहं । वीरो वीरगुणाकरो मुनिनुतो वृत्तांत वांजसा ॥ श्रायुः कायसुसारवैभवयुतान् पुण्योदयात् सत्सुखान् । मत्यीनां च पृथक् पृथक् जिनपति: त्रिषष्ठिकानां शुभम् ॥ १७६॥ पौराणांश्च तथा हि अन्यमनुजानां च चरित्रं महत् । तवातत्वविभेदकं च स्मरतो मोक्षस्वरूपं तथा ॥ कृत्वेत्थं च नेिश्वरां बहरो व्याख्यानकं चोत्तमं । मोक्षं ह्याप दयार्द्रधीः जितरिपु: सर्वाधिपैर्वदितः ॥ १७७॥ ये दोनों पद्य 'युग्म' रूप से है- दोनोंका मिल कर एक वाक्य बनता है, जिसकी क्रिया 'आप' दूसरे पद्य अन्तिम चरण पड़ी हुई है । इनमें बतलाया है कि 'इस प्रकार वीरगुणों के आकर मुनियोंसे स्तुत पापका नाश करने वाले दयाबुद्धि जितरिपु और सर्व अधिपतियों से वंदित ऐसे जिनपति श्रीमहावीर जिनेश्वरने, संसार तापको दूरकरने वाले भूत-भविष्यत वर्तमान सम्बन्धी संपूर्ण शुभ वृत्ततिका, मनुष्यों के आयु काय तथा सार वैभवसहित पुण्यो दयसे होने वाले सत्सुखोंका, प्रेसठ शलाका पुरुषोंके पृथक् पृथक् पौराणोंका तथा दूसरे मनुष्योंके महत् चरित्रका तत्वातत्वके विभेदका और मोक्षके स्वरूपका चिन्तन करते हुए ( अर्थात् इन सबको लिये हुए ) उत्तम उपदेश देकर मोक्षको प्राप्त किया।' Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१५२j इस आशय परसे ऐसा मालूम होता है कि प्रन्थकारने इन पद्यों को संभवतः त्रिषष्ठि शलाका पुरुषोंके चरित्र वाले किसी महापुराण परसे उद्धृत किया है, जहां ये उपसंहार वाक्यके रूपमें दिये गये होंगे और अपनी मूर्खतावश इन्हें यहाँ रक्खा है। क्योंकि एकतो इनका विषय प्रकृत प्रथके साथमें यथेष्ट रूपसे संगत नहीं बैठता, दूसरे यहां भगवान महावीरको मोक्षमें भेजकर कुछ कथनके बाद फिर पृष्ठ ३८२ पर 'अथ श्रीमजिनाधीशो महावीरः सुरार्चितः । विहारं कृतवान्' इत्यादि वाक्योंके द्वारा उनके विहारादिका जो कथन किया गया है वह नहीं बन सकता। और इसलिये इन वाक्योंका यहां दिया जाना प्रन्थकारको स्पष्ट मुर्खताका घोतक है। परन्तु इसे छोड़िये और अनुवादकजीकी मूर्खताको लीजिये। उन्होंने इन पद्योंको 'युग्म' रूप हो नहीं समझा, न इनका ठोक आशय ही वे समझ सके है और इसलिये इनका जो अलग अलग विलक्षण अर्थ दिया गया है वह उनकी बड़ी ही स्वेच्छाचारता, निरंकुशता एवं संस्कृतानभिशताको लिये हुए है। और वह क्रमशः इस प्रकार है:___ अर्थ-हे मगधेश्वर जो कुछ संसार में जितना वृत्तान्त होगया है, आगे होगा और वर्तमान कालमें होरहा है वह सब वीरप्रभु अपने दिव्य ज्ञानसे परिपूर्ण यथार्थरूपसे जानते हैं । इसीलिये वीरप्रभु सर्वश वीतराग और त्रिलोकवंदित हैं। मुनिगणोंसे पूज्य है । जो मनुष्य वीरप्रभुके वचनोंका अज्ञान कर उनको ही अपना ध्येय समझता है, अपना कर्तव्य मानता है वही आयुः काय भोगसंपदा आदि उत्तमोत्तम सामग्रीको प्राप्तकर महान् पुण्यका संपादन करता है। वह पुण्य त्रिषष्टिपुरुषोंके चरित्रादिको श्रवणकरनेसे संपादित होता है ।" "अर्थ-श्रीवीरप्रभुने त्रिषष्ठीशलाका पुरुषोंका पुण्यो. Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १५३ ] त्पादक जीवनचरित्र, तत्त्वातत्त्वका विवेचन, मोक्षका स्वरूप आदि समस्तपदार्थोंका व्याख्यान समोशरण में दिया । वे दयालु भगवान् सदैव जयवन्त रहो ।" · जिन पाठकको संस्कृतका कुछ भी बोध है वे मूलके साथ तथा ऊपर दिये हुए उसके आशय के साथ तुलना करके सहज ही में मालूम कर सकते हैं कि यह अनुवाद कितना बेसिर पैरका, कितना विपरीत और मूलके साथ कितना असम्बद्ध है तथा अनुवादकके कितने असत्य प्रलापको सूचित करता है। इसमें “हे मगधेश्वर" यह सम्बोधनपद तो मूलसे बाह्य होने के अतिरिक्त अनुवादकको महामूर्खता प्रकट करता है; क्योंकि ये दोनों पद्य प्रन्धकारके उपसंहार वाक्योंके रूपमें हैं- महावीरकी तरफ़ श्रेणिक के प्रति कहे हुए नहीं हैंऔर प्रन्थकारके सामने मगधेश्वर ( राजा श्रेणिक ) उसके सम्बोधन के लिये नहीं था। मालूम नहीं "सदैव जयवन्त रहो" यह आशीर्वाद और "जो मनुष्य वीर प्रभुके वचनोंका श्रद्धान कर" इत्यादि वाक्य कौनसे शब्दों के अर्थ हैं ! और 'मोक्षं ह्याप' जैसे पदों के अर्थको अनुवादकजी बिलकुल ही क्यों उड़ा गये हैं !! ये शब्द ऐसे नहीं थे जिनका अर्थ उनकी समझके बाहर हो - उन्होंने खुद पृष्ठ ३८३ पर 'मोक्षमाप' का अर्थ "निर्वाण पदको प्राप्त हुए" दिया है । फिर यहाँ वह अर्थ न देना क्या अर्थ रखता है ? जान पड़ता है ग्रन्थ में आगे भगवान्के बिहार आदिका कथन देखकर हो यहाँ उनके निर्वाणका कथन करना उन्हें संगत मालूम नहीं दिया और इसीलिये उन्होंने उक्त पदोंका अर्थ छोड़ दिया है ! यह उनकी स्पष्ट मायाचारी तथा चालाकी है !! और अनुवादकके कर्तव्यसे उनका भारी पतन है !!! Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१५४] उपसंहार इस प्रकार कुछ नमूनोंके साथ यह अनुवादका संक्षिप्त परिचय है। और इस पर से अनुवादको असत्यता, निस्सारता, अर्थको अनर्थता और अनुवादकको निरंकुशता, चालाको, मायावारो, कपटकला, धृष्टता, धोखादेही और वह दूषित मनोवृत्ति आदि सब कुछ स्पष्ट हैं । वास्तव में यह अनु. वाद मूलसे भी अधिक दूषित है और एक सत्यव्रतादिके धारी तथा सप्तमप्रतिमाके आवारके साथ बद्धपतिज्ञ हुए ब्रह्मचारोके नाम पर भारो कलंक है । इतना अधिक झूठा, बनावटी और स्वेच्छाचारमय अनुवाद मैंने आज तक कोई दूसरा नहीं देखा । शायद हो किसी दूसरेने इतना झूठा और छल-कपटपूर्ण अनुवाद किया हो। इस अनुवाद पर से अनुवादकको जिस कपटप्रवन्धमय असत् प्रवृत्तिका पता चलता है उसके आधार पर ऐसा अनुमान होता है कि अनुवादक ब्रह्मचारी शानचन्द्र उर्फ पं० नन्दनलालजोने सत्यव्रतादिककी जो चप. रास अपने गले में डाल रक्खो है उसमें प्रायः कुछ भी तत्व नहीं है वह अधिकाँश में दूसरों पर अपना प्रभाव जमाने अथवा अपनो स्वार्थसाधनाके लिये नुमाइशो जान पड़ती है। उसे इस अनुवादको रोशनीमे सत्यघोषकी उस कैचीसे कुछ भी अधिक महत्व नहीं दिया जा सकता-न उससे अधिक उसका कोई मूल्य आँका जा सकता है-जिसे सत्यघोषने इस विज्ञापनाके साथ अपने गलेमें लटकाया था कि 'यदि भूलकर भी मेरे मुखसे झूठ निकल जायगा तो मैं इस फैचोसे उसी क्षण अपनी जीभ काट डालूंगा' परन्तु बादको एक घटना पर से जाहिर हुआ कि वह प्रायः झूठ और मायाचारका पुतला था। उसी तरह इस अनुवाद पर से अनुवादक जो भो प्रायःझूठ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१५५] और मायाचारके अवतार जान पड़ते हैं । मुझे तो उनके इस पतनको देखकर भारी अफ़सोस होता है !! अपनो ऐसी जघन्य स्थिति और परिणतिके होते हुए भी अनुवादकजी धर्मात्मा और विद्वान् दोनों बनते हैं, विद्वत्ताको डोंगे हाँकते हैं और दूसरोंको यों ही मूर्ख अधार्मिक आगमविरोधी धर्मकर्मलोपक तथा संस्कृतप्राकनके ज्ञानसे शून्य बतलाते हैं । यह सब उनको निलज्जता और बेहयाई का ही एकमात्र चिन्ह है। यदि यह निर्लज्जताका गुण उनमें न होता तो वे कदापि ऐसा झूठा जाली अनुवाद प्रस्तुत करने का साहस न करते, न व्यर्थ को डोंगे हाँकते और न मिथ्या प्रलाप करते । उनको इस प्रवृत्ति और अनुवादको विडम्बना को देखकर मुझे श्रीसिद्धसेनाचार्यको निम्न उक्ति याद आती है, जो ऐसे ही निर्लज्ज पण्डितोको लक्ष्य करके कही गई है: दैवखातं च वदनं आत्मायत्तं च वाङ्मयम् । श्रोतारः सन्ति चोक्तस्य निर्लजः को न पंडितः ॥ अर्थात्-'मुख तो देवने खोद दिया है ( बना ही रक्खा है), वचन अपने आधीन है ( इच्छानुसार उसका प्रयोग करना आता है ) और जो कुछ कहा जाता है उसको सुननेवाले भी मिल हो जाते हैं, ऐसी स्थितिमें कौन निर्लज्ज है जो पण्डित न बन सके ? भावार्थ-सभी निर्लज्ज, जिन्हें कुछ बोलना अथवा लिखना आता है पण्डित बन सकते हैं, क्योंकि लज्जा हो अयोग्योंके पण्डित बनने में बाधक होती है। प्रत्युत इसके योग्योंके पाण्डित्यमें वह सहायक बनती है। उसके कारण उन्हें सदैव यह ख़याल बना रहता है कि कहीं कोई बिना सोचे समझे ऐसी कच्ची बात मुँहसे न निकल जाय जिसके Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१५६] कारण विद्वानों के सामने लज्जित होना पड़े। और इसलिये वे अपनी बातको बहुत कुछ जांच तोल कर कहते हैं। मूल प्रन्थकार पं० नेमिचन्द्र के ऊपर भी यह उक्ति खूब फबती है । उसकोधूत लीलाओं तथा योग्यताओंका पाठक भले प्रकार अनुभव कर चुके हैं और यह जान चुके हैं कि यह प्रन्थ कितना अधिक जालो, झूठा, निःसार, प्रपंची, असम्बदमलापो तथा विरुद्ध कथनोंसे परिपूर्ण है और इसमें भ० महावीरकी कैसी मिट्टी ख़राब की गई है। इतने पर भी स्वयं प्रन्थकार इसकी बड़ी प्रशंसा करता है-इसे जिनवरमुखजात, सकलमुनिपसेव्य, पापप्रणाशक, धर्मजनक, शिवप्रद, बुधनुत, सद्बुद्धिदाता, प्रवरगुणदाता, पावन, सकलमन:प्रिय और सिद्धान्त समुद्रका सार आदि और न मालूम क्या क्या बतलाता है, इसीके पढ़ने स्वाध्याय करने आदिकी प्रेरणा करता है और अपनेको 'विद्वदर' लिखता है * !! इससे पाठक समझ सकते हैं कि प्रन्थकारका यह कितना निर्लज्ज पाण्डित्य अथवा धृष्टतामय प्रलाप है !!! __ मैं समझता हूँ मूलप्रन्थ और उसके अनुवादका जो परिचय ऊपर दिया गया है वह काफोसे भी कहीं अधिक हो ___*इस ग्रंथ-प्रशंसाके कुछ वाक्य नमूनेके तौर पर इस प्रकार हैं:"जिनवरमुखजातं गीतमाघ : प्रणोतं, सकलमुनिपसेव्यं हि इद भो भजध्वम् ।" "कुर्वीध्वं यधहानये अनुदिनं स्वाध्यायमस्यैव वै।"-पृष्ठ ४०३ "बुधाश्चेमे ग्रंथं प्रबरगुणदं धर्मजनक । अधा नाशं यान्ति श्रवणपठनादस्य निखिलाः ।" "ग्रंथम बुधसत्तमाः शिवप्रदं विद्वद्वरेणैव वै। प्रोक्त पापप्रणाशकं बुधनुसं सद्बुद्धिदं पावनम् ॥"-पृष्ठ ४०८ "सारं सिद्धान्तसिन्धोः सकलमनः प्रियं नेमिचंद्रेण धीराः।"-पृ० ११० Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १५७ ] गया है और इस बातको सिद्ध करनेके लिये पर्याप्त है कि यह ग्रंथ वास्तव में कोई जैन ग्रंथ नहीं किन्तु जैनमन्थोंका कलंक है, पवित्र जैनधर्म तथा भगवान महावीरको निर्मलकीर्तिको मलिन करने वाला है, सिर से पैर तक जाली है और विषमिश्रित भोजन के समान त्याज्य है । इसलिये इसके विषय में समाजका जो कर्तव्य है वह स्पष्ट है-उसे अपने पवित्र साहित्य, अपने पूज्य प्राचीन आचायौकी कीर्ति और अपने समीचीन आचारविचारों की रक्षाके लिये ऐसे विकृत पर्व दूषित ग्रंथोंका शीघ्र से शीघ्र बहिष्कार करना चाहिये । ऐसे ग्रंथोंको जैन शास्त्र अथवा जिनवाणी मानना महामोहका विलास है । यह प्रन्थ 'चर्चासागर' से भी अधिक भयंकर है; क्योंकि इसकी गोमुखन्याघ्रता बढ़ी हुई है, और इसलिये ऐसे प्रन्थोंके सम्बन्धमें और भी ज़्यादा सतर्क एवं सावधान होनेकी ज़रूरत है। हाँ, अब प्रश्न यह होता है कि ऐसे उभयभ्रष्ट, अतीव दूषित और महा आपत्तिके योग्य ग्रन्थको आचार्य कहे जानेवाले शान्तिसागरजीने कैसे पसंद किया, क्योंकर अपनाया और किस तरह वे उसकी प्रशंसा तथा सिफ़ारिश करने बैठ गये ! इसका कारण एक तो यह हो सकता है कि शांतिसागरजीने इस ग्रंथको पढ़ा नहीं - वैसे ही अपने शिष्य एवं मुख्य गणधर पं० नन्दनलालजी के कथन पर विश्वास करके और उन्हींसे दो चार बातें इधर उधरकी सुनकर वे इसके प्रशंसक बन गये हैं । दूसरा यह हो सकता है कि उन्होंने इस ग्रंथको पढ़ा तो ज़रूर है परन्तु उनमें खुद मंथसाहित्यको जाँचने, परीक्षा करने और उस परसे यथार्थ वस्तुस्थितिको मालूम करने अथवा सत्यासत्यका निर्णय करने आदि की कोई योग्यता न होनेसे ( योग्यता की यह त्रुटि उनके आचार्य पदके लिये एक प्रकारका दूषण होगा ) वे उक्त पंडितजी के प्रभाव में पड़कर यो हो एक साधारण जनकी तरह Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १५८] इसे अपनाने लगे हैं। और यदि इन दोनों से कोई कारण नहीं है तो फिर तीसरा कारण यह कहना होगा कि शान्तिसागरजी भी ग्रंथकार तथा अनुवादककेरंगमें रंगे हुए हैं, उन्हींके आचारविचार एवं प्रवृत्तिको पसन्द करते हैं और भट्टारकी चलाना चाहते हैं। अन्यथा, प्रथको अनुवाद-सहित पूरा पढ़ने और उसके गुण-दोषोंके जांचने की यथेष्ट योग्यता रखनेपर वे कदापि इस ग्रंथको न अपनाते और न अपने संघर्म इसका प्रचार होने देते। प्रत्युत इसके, इतना झूठा, कपटी, बनावटी तथा स्वेच्छाचारमय अनुवाद प्रस्तुत करने के उपलक्षमें अपने शिष्य पं० नंदनलालजोको कभीका संघबाह्य किये जानेका दण्ड देते । जहाँ तक मैं समझता हूँ पहले दो कारणोंको हो अधिक संभावना है और इसलिये समाजका यह खास कर्तव्य है कि वह आचार्य महाराजजीको इन परीक्षा लेखौका पूरा परिचय कराए,ग्रंथकी असलियतको समझाए और उनसे अनुरोध करे कि वे इस विषयमें अपनी भूलको सुधारें, अपनी पोजीशनको साफ़ करें और अपने उक्त शिष्य (वर्तमान् क्षुल्लक ज्ञानसागरजी ) को इस महा अनर्थ के कारण खुला प्रायश्चित्त लेनेके लिये बाध्य करें। यदि वे यह सब कुछ करने करानेके लिये तैयार नहीं होते हैं तो समझना होगा कि तीसरा कारण ही उनकी इस सब प्रवृत्ति का मूल है-चे पं० नन्दनलालजी जैसोंके हाथ किसी तरह विके हुए है। और तब समाजको उनके प्रति अपना जो कर्तव्य उचित जचे उसे निश्चित कर लेना होगा। इस विषयमें मैं इस समय और कुछ भी अधिक कहने की जरूरत नहीं समझता। ____ अन्तमें सत्यके उपासक सभी जैन विद्वानों तथा अन्य सज्जनोंसे मेरा सादर निवेदन और अनुरोध है कि वे इच्छा Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १५९ ] ग्रंथके सम्बन नुसार लेख के इन परीक्षालेखोंकी यथेष्ट जाँच करते हुए इस में अपनी स्पष्ट तथा खुली सम्मति प्रकट करने की कृपा करें। हुँदि परीक्षा से - जिसपर मुझे विश्वास है—उन्हें भो यह ग्रंथ ऐसा ही सदोष, निःसार, अनर्थकारी तथा जैनशासनको मूलेन करनेवाला जँचे तो समाजहितको दृि उनका यह मुख्य कर्तव्य होना चाहिये कि वे इसके विरुद्ध अपनी जोरदार आवाज़ उठाएँ और समाजमें इसके विरोधको उतेजित करें, जिससे धूर्तोकी की हुई जैनशासनकी यह मलिनता दूर हो सके। इस समय उनका मौन रहना ठीक नहीं होगा. वह ऐसे अनेक अनर्थकारो ग्रंथोंको जन्म देगा अथवा उन्हें प्रकाशित कराने में सहायक बनेगा और उससे समाजकी बहुतसी शक्तिका दुरुपयोग होगा । यह ग्रंथ 'चर्चासागर' का बड़ा भाई है, जैसा कि मैंने ऊपर प्रकट किया है, इसकी गोमु खव्याघ्रता उससे बढ़ी चढ़ी है, जिसके कारण समाजको इससे अधिक हानि पहुँने की संभावना है ऐसे ही ग्रंथोंकी बदौलत हम कितने ही संस्कार बड़े कीय हो रहे है जिन्हें बड़े प्रस्तार होगा। अतः इसका विरोध एवं बहिष्कार वर्षासामने भी होना चाहिये जो सज्जन इस सम्बन्धर्मे अपनी सम्मति मेरे पास भेजने की कृपा करेंगे अथवा इसके विरोधी प्रस्तावोंको जैनमित्र, जैनरंगत या वीर पत्र में प्रकाशित कराएंगे उन सबका मैं विशेष आभारी हूँगा । इत्यलम् ॥ सरसावा जिल्ला सहारनपुर ता० ६-१-१९३३ } जुगलकिशोर मुख्तार Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर सेवा मन्दिर - पुस्तकालय मता काल न. लेखक सरकार जुमला सारा खण्ड क्रममाव्या