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[ ८० ] ही धर्माचरण फिरसे करना होगा !! अर्थात् उसके इस फिरसे किये जानेवाले ३१३ दिनके धर्माचरणका मूल्य २००) के करीब है !!!
पाठकजन ! देखा, धर्माचरणके साथ धनकी यह कैसी विचित्र तुलना है ! निम्रन्थ मुनियों के पास तो धन होता ही नहींभले हो भट्टारकलोग धन रक्खा करें और उनके लिये भी इस व्रतका विधान किया गया है, तब उन निर्धन महात्माओंको भी दुगुना व्रत करना पड़ेगा !!-उनकी ३१३ दिन तक महाबतरूप परिणति भी उस फलको सिद्ध नहीं करसकेगो !!! बड़ो. ही विचित्र कल्पना है ! समझमें नहीं आता, इस व्यवस्थाको व्रतविधान कहा जाय या दण्डविधान अथवा एक प्रकारको दुकानदारी!! धनको इतना महत्व दिया जाना जैनधर्मकी शिक्षाके नितान्त बाहर है।
__ भगवान महावीरके शासनमें तो आकिंचिन्यधर्म अथवा अपरिग्रहत्वको खास महत्व प्राप्त है और सिद्धिका जो कार्य पेसे त्यागी धर्मात्माओंसे सहजहोमें बन सकता है वह धनाढ्योंसे लाखों रुपये दानपूजामें खर्च करनेपर भी नहीं बनता । मालूम होता है इस सब व्यवस्थाके नोचेउसकी तहमें-पंचामृतादिकके अभिषेक, जिनप्रतिमापर गन्ध. लेपन, सचित्तादिद्रन्योंसे पूजन और भट्टारकों को कुछ प्राप्ति करानेकी मनोवृत्तिही काम कर रहीहै । इसीसे प्रथमें धनाढ्यों को प्रकारान्तरसे कुछ डांटाभी गया है-कहा गया कि 'येलोग व्रतको उत्थापना करेंगे, ऐसे पापियोंका धन पुत्र-पुत्रियोंके विवाहों और मृतकादि की क्रियाओंमें तो खर्च होगा, पापकार्यों में तो लगेगा परन्तु धर्मकार्यों में व्यय नहीं होगा, धर्मकार्योंसे ये लोग परान्मुख रहेंगे । बुधजनों को सदा चाहिये कि वे पूजा और पात्रदानादिकमें, जोकि जिनेन्द्र भगवान्के कार्य