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________________ [ ८१ ] हैं (!) कृपणताको धारण न करें-वह अनेक दुःखोकी दाता है । पिछली बातका सूचक वाक्य इस प्रकार है : भो बुधाः ! जिनकार्येषु इज्यापात्रादिषु सदा। कृपणत्वं भजध्वं मा ह्यनेकदुःखदायकम् ॥ ४०॥ आगे चलकर इस मनोवृत्तिने और भी विशेष रूप धारण किया है। प्रन्थकारको उद्यापनकी बात याद आ गई और इसलिये उसने व्रतको सारी विधि तथा फलकी बात हो चुकने के बाद और यहाँ तक कहे जाने के बाद भी कि-"कर्मदहन व्रतस्य विधिश्च कथितो मया । करिष्यति सुभावेन इदं यास्यति सोऽव्यये ॥" (४३) उद्यापनकी तान छेड्दी है ! और उसके विषयमें भगवानसे कहला दिया है कि-'व्रतको पूर्णता पर वतियोंको व्रतफलको सिद्धिके लिये हर्षक साथ श्रीखिनेन्द्रकी ® एक स्थानपर इसी प्रकरणमे पूजा तथा पात्रको भोजनदान न करके भोजन करनेवाले गृहस्थको निश्चयसे नरकके दुःखों का भोगने वाला लिखा है ! (पृ० २२०) अनुवादक महाशय इस विषयमें ग्रन्थकारसे भी दो कदम आगे जान पड़ते हैं। क्योंकि उन्होंने इससे भी पहले ग्रन्थमें उद्यापनकी बात छेडी है-अर्थात् ३१ वें श्लोकका अर्थ देते हुए 'गृहे यदि दरिद्रः स्यात्' का अर्थ "यदि दरिद्रताके कारण व्रतका उद्यापन करनेकी शक्ति न हो" ऐसा कर दिया है ! जब कि वहां उद्यापनका कोई प्रसंग ही नहीं था !! यदि ज्यापनके बिना व्रतफलकी सिद्धि ही नहीं होती तो ग्रन्थकारको बतफलका विधान उद्यापन-विधानके बाद करना चाहिये था, परन्तु ऐसा नहीं किया गया और इसलिये यह कहना ठीक होगा कि ग्रन्थकारको उद्यापनकी बात बादको याद आगई है और वह व्रतविधिके अतिरिक्त है।
SR No.009241
Book TitleSuryapraksh Pariksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1934
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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