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मेरे विचार ! कोई चार वर्षके करीब हुए, जाँबुडो (गुजरात) में मुझे सूर्यप्रकाश' प्रन्थको देखने का अवसर मिला था और उसे देखने पर पथके निर्माण, अनुवाद, प्रकाशन और दिगम्बर जैन पुस्तकालय सूरत के विज्ञापन में उसे स्थान दिये जाने आदि पर कितनो हो शंकाएँ उतपन्न हुई थीं। हालमै पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार को लिखो हुई उसको पूरी परोक्षा-लेखमालाको भी मैंने पढ़ा है। वास्तव में स्वामी समन्तभद्रद्वारा प्रतिपादित शास्त्रलक्षण के अनुसार यह 'सूर्यप्रकाश पंथ कोई जैनशास्त्र नहीं है। इसमें पदपद पर विरोध भरे पड़े हैं, प्रतिवादियों को इसके द्वारा जैनधर्मके खंडनका एक अमोघ शस्त्र प्राप्त हो जाता है, तत्त्वोपदेश. का तो इसमें नामोनिशान भी नहीं है, मोही प्राणियोंको जोकि विचार प्रापहो मोक्षमार्गको भूले हुए, और भो भुलावे में राल. कर उनका अहित करनेवाला है और मिथ्यात्वका वर्धक है। तब ग्रंथकारने ऐसा मिथ्यात्वपोषक ग्रंथ रचा ही क्यों ? इस शंकाके लिए इतना ही समझलेना काफ़ो होगा कि अहंमन्य मुनिराज सोमसेन भट्टारकने जब त्रिवर्णाचार जैसा ग्रंथ रचकर संसारको भुलावेमें डालदिया है तब ये ग्रंथकार महाशय नेमिचन्द्र भी तो उन्हीं शिथिलाचारी भट्टारकोंके शिष्य-प्रशिष्य है, शिष्य महाशय यदि गुरुसे दो कदम आगे न बढे तो गुरुका नामही क्या चलासकेंगे ? ठोक है, इनको ऐसा ही करना रचित था, क्योंकि ये बहुआरंभी और परिग्रही थे, विषयकषायोके गहरे रंग रंगे हुए थे, ऐसा करने में ही इनके प्रयो. जनकी सिद्धि थी अथवा ये ऐसा ही कर सकते थे। इनके पास थे भी मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र; उन्हींको इन्होंने दूसरोंको बतलाया है।