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[5] भट्टारकीय संस्कारोंसे संस्कारित होने के साथ साथ से ग्रंथकार महाशय अशनबहुल भी थे,इसीसे वे अपनी इस रचना में सिद्धहस्त न हो सके । इन्होंने जो कुछ विचार प्रकट किये वे सब भगवान महावीरके मुखसे भविष्यमें होने वाली घटनाओं के सम्बन्ध में किये हैं परन्तु खेद है कि भविष्य कहलाते कहलाते आप भूत भी कहलाने लगे और वह भी उनके सम्बन्धमे जिनका अस्तित्व न तो भगवान महावोरसे पहले ही था और न वोर प्रभुके समकालीन हो थे ! इसी के साथ आप ऐसो ऐसी बातें भी कहलागये जो पूर्वापर विरोध को लिये हुए तथा जैन सिद्धान्तके सर्घथा विरुद्ध हैं। इतना ही नहीं, किन्तु जिन कठोर एवं तिरस्कारमय अपशब्दों के कहने में एक साधारण अज्ञानी तीवकषाबी जीव भोशंकित और संकुचित हो उन्हें भी आप बिना किसी संकोच के परम वीतरागी भ० महावीरके मुखसे कहला गये हैं !
और वह भी प्रायः उन्हींके उपासकों के प्रति !! इन सब असम्बद्ध विरुद्धादि विलक्षण बातोंका इस परीक्षामें विस्तारके साथ अच्छा दिग्दर्शन कराया गयाहै। उसे पाठकोंको देखना चाहिये। अच्छा होता यदि ग्रंथकार महाशय अपने विचार स्वयं स्वतंत्र रोतिसे लिखते और महाराजा श्रेणिक का सम्बन्ध मिलाकर उन्हें वोर प्रभुके द्वारा कहे गये प्रकट न करते; इससे प्रभुका अवर्णवाद तो न होता । अपने विचारों के साथ मदावोर प्रभुका नाम जोड़ देना घोर अपराध है और दूसरोंको धोका देना है।
समझमें नहीं आता पं० नन्दनलालजी वर्तमान क्षुल्लक ज्ञानसागर जी महाराज अपना गृहस्थावास त्याग करके जब केवल सम्यगदर्शनादि आराधनाओं का विशेष रूपसे आराधन करनेके लिये ही अनगार संघमें विचर रहे हैं तब वे ऐसे दूषित प्रन्योंके अनुवादादिद्वारा उनके प्रचार में क्यों लग गये ? आपने केवल सूर्यप्रकाश ही नहीं किन्तु चर्चासागर भोप्रकाशित करा