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[61 कर दानविचार भी स्वतंत्र रचडाला, जिनकी समीक्षाएँ भी निकल चुकी हैं और जिनके कारण समाजमें खासी हलचल (जंग) मची हुई है। मेरी यह शंका और भी गम्भीर हो जातीहै जब मैं देखता हूँ कि इन प्रन्योंका समर्थन दक्षिणी मुनिसंघके द्वारा किया गया है । श्रीमान आचार्य शांतिसागरजी महाराज कुछ भी इनके विरुद्ध अपना मत प्रकट नहीं कर रहे हैं और इसलिये कितनी ही भोली जनता इनको जैन शाख समझकर अपना रही है। मालूम होता है या तो आचार्य शांतिसागर महाराज इन ग्रंथोंसे सहमत हैं या अपने सच्चे विचार किसी. कारणसे प्रगट करने में असमर्थ हैं अथवा उनको असलो बात बतलाई ही नहीं जाती। कुछ भी हो, उनका कर्तव्य है कि वे इनके विषयमें शीघ्र ही अपना स्पष्ट मत जैसा हो बैला अवश्यही प्रगट करादचे, जिससे जनता का भ्रम मिट जाये। जहां तक मैं समझताहूँ उनको ग्रंथों तथा ग्रंथसमीक्षाओं आदिकीये सब बाते विदित हीनहीं होती और योही संघको अकोर्ति होरही है ! अतः समाजके व्यक्तियोंकोचाहिये कि वे प्राचार्य महाराज परिचयमें ये सब बातें लाएँ और फिर उनसे पूछे कि वे प्रतिप्रथादि. के विषयमें अब क्या मत रखते हैं ?-इन्हें आर्ष प्रन्थ (आगम). मानते हैं याकि धर्मविरुद्ध संसार परिपाटीके कद्धक मानते हैं ?
खेद है कि अनुवादक महाशय क्षुल्लक शानसागरजोने इस ग्रंथके कर्ता पं० नेमिचन्द्रको आचार्य नेमिचन्द्र बना डाला है! और अनुवादमें मूलार्थके नामसे बहुतसी अपनी बाते मिला दो हैं !! उनकी इस कतिसे भले ही कुछ भोले भाले प्राणी ठगारजायं परन्तु विवेको परीक्षक पुरुष तो कभी भी उगाये नहीं जा सकते । जब आचार्य नेमिचन्द्र की कृतियों के साथ पं० नेमिचन्द्रकी इस कर्तृत 'सूर्यप्रकाश' को अथवा बाबा भागीरथजी वर्णीके शब्दोंमें “घोर मिथ्यात्वप्रकाश" को रक्खेंगे तो वे इसे