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प्रकाशकके दो शब्द 'सूर्यप्रकाश' कैसा-किस कोटिका-जाली प्रन्थ है, कितना अधिक जैनस्वसे गिरा हुआ है, कहाँ तक भ० महावीर के पवित्र नामको कलंकित तथा जैनशासनको मलिन करने वाला है और उसका अनुवाद कितना अधिक निरंकुशता, धूर्तता एवं अर्थ के अनर्थको लिये हुए है, ये सब बातं इस परीक्षालेखमालामें दिनकर-प्रकाशकी तरह स्पष्ट करके बतलाई गई है। जैनसमाजमें प्रन्थोंको परोक्षाके मार्गको स्पष्ट और प्रशस्त बनाने वाले मुख्तार साहिब पं० जुगलकिशोरजोको यह लेखमाला 'जैनजगत' में, १६ दिसम्बर सन् १९३१ के अङ्कसे प्रारंभ होकर पहली फ़र्वरी सन् १९३३ तक अङ्कोंमें, १० लेखों द्वारा प्रकट हुई थी। उसोको मुख्तार साहिबसे पुनः संशोधित कराकर यह पुस्तक रूपमें प्रकट किया जा रहा है। लेखक महोदयने इस लेखमालाके द्वारा मंथकी असलियतको खोलकर निम्सन्देह समाजका बड़ाही उपकार किया है। आपका यह लिखना बिल. कुल ठीक है कि इस प्रथको गोमुख-व्याघ्रता 'चर्धासागर' से भी बढ़ी चढ़ी है और इसलिये इसके द्वारा समाजको अधिक हानि पहुँचनेको संभावना है । अतः समाजके सभी सज्जनोंसे मेरा सानुरोध निवेदन है कि वे इस पुस्तकको गोरके साथ साधन्त पढ़नेको कपा करें आर उसके फलस्वरूप चर्चासागरके इस बड़े भाई 'सूर्यप्रकाश'का शीघ्र हो पूर्ण रूपले बहिष्कार करके प्रा. चोन जैनसाहित्य और जैनशासनको रक्षाका पुण्य संपादनकरें।
अंतमें मैं,लेखकमहोदय और भूमिका-लेखक पं० दरबारीलालजोका तथा श्रीमान् ७० दोपचन्द्रजोवर्णीका हृदयसे आभार मानता हुआ, उन सभी सज्जनोंका सहर्ष धन्यवाद करता है जिन्होंने इस पुस्तकके प्रकाशनमें मुझे आर्थिक आदि किसीभी प्रकारको सहायता प्रदान की है। -जौहरीमल जैन ।