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[१५०] दूसरेमें यह बतलाया है कि 'उस ब्राह्मणीने श्रीजिनमंदिरमें श्रीजिनदेवका अभिषेक किया और वह अतिशय हर्षको प्राप्त हुई।' यहां 'अभियेकाय धृत्वा' का अर्थ "अभिषेक किया" दिया है, जो बड़ा ही विचित्र जान पड़ता है ! इसी तरह अन्यत्र भी युग्म श्लोकोंको न समझकर उनके अर्थ में गड़बड़ की गई है !!
(३३) पृष्ठ १६२ पर श्लोक नं. ५५ में प्रयुक्त हुए 'भवता यदि श्रद्धा स्यात् ग्रंथाना' इन शब्दोंका स्पष्ट अर्थ है-'यदि तुम्हारे ग्रंथोंकी श्रद्धाहो' । परन्तु अनुवादकजी ने "जिससे जिनागममें श्रद्धा हो" यह विलक्षण अर्थ किया है। 'यदि' का अर्थ "जिससे' बतलाना यहअनुवादकीय दिमागको खास उपज जान पड़ती है !!
(३४) पृष्ठ २६४ पर संख्यावाचक पद 'चन्द्रपक्षप्रमः' का अर्थ १२ किया गया है, जब कि वह 'अंकानां वामोगतिः' के नियमानुसार '२१' होना चाहिये था। पृष्ठ २८३ पर 'हिमांशुनेत्र' का अर्थ भी '२१' की जगह १२ गलत किया गया है, जब कि इसी पष्ठ पर रंध्रवेदभवं' का अर्थ उक्तनियमानुसार *४९ भव" दिया है ! और इससे अनुवादक का खासा स्वेच्छाचार पाया जाता है ! और पृ०२६७ पर 'नेत्राद्रिप्रमलता.' पदका अर्थ '६२ लाख' दिया है, जब कि वह '७२ लाख' होना चाहिये था क्योंकि 'अद्रि' शब्द सातको संख्याका वाचक है ! इसी तरह अन्यत्र भी कितने ही संख्यावाचक शब्दों तथा पदो का अर्थ इसमें विपरीत किया गया है !!!
ये सब (प्रायः नं०२९ से लेकर यहाँ तक) अनुवादकजीके उस संस्कृत-शानके खास नमूने हैं जिसके आधार पर वे सुधारकों तथा ग्रंथोंकी समालोचना करने वाले विद्वानोंको यह कहने बैठे हैं कि "उनको संस्कृत प्राकतका ज्ञान नहीं है।"