________________
[ १५१ ]
परन्तु एक बढ़िया नमूना तो अभी बाकी हो रह गया है, और वह आगे दिया जाता है ।
(३५) श्र ेणिककी प्रश्नावलीको उत्तरसमाप्तिके बाद ग्रंथ में पृष्ठ ३७८ पर दो पथ निस्र प्रकारसे दिये हैं:भूतं भांतमभूतमेव ह्यखिलं संसारतापापहं । वीरो वीरगुणाकरो मुनिनुतो वृत्तांत वांजसा ॥ श्रायुः कायसुसारवैभवयुतान् पुण्योदयात् सत्सुखान् । मत्यीनां च पृथक् पृथक् जिनपति: त्रिषष्ठिकानां शुभम् ॥ १७६॥ पौराणांश्च तथा हि अन्यमनुजानां च चरित्रं महत् । तवातत्वविभेदकं च स्मरतो मोक्षस्वरूपं तथा ॥ कृत्वेत्थं च नेिश्वरां बहरो व्याख्यानकं चोत्तमं । मोक्षं ह्याप दयार्द्रधीः जितरिपु: सर्वाधिपैर्वदितः ॥ १७७॥
ये दोनों पद्य 'युग्म' रूप से है- दोनोंका मिल कर एक वाक्य बनता है, जिसकी क्रिया 'आप' दूसरे पद्य अन्तिम चरण पड़ी हुई है । इनमें बतलाया है कि
'इस प्रकार वीरगुणों के आकर मुनियोंसे स्तुत पापका नाश करने वाले दयाबुद्धि जितरिपु और सर्व अधिपतियों से वंदित ऐसे जिनपति श्रीमहावीर जिनेश्वरने, संसार तापको दूरकरने वाले भूत-भविष्यत वर्तमान सम्बन्धी संपूर्ण शुभ वृत्ततिका, मनुष्यों के आयु काय तथा सार वैभवसहित पुण्यो दयसे होने वाले सत्सुखोंका, प्रेसठ शलाका पुरुषोंके पृथक् पृथक् पौराणोंका तथा दूसरे मनुष्योंके महत् चरित्रका तत्वातत्वके विभेदका और मोक्षके स्वरूपका चिन्तन करते हुए ( अर्थात् इन सबको लिये हुए ) उत्तम उपदेश देकर मोक्षको प्राप्त किया।'