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[१२] होना आदि कारणों से-कलियुगमें मुनिपद के धारक तुच्छ पुरुषही होंगे, जैसे 'राजा वैसी प्रजा' । यहां जिन राजाओं, के साथ तुलना करते हुए उन्हें तुच्छ कहा है प्रथके शुरू में (पृ०२६, २७) उन राजाओंको 'नीचा हि राज्यभोक्तार!' 'न्यायहीनाश्च भूमिपाः' जैसे शब्दोंके द्वारा नीचादि प्रकट किया है,
और साधुओंको भो 'साधुगुणविहीनांगा: आदि लिखा है, जिस का अर्थ खुद अनुवादकजी ने यह किया है कि-"पंचमकाल में ऐसे साधु और भेषधारी ब्रह्मचारी होंगे जिनमें अपने पद के योग्य गुणोंका अभाव होगा"। ऐसी हालत में प्रसंगानुसार यहाँ 'तुच्छ' का अर्थ होन या निकष्ट होना चाहिये था; परन्तु उसे न देकर स्वल्पसंख्यक अकिया गया है-लिखा है कि "मुनिपदके धारक वीर पुरुषोंकी संख्या स्वल्प होगी"। शायद अनुवादकजीको यह भय हुआ हो कि इस विशेषणपद परसे उनके वर्तमान गुरु कहीं तुच्छ (होन अथवा निकष्ट) न समझ लिये जायं!-भलेहो वे साधुगुणविहीनांग हो !!
(३२) पृ० ११९ पर श्लोक नं० ५३८, ५३९ 'युग्म' रूपसे है-दोनोंको मिलाकर एक पूरा वाक्य बनता है और उनका सार (विशेषणों को छोड़कर) सिर्फ इतना ही है कि 'वह ब्राह्मणी उसी संठपुत्रोके वचनानुसार सहर्ष एक घड़ा पानीका लेकर (आधाय) और उसे अभिषेककेलिये (अभिषेकाय) जिनमंदिरमें धरकर (धृत्वा ) अपने घर चली आई (स्वस्थान चागात् )। परन्तु अनुवादकजीने यह सब कुछ न समझकर दोनोंका बड़ा ही विलक्षण अर्थ अलग अलग कर डाला है ! एकमे यह सूचित किया है कि 'वह ब्राह्मणी पानीका एक घड़ा नदीमें से भरकर और जिनमंदिर जाकर उसे श्री वीतराग अरहंत प्रभु पर चढ़ा आई और फिर अपने घर पर गई।' और