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[१२९] परन्तु भ्रष्ट एवं शिथिलाचारी भट्टारकों और उनके पंडे. पोपों अथवा अनुयायियोंने चूंकि अपने लौकिक स्वार्थोकी सिद्धि के लिये ग्रंथों में बहुत कुछ मिलावट की है और अपने जाली सिक्कोंको तीथंकरों तथा प्राचीन ऋषियोंके नामसे चलाना चाहा है, इसलिये “पापा: सर्वत्र शंकिता:" की नीतिके अनु. सार उन्हें बराबर इस बात की चिन्ता और भय रहा है कि कहीं उनका यह कपट-प्रबन्ध किसी पर खुल न जाय, और इसीसे वे अनेक प्रकार के उपदेशों आदि द्वारा ऐसी रोकथाम करते आये हैं, जिससे लोग तुलनात्मक पद्धतिसे अध्ययनकर ग्रंथोंकी परीक्षा प्रवृत्त न हों, उनपर कुछ आपत्ति न करें और जो कुछ उनमें लिख दिया गया है उसे घिना 'चूंचरा' किये अथवा कान हिलाये चुपचाप मानलिया करे! और शायद यही वजह थी जो वे आमतौर पर गृहस्थोंको ग्रंथ पढ़ने के लिये प्रायः नहीं देते थे, उन्हें पढ़नेका अधिकारी नहीं बतलाते थे और खुद ही अपनी इच्छानुसार उन्हें ग्रंथोंकी कुछ बातें सुनाया करते थे-यह सब तेरहपन्थके उदयका ही माहात्म्य है जो सबके लिये प्रन्थोंका मिलना इतना सुलभ होगया है । इस प्रन्थमें भी भट्टारक गुरुओं (जिनात्तपुरुषो) के मुखसे ग्रंथोके सुननेकी प्रेरणाकी गई है, जिसकी सीमाको बढ़ाते हुए अनु. वादकजीने यहाँ तक लिख दिया है कि "प्रन्थों का स्वाध्याय गुरु मुखसे ही श्रवण करना चाहिये !!" और उक्त श्लोक नं० ६८३ से ११ श्लोक आगेही सम्यग्दर्शनका विचित्र लक्षण वाला वह श्लोकभी दिया है जिसमें प्रन्थकारोंने प्रन्थों में जो कुछ लिख दिया है उसीके माननेको सम्यग्दर्शन बतलाया है ! और जिसकी आलोचना 'कुछ विलक्षण और विरुद्ध बाते' नामक प्रकरणमें नं०६ परकी जा चुकी है।
खुद अनुवादकजीने जानबूझ कर इस ग्रंथके अनुवादमें