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________________ [ ९७ ] मातङ्ग (म्लेच्छ-विशेष) आदि मनुष्योंने शुद्ध एक (कर्मदहन) व्रतका पालन करनेसे सुखको प्राप्त किया है । यथा: "श्वपचो जिनधर्मेण कथितः श्रावकोत्तमः।"... "ह्यलको वृतयोगेन देवत्वे जायते खलु ।"... "कीटोऽपि व्रतलेशेन भजते गतिमुत्तमाम् ॥१० ३७॥" "मातंगाद्याश्च ये माः शुद्धैकव्रतपालनात् । सुखमाप्ताः ..... ॥पृ० ३८१॥" जब इसी प्रन्थ के कथनानुसार श्वपच-मातंग ही नहीं किन्तु कुत्ता और कोड़ा भी व्रतका पालन कर सकता है तब एक म्लेच्छ-पुत्र या पुत्री व्रतका अनुष्ठान करते हुए मर कर मनुष्य होने पर भी व्रतका पालन न कर सके-सर्वथा व्रतहीन हो रहे-यह कैसे बन सकता है ? अतः ग्रंथकारकी यह नई ईजाद अथवा व्यवस्था बिलकुल उसकी नासमझी पर अवलम्बित है, वास्तविकतामे उसका कोई सम्बन्ध नहीं और उसे एक उन्मत्त प्रलापसे अधिक कुछभो महत्व नहीं दिया जा सकता। इसी तरहको और भी कितनी ही बाते कर्मसिद्धान्त की विडम्बनाको लिये हुए पाई जाती हैं, जिन्हें यहाँ छोड़ा जाता है। १० स्त्रीजातिका घोर अपमान ! प्रन्थके शुरूमें भगवान्के मुंहसे पंचमकालके भविष्यका वर्णन कराते हुए एक स्थान पर लिखा है: शीलहीना भविष्यन्ति वामास्तस्मिन्मदोद्धताः। त्यक्त्वा च स्वपति दासं मोक्ष्यन्ति कालदोषतः ॥१०॥
SR No.009241
Book TitleSuryapraksh Pariksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1934
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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